तमिलनाडु की इन दिनों देश में ही नहीं प्रदेश में भी खासी चर्चा हो रही है. राष्ट्रीय स्तर पर इसलिए कि प्रदेश के नेता चंद्रपुरम पोन्नुस्वामी राधाकृष्णन देश के उप-राष्ट्रपति चुने गए हैं और प्रदेश के स्तर पर इसलिए कि अगले साल अप्रैल में वहां विधानसभा चुनाव होने वाले हैं.
चुनाव के लिए चंद महीने ही रह गए हैं, लेकिन प्रदेश में विपक्ष या सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में कोई स्पष्ट, मजबूत लहर उठती नहीं दिख रही है. इसने विधानसभा चुनाव के लिए स्थिति को पेचीदा बना दिया है और मौजूदा दलों, उनके गठजोड़ों और उनके कभी खत्म न होने वाली संक्षिप्त जमातों को डरा दिया है.
इसने इस मुकाबले में अभिनेता विजय जोसफ के भी शामिल होने को खासतौर से महत्वपूर्ण बना दिया है. पारंपरिक राजनीतिक गठबंधन थके-थके दिख रहे हैं. विजय नई राजनीति लाने का वादा कर सकते हैं. ‘ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम’ (एआईडीएमके) और प्रदेश की दूसरी छोटी पार्टियों को अभी ताकतवर गठबंधन बनाना बाकी है. वे आपस में ही लड़ने में व्यस्त हैं और उनके नेताओं के बीच रोज अहं की टक्कर चल रही है. एआईडीएमके के साथ गठजोड़ करके भाजपा ने अपने लिए जगह तो बना ली है, लेकिन उन्हें ज्यादा ताकतवर मोर्च बनाने की ज़रूरत है. मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के बेटे उदयनिधि का दर्ज़ा बढ़ाए जाने के बाद सत्ताधारी दल डीएमके को भी आंतरिक झगड़े से निबटना पद रहा है. जनता और मीडिया महंगाई, ज़मीन-जायदाद रजिस्ट्रेशन पर शुल्क और बिजली तथा बसों के भाड़े में वृद्धि, ड्रग्स के प्रकोप, शराब घोटाला, रेत माफिया, और ग्रामीण इलाकों में किडनी घोटाले जैसे विवादास्पद मसलों को लेकर गुस्से में है.
मुख्यमंत्री स्टालिन विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए अपने कार्यकाल के अंतिम वर्ष में विदेश भी गए, जो इस बात का साफ संकेत है कि निवेश को लेकर खोखला प्रचार ही किया गया. विपक्ष के नेता एडाप्पादी पलानीस्वामी ने एक लंबा बयान जारी करके सरकार से निवेशों पर श्वेतपत्र की मांग की.
आर्थिक, वित्तीय, औद्योगिक, और कृषि भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं. ईपीएस के एक ताज़ा ट्वीट के मुताबिक, राज्य के पास नकदी का कोई भंडार नहीं है और वह बाहरी उधार और बैंकों से ओवरड्राफ्ट पर निर्भर है. नीति निर्धारन के उच्च स्तरों पर घूस और कमीशनखोरी के चलते प्रत्यक्ष विदेशी निवेश न्यूनतम स्तर पर है. इस मामले में विपक्षी नेताओं के पिछले बयान काबिलेगौर हैं.
राज्य में संशयवादी, स्थापित तथा मजबूत दलों और सियासतबाजी के कारण भारी उदासीनता का भाव हावी है.
राहुल गांधी का असर
साफ है कि कोई लहर न होने के बावजूद तमिलनाडु की राजनीति में एक उथलपुथल चल रही है. हाल के समय में राज्य की जनता ने भाजपा के के. अन्नामल्लाई के उत्कर्ष और पतन के अलावा सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया के उत्कर्ष को देखा, लेकिन अब तमिल वेत्री कषगम के नेता के बतौर अभिनेता विजय के रूप में एक नए खिलाड़ी को उभरे हैं. इन सबके साथ-साथ सीधे विभाजन भी सामने आ रहे हैं.
