किसानों के आन्दोलन के मद्देनजर तीन नये कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगाने के उच्चतम न्यायालय के आदेश ने एक गलत परपंरा डाल दी है. हां, इतना जरूर लगता है कि अब इन कानूनों पर अमल ठंडे बस्ते में चला गया है और संभवत: प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे के कार्यकाल के दौरान इस पर कोई फैसला आने की उम्मीद नहीं है.
न्यायालय ने भले ही कोविड-19 महामारी और सर्दी में लोगों की जिंदगी सुरक्षित करने के मकसद से यह आदेश दिया है लेकिन अब किसी भी कोई भी प्रभावशाली समूह या वर्ग किसी केन्द्रीय कानून के विरोध में दिल्ली की घेराबंदी करके या सामान्य जनजीवन बाधित करके किसी भी कानून पर रोक लगवाने का प्रयास कर सकता है.
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मध्यस्थ या न्यायिक प्रशासक
न्यायालय ने किसानों की समस्याओं और शंकाओं पर विचार कर अपने सुझाव देने के लिये चार सदस्यीय समिति गठित कर दी है. समिति को अपनी पहली बैठक की तारीख से दो महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट न्यायालय को सौंपनी है. समिति की पहली बैठक आज से दस दिन के भीतर होगी.
इस तरह से न्यायालय अप्रत्यक्ष रूप से किसानों और सरकार के बीच चल रहे विवाद में मध्यस्थ या कहें कि न्यायिक प्रशासक की भूमिका में आ गया है.
न्यायालय ने वैसे तो पिछले साल 17 दिसंबर को ही संकेत दे दिया था कि इस विवाद का समाधान खोजने के लिये वह एक समिति गठित करने पर विचार कर रहा है. न्यायालय ने इस मामले में किसान संगठनों को नोटिस भी जारी किये थे. लेकिन किसानों के आन्दोलनकारी संगठनों ने इस समिति के समक्ष आने से ही इनकार कर दिया है.
हालांकि, न्यायालय ने अपने आदेश में कहा है कि फसलों के लिये नये कानून लागू होने से पहले प्रभावी न्यूनतम समर्थन मूल्य अगले आदेश तक जारी रहेंगे और नये कानूनों की वजह से किसी भी किसान को उसकी जमीन से बेदखल नहीं किया जायेगा और न ही इससे उन्हें उनकी जमीनों के मालिकाना हक से वंचित किया जायेगा.
सीएए और अनुच्छेद 370 पर आक्रोश के बाद कोर्ट लगाएगी रोक
सवाल है कि क्या नागरिकता संशोधन कानून लागू करने और संविधान के अनुच्छेद 370 के अधिकांश अंश खत्म करने जैसे फैसले के खिलाफ समाज के एक वर्ग के आक्रोष को देखते हुये न्यायालय इसके अमल पर भी रोक लगायेगा? अगर कल कुछ संगठनों ने मथुरा और काशी धार्मिक स्थलों का मुद्दा लेकर 1991 में बनाये गये उपासना स्थल (विशेष उपबंध) कानून के खिलाफ मोर्चेबंदी कर दी तो क्या उसके अमल पर भी रोक लगायी जायेगी?
राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद प्रकरण में शीर्ष अदालत का फैसला आने के करीब सात महीने बाद अचानक ही जून, 2020 में विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ नामक संगठन ने इस कानून की धारा 4 की संवैधानिक वैधता को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दे दी जहां यह मामला अभी लंबित है.
न्यायालय शायद ऐसा नहीं करेगा लेकिन निश्चित ही किसानों के एक वर्ग के आन्दोलन से उत्पन्न स्थिति के मद्देनजर तीन कृषि कानूनो के अमल पर रोक लगाकर न्यायालय ने एक ऐसी नजीर पेश की है जिसका अनेक संगठन लाभ उठाने का प्रयास करेंगे.
कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगाने के आदेश को न्यायपालिका की छवि सुधारने की कवायद के रूप में भी देखा जा रहा है क्योंकि हाल के समय में अनेक मामलों की सुनवाई को लेकर सोशल मीडिया और सामाजिक हलके में न्यायपालिका की कार्यशैली पर सवाल उठाये जा रहे थे.
