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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतसामाजिक न्याय की सबसे विश्वसनीय आवाज बनकर उभरे तेजस्वी यादव

सामाजिक न्याय की सबसे विश्वसनीय आवाज बनकर उभरे तेजस्वी यादव

पूरे उत्तर भारत में राष्ट्रीय जनता दल अकेली पार्टी है जिसने न सिर्फ खुलकर सवर्ण आरक्षण का विरोध किया, बल्कि राज्य सभा में इसके खिलाफ वोट भी डाला.

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केंद्रीय कैबिनेट ने 7 जनवरी को ये फैसला करके देश को चौंका दिया कि सरकार सवर्ण गरीबों को सरकारी नौकरी और शिक्षा संस्थानों में 10 प्रतिशत आरक्षण देगी. इस फैसले की सार्वजनिक घोषणा होते ही देश में राजनीति अचानक गर्मा गई. तमाम राजनीतिक दलों की आंतरिक बैठकें शुरू हो गईं और पार्टी प्रवक्ता पार्टी का पक्ष रखने की तैयारी करने लगे. शाम होने तक लगभग सभी पार्टियों ने घुमा-फिराकर इस प्रस्ताव का समर्थन कर दिया.

विपक्षी दलों ने प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कुछ आपत्तियां जरूर उठाई कि ऐसा अभी क्यों किया जा रहा है या फिर कि सरकार ने तो सारी नौकरियां खत्म कर दी है, रिजर्वेशन किसको देंगे. लेकिन प्रस्ताव के खिलाफ कोई बोल नहीं रहा था. तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस घोषणा के बाद सांप सूंघ गया. ऐसा लगा कि तीन राज्यों में हार के बावजूद मोदी पस्त नहीं, बल्कि तंदुरुस्त ही हैं और उनके तरकश में बहुत सारे ब्रह्मास्त्र हैं.

ऐसे समय में बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री और आरजेडी के युवा नेता तेजस्वी यादव का एक ट्विट आता है– ‘अगर 15 फ़ीसदी आबादी को 10 प्रतिशत आरक्षण तो फिर 85 फ़ीसदी आबादी को 90 प्रतिशत आरक्षण हर हाल में मिलना चाहिए. 10 प्रतिशत आरक्षण किस आयोग और सर्वेक्षण की रिपोर्ट के आधार पर दिया जा रहा है? सरकार विस्तार से बतायें.’

इस एक ट्विट और उसके बाद पार्टी नेताओं के बयानों ने जाहिर कर दिया कि आरजेडी सवर्ण आरक्षण का विरोध करेगा. अगले दिन लोकसभा में इस बिल पर चर्चा के दौरान आरजेडी सांसद जयप्रकाश यादव ने बिल का विरोध किया और जातिगत जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक करने की मांग की. लेकिन तब तक पार्टी सुप्रीमो लालू प्रसाद से, जो रांची मेडिकल कॉलेज में थे, पार्टी नेतृत्व का संपर्क नहीं हो पाया. लेकिन सरकार तो आंधी-तूफान की रफ्तार से इस बिल को पास कराने में जुटी थी.

इसलिए लोकसभा में मतदान तक पार्टी वोटिंग को लेकर अपनी राय नहीं बना पाई. लेकिन अगले दिन लालू प्रसाद से चर्चा के बाद पार्टी ने राज्य सभा में खुलकर सवर्ण आरक्षण का विरोध करने का फैसला किया. अगर बीजेपी ने सवर्ण आरक्षण के पक्ष में बोलने के लिए बैकवर्ड नेताओं को मैदान में उतारा तो राजद ने भी पिछड़ों और वंचितों के पक्ष में वाकपटु नेता मनोज झा को राज्यसभा में खड़ा कर दिया था.

पार्टी ने सवर्ण आरक्षण देने की नरेंद्र मोदी की राजनीति का कड़ा विरोध किया और पार्टी के तमाम सांसदों ने राज्यसभा में इस बिल के खिलाफ वोट डाला.


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गौर करने की बात है कि यह आरक्षण किसी आन्दोलन से नहीं आया, ना ही इसमें गोलियां चलीं, ना आंसू गैसे के गोले छोड़े गए बल्कि यह ज्यादातर राजनीतिक दलों के समर्थन से आया है, जिसमें सपा, बसपा, कांग्रेस, टीआरएस, आरपीआई (अठावले), आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस नेशनल कान्फ्रेंस, जेडीयू, और सबसे ज्यादा इसे वीरोचित अध्याय बताते हुए लोजपा भी मजबूती से सरकार के पाले में आ खड़ी हुई.

इसका विरोध करने का साहस सिर्फ डीएमके, आरजेडी, एमआईएम और आईयूएमएल ने किया. उत्तर भारत में आरजेडी अकेली ऐसी पार्टी है जिसने सवर्ण आरक्षण की संवैधानिकता और नरेंद्र मोदी सरकार की मंशा पर सवाल उठाए. राजद मजबूती से जनमानस को यह संदेश देने में कामयाब रहा कि राजद सामाजिक न्याय और जाति आधारित आरक्षण के पक्ष में खड़ा है. और इस सवर्ण आरक्षण का विरोध करता है.