पट्टाली मक्कल कच्ची पार्टी में हम बाप-बेटे के बीच सीधा विभाजन देख रहे हैं. विजयकांत की देशीय मुरपोक्कू मुन्नेत्र, सेंथामिझन सीमन की नाम तमीझार कात्ची, टीटीवी दिनाकरण की अन्ना मुन्नेत्र कषगम जैसी तमिल राष्ट्रवादी दलों की ताकत घट रही है. इसके अलावा, ये सभी गुट अभी तक किसी बड़े राजनीतिक गठबंधन से नहीं जुड़े हैं.
सभी दल गुटबंदी, आंतरिक झगड़े, दलबदल और निष्कासन से ग्रस्त हैं. ये सब तमिल टीवी समाचार चैनलों के लिए अच्छा मसाला बनते हैं.
इसके अलावा राहुल गांधी का असर है. कांग्रेस का अपना अच्छा-खासा वोट बैंक है, लेकिन राहुल ने तमिलनाडु में न तो अपने ब्रांड को चमकाने की कोशिश की है और न युवाओं को आकर्षित करने की. इसकी जगह लगता है कि उन्होंने सिर्फ अपने सहयोगी दल डीएमके पर पूरी तरह निर्भर रहने का फैसला किया है. इस बार कांग्रेस को अपना मौजूदा वोट प्रतिशत कायम रखने में मुश्किल हो सकती है. कांग्रेस में पी. चिदंबरम जैसे कद्दावर नेता तो हैं, लेकिन डीएमके ने बड़ी चतुराई से कांग्रेस को अपने काबू में कर रखा है.
गुटबंदी चरम पर
अगले साल के शुरू में ही तमिलनाडू के छह लाख मतदाता 234 विधायकों को चुनेंगे. 12 लोकप्रिय दल चुनाव के मैदान में होंगे. नए दलों के गठन के साथ द्रविड़ विचारधारा का वर्चस्व कसौटी पर होगा. वैसे, यह सच है कि मतदाता अभी भी प्रायः जाति के आधार पर मतदान करते हैं और महिलाएं अभी भी दो मुख्य द्रविड़ दलों की ओर आकर्षित हैं. अल्पसंख्यकों के वोटों पर डीएमके की पकड़ कायम है. लेकिन अभिनेता विजय को उम्मीद है कि वे राज्य में बड़े आकार वाले और मुखर ईसाई मतदाताओं को रिझा लेंगे.
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि तमिलनाडु भी बदल रहा है. वह तीन आम चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीत, राष्ट्रवाद और नरम हिंदुत्ववाद के उभार से अछूता नहीं है. भाजपा ने तमिलनाडु को अपनी प्राथमिकता में शामिल कर लिया है. मोदी बार-बार वहां के दौरे करते रहे हैं. गृह मंत्री अमित शाह, जे.पी. नड्डा कच्चतिवु जैसे भावनात्मक मुद्दे को उछलते रहे हैं. मोदी प्राचीन चोल वंश के सेंगोल जैसे मजबूत प्रतीकों को अपनाते रहे हैं, लेकिन विपक्षी खेमे में हालात अच्छे नहीं हैं. शाह ने एआईडीएमके के साथ गठबंधन पर मुहर लगाई और इसके चंद महीने बाद ही आंतरिक समस्याएं सिर उठाने लगीं. एआईडीएमके में गुटबंदी और बगावत चरम पर पहुंच गया. अब सवाल यह है कि मूल पार्टी के सभी घटक क्या फिर से एकजुट हो पाएंगे? क्या ईपीएस सख्त रुख अपनाएंगे? आखिर वे पार्टी के महासचिव बन गए हैं और उन्होंने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ के पार्टी के दो पट्टी वाले चुनाव चिह्न को वापस हासिल कर लिया है.
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री ओ. पन्नीरसेल्वम, जो नयी पार्टी ‘एआईडीएमके काडर राइट्स रिट्रीवल कमिटी’ के मुखिया हैं, एनडीए से बाहर निकल आए हैं.