वजह चाहें जो भी रही हो लेकिन फिलहाल तो ऐसा लगता है कि कृषि सुधारों से संबंधित केन्द्र सरकार के ये महत्वांकाक्षी कानून ठंडे बस्ते में चले गये हैं.
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कानून से मौलिक अधिकारों और संविधान के प्रावधानों का हनन नहीं
प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे के कार्यकाल में इन कानूनों पर अमल संभव नहीं लगता क्योंकि वह 23 अप्रैल को सेवानिवृत्त हो रहे हैं और उस समय तक शायद ही यह समिति अपना काम पूरा कर सके.
न्यायालय ने सोमवार को अटार्नी जनरल से जानना चाहा था कि क्या सरकार इन कानूनों पर अमल स्थगित करने के लिये तैयार है अन्यथा हम ऐसा कर देंगे. अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने इन दोनों ही बिन्दुओं का पुरजोर विरोध किया था.
इस पर पीठ की टिप्पणी थी कि हम ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आप समस्या हल करने में विफल रहे हैं. केन्द्र सरकार को इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी. इस कानून की वजह से हड़ताल हुयी है और अब आपको ही इसे हल करना होगा.
अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल का तर्क था कि अगर न्यायालय को पहली नजर में लगता है कि किसी कानून से मौलिक अधिकारों और संविधान के प्रावधानों का हनन हुआ है तो वह इसके अमल पर रोक लगा सकता है लेकिन कृषि कानूनों के मामले में ऐसा नहीं है.
इन कानूनों के अमल पर रोक लगाने के सुझाव का केन्द्र द्वारा विरोध किये जाने पर प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने मराठा समुदाय के लिये रोजगार और शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिये आरक्षा संबंधी महाराष्ट्र के 2018 के कानून पर रोक लगाने के न्यायालय के आदेश का जिक्र किया.
शीर्ष अदालत का यह कहना काफी हद तक उचित लगता है कि कड़ाके की सर्दी और कोविड-19 महामारी के दौरान इतनी बड़ी संख्या में बुजुर्गो, महिलाओं और बच्चों के हितों को ध्यान में रखा गया है और उसका प्रयास किसानों और सरकार के बीच गतिरोध समाप्त करना है.
ठंड, कोविड, बुजुर्ग और महिला
न्यायालय ने किसानों, विशेषकर बुजुर्गो, महिलाओं और बच्चों से घर लौटने का आग्रह किया है लेकिन इस आदेश के बावजूद अगर वे वापस नहीं लौटे तो क्या विकल्प बचेगा?
इस मामले की सुनवाई के दौरान जहां सोमवार को आन्दोलनरत किसानों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे, कॉलिन गोन्साल्विज और एच एस फूलका और अधिकवक्ता प्रशांत भूषण मौजूद थे लेकिन मंगलवार को कार्यवाही के दौरान इन सभी की अनुपस्थिति चर्चा का विषय बनी रही और उसने कई सवालों को भी जन्म दिया. कुछ अधिवक्ताओं ने इस ओर न्यायालय का ध्यान आकर्षित भी किया था.
किसान आन्दोलन में ‘खालिस्तानी’ तत्वों की पैठ और गणतंत्र दिवस के आयेाजन में व्यवधान पैदा करने के लिये किसानों द्वारा ट्रैक्टर रैली के आयोजित करने की योजना के बारे में सरकार और दिल्ली पुलिस न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया लेकिन उसने इस पर फिलहान कोई आदेश नहीं दिया.
इन कानूनों के अमल पर रोक को उचित ठहराते हुये न्यायालय ने कहा था इससे समस्या का समाधान खोजने में मदद मिलेगी. न्यायालय को यह भी उम्मीद थी कि यह आदेश आन्दोलनरत किसानों को अपने अपने घर लौटने के लिये प्रेरित करेगा. लेकिन मंगलवार के न्यायिक आदेश के बाद आन्दोलनकारी किसानों के नेताओं ने समिति की कार्यवाही में हिस्सा लेने से इंकार करके सारी स्थिति को पहले से ज्यादा पेचीदा बना दिया है.
इस न्यायिक आदेश और इस पर आन्दोलनकारी किसान संगठनों के नेताओं की प्रतिक्रिया के बाद इतना निश्चित है कि यह विवाद आसानी से सुलझने वाला नहीं है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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