वैसे इस बिल के घोषणा के कुछ मिनटों के बाद ही जेडीयू नेता अनिल साहनी ने सोशल मीडिया पर अपनी पोस्ट लिखी ‘मोदी जी से अपील, सवर्णों को मिले हर क्षेत्र में 15 प्रतिशत आरक्षण लेकिन शेष 85 प्रतिशत अति पिछड़ा वर्ग, पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति/जनजाति एवं अल्पसंख्यक वर्ग को मिले आरक्षण जनसंख्या के अनुपात मे! यदि संविधान में संशोधन हो रहा है तो उपरोक्त वर्गों को जन संख्या के अनुपात में करें.’

वैसे राजद के सामाजिक न्याय के मुद्दे पर ऐसे तेवर से एक बार फिर उसका विश्वास सामाजिक न्याय के वोटरों के खेमे में बन जायेगा. पूर्व में राजद की चाहे जितनी प्रशासनिक अक्षमता रही हो, उसकी आलोचना की जा सकती है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राजद ने ओबीसी, एससी, एसटी का मन भांप लिया है. राजद की ये पोजिशन किसी इमोशन का परिणाम नहीं है. उसमें सामाजिक न्याय और लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता है और उसकी नजर चुनाव में वोटों की गणित पर भी है.

राजद के कर्णधार तेजस्वी को मालूम है कि जिस तरह इस मुद्दे पर बिहार के तमाम राजनीतिक दल जैसे, लोजपा, जेडीयू, हम, कांग्रेस, बीजेपी आदि सवर्ण आरक्षण को सपोर्ट कर रहे हैं, उससे लगभग चार साल से नौकरी के इन्तजार में बैठे पिछड़े और वंचित समाज के छात्र और नौकरी के लिए प्रतीक्षारत उम्मीदवार आहत हैं. इस घोषणा ने उनके जले पर नमक छिड़कने का काम किया है. तेजस्वी ने इस समूह के जख्मों पर मरहम लगाने का काम किया है.

राजद के तेजस्वी युवा नेता हैं और उन्हें लगता है कि लोजपा, जेडीयू, हम और कांग्रेस सभी सवर्ण वोटों की और देख रहे हैं तो क्यों नहीं उसे बचे हुए सत्तर प्रतिशत वोटों की और देखना चाहिए. इसी वजह से उन्होंने समाजवादी परम्परा अनुरूप अपना रास्ता चुन लिया. राजद को अभी ये तात्कालिक मुद्दा उसी तरह हाथ लगा है जैसे कि 2015 के विधान सभा चुनाव में संघ प्रमुख मोहन भगवत के आरक्षण की समीक्षा वाले बयान से लगा था.

राजद के हाथ में अभी सृजन, स्वच्छता अभियान, जन-नल योजना में अनियमितता जैसे कई मुद्दे हैं लेकिन सामाजिक न्याय का ये मुद्दा अभी उसे सबसे ज्यादा प्रासंगिक लग रहा है और वह एक बार फिर से सवर्ण आलोचनाओं के तीर खाने को तैयार है.

लालू प्रसाद को मालूम है कि सवर्ण मतदाताओं पर दांव लगाने से बेहतर है 70-75 फीसद सामाजिक न्याय वाले समूहों पर दृष्टि गड़ाए रहना, क्योंकि महागठबंधन बनने के बाद उपेन्द्र कुशवाहा के कारण कोइरी, हम के कारण मुसहर, मुकेश सहनी के कारण मल्लाह और इसकी उपजातियां, यादव और मुस्लिम के साथ जुड़ गयी हैं. वैसे भी राजद को इधर शहीद का दर्जा मिला है क्योंकि महागठबंधन से अलग होने के बाद लोगों के उम्मीद के विपरीत नीतीश और राजग शासन-प्रशासन के मामले में विफल ही रहे हैं, हत्या, डकैती,लुट-पाट और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध रोजाना के रूटीन में शामिल हो चुके हैं.


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राजनीति और वोट बैंक से इतर राजद सामाजिक न्याय पर सदैव मुखर रही है लेकिन राजद और लालू प्रसाद की चेतना सदैव ही समाज के सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व देने की रही है. राजद में रघुवंश प्रसाद सिंह, शिवानन्द तिवारी, जगदानंद सिंह, प्रेमचंद गुप्ता, मनोज झा जैसे सवर्ण प्रतिनिधि भी हैं, जिन्हें पार्टी पूरी तवज्जो देती है.

कुछ तथाकथित सामाजिक श्रेष्ठता वाले समूह सोशल मीडिया पर यह प्रचारित कर रहे हैं कि राजद सवर्णों के प्रति घृणा फैला रही है लेकिन उन्हें राजद में सवर्ण जमात की जो प्रतिष्ठा प्रतिनिधित्व के मामले में मिली हुई है वो शायद नहीं दिखती. लालू प्रसाद संतुलन साधना जानते हैं. यहाँ भी राजद ने जहाँ मुद्दे को प्रतिरोध के स्वर के साथ लपका है तो यह उनके लिए एक बड़ा मौका भी है जिससे चुनावी वैतरणी पार लगने के साथ-साथ पिछड़े सामाजिक समूहों में विश्वास बहाली के तौर पर भी देखा परखा जायेगा.

(लेखक पत्रकार और मीडिया प्रशिक्षक हैं.)

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