तानाशाही की अति
हाल के दिनों में चुनाव अभियानों में नया रंग भर रहे हैं मुख्यमंत्री स्टालिन की पत्नी दुर्गा स्टालिन के कटआउट. चुनाव से ठीक पहले उन्हें क्यों मैदान में उतारा जा रहा है? वे जिस तरह मंदिरों की यात्रा कर रही हैं वह डीएमके की घोषित नीति से मेल नहीं खाती.
राज्यपाल आर.एन. रवि चेन्नई में राजभवन में कोलू उत्सव का आयोजन करके तमिलनाडु की सांस्कृतिक परंपरा को रेखांकित कर रहे हैं. राज्यपाल ने सोशल मीडिया पर घोषणा की कि “राज भवन 22 सितंबर से 1 अक्टूबर तक राजभवन में नवरात्रि कोलू उत्सव के आयोजन में शामिल होने का हार्दिक निमंत्रण दे रहा है. हम इस उत्सव में आपकी भागीदारी का हार्दिक स्वागत करेंगे”.
राजभवन में कोलू उत्सव के नए आयोजन ने हिंदुत्ववाद को नई ऊर्जा दी है. द्रविड़ नास्तिकों को इसका विरोध करने में मुश्किल हो रही है. आखिर दुर्गा स्टालिन भी अपने प्रार्थना कक्ष में निजी तौर पर कोलू उत्सव का आयोजन करती हैं. इसलिए सवाल यह है कि क्या राजभवन का कोलू उत्सव दुर्गा स्टेलिन को भी इसका सार्वजनिक आयोजन करने को प्रेरित करेगा और इस तरह वे अपने बेटे उदयनिधि के सनातन विरोध को काटने की कोशिश करेंगी?
एआईडीएमके के एक असंतुष्ट नेता और एमजीआर-जयललिता के पक्के भक्त के.ए. सेंगोत्तैयन ने ईपीएस को यह खुली चुनौती देकर सुर्खियां बटोरी कि वे सभी निष्कासित नेताओं को 10 दिनों के अंदर वापस बुलाएं. जवाब में ईपीएस ने सेंगोत्तैयन को सभी आधिकारिक पदों से हटाने में कोई देरी नहीं की. इसने एमजीआर-जयललिता के पक्के भक्तों को बड़ा झटका पहुंचाया. ओपीएस, एएमएमके के महासचिव टी.टी.वी. दिनाकरन समेत कई बड़े नेताओं ने सेंगोत्तैयन का समर्थन किया. दिवंगत मुख्यमंत्री जयललिता की सहायक वी.के. शशिकला ने पूर्व मंत्री को पार्टी के पदों से हटाने के लिए ईपीएस की निंदा की. दिनाकरन ने चेताया कि पार्टी के सभी नेताओं को एकजुट नहीं किया गया तो 2026 में एआईडीएमके का कबाड़ा हो जाएगा. ओपीएस ने सेंगोत्तैयन की बरखास्तगी को “तानाशाही की अति” बताया. उन्होंने कहा: “सेंगोत्तैयन पार्टी के वरिष्ठतम नेताओं में हैं. वे पार्टी को एकजुट करना चाहते हैं और चूंकि उन्होंने एकता का अपील की है इसलिए उन्हें इतनी सख्त सजा दी गई है.”
आप चाहे जिस नज़रिए से देखें, तमिलनाडु की राजनीति के भविष्य के बारे में कुछ कहना मुश्किल है, उसमें गंभीर दरार आ गई है.
मतदाता अगर एक स्थिर सरकार को नहीं चुनेंगे तो प्रगति थम जाएगी. श्रीलंका और मालदीव की सीमा से लगे इस सीमावर्ती राज्य को मिली-जुली सरकार नहीं चाहिए. यह भारत की सुरक्षा के लिए खतरा होगी.
लेखक का एक्स हैंडल @RAJAGOPALAN1951 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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