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Saturday, 2 November, 2024
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भारत में एससी-एसटी के बीच उपश्रेणियां बनाने की जरूरत, सुप्रीम कोर्ट ने राह की एक बाधा दूर की

एक सवाल ये कि उपश्रेणियों को बनाने का आधार क्या हो? अगर कोई ठोस कसौटी तय नहीं होती तो फिर बात मनमाने की हो सकती है, कोई चाहे जिस जाति समूह को कोटे की किसी भी उपश्रेणी में मनमाने तरीके से रख दे.

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जिस तरह का वक्त आन पड़ा है उसमें शायद ही किसी को उम्मीद हो कि मुझ जैसा शख्स सुप्रीम कोर्ट के एक ऐसे फैसले का स्वागत करेगा जिसे जस्टिस अरुण मिश्रा की बेंच ने सुनाया है. वैसे तो जस्टिस मिश्रा ने रिटायरमेंट से पहले बहुत से विवादास्पद फैसले सुनाये, उनके कई फैसलों पर सवालिया निशान लगाये जा सकते हैं लेकिन उनका सुनाया हाल का एक फैसला बेहतर और सकारात्मक संभावनाओं वाला कहा जायेगा.

मौजूदा आरक्षण नीति को बेहतर बनाने के एतबार से ये फैसला महत्वपूर्ण है क्योंकि इस फैसले से आरक्षण नीति की राह में अभी खड़ी एक बड़ी बाधा दूर की जा सकती है. लेकिन अभी से फैसले के स्वागत में ताली बजाना ठीक नहीं. अभी अदालत में दूसरे दौर की भी सुनवाई होनी है, विधायिका के मोर्चे पर इसमें कुछ बड़े जतन भरे काम करने बाकी हैं और नीति बनाते वक्त साक्ष्यों को ध्यान में रखना पर्याप्त जरूरी होगा. इसके बाद ही आरक्षण नीति के बाबत सुनाये गये जस्टिस अरुण मिश्रा की बेंच के फैसले में निहित सकारात्मक संभावनाओं को साकार किया जा सकेगा. और, जो ऐसा नहीं होता तो फिर यों समझिए कि सियासी खींचतान के खेल का परवान चढ़ना तय है.

फैसला अनुसूचित जाति (एससी) एवं अनुसूचित जनजाति (एसटी) के आरक्षण कोटे के भीतर उपश्रेणियां बनाने के बारे में है. एससी और एसटी समुदाय के लिए नौकरियों तथा शिक्षा के क्षेत्र में कोटा निर्धारित करते वक्त जितना कुछ सोचा गया था या इनसे उम्मीद लगायी गई थी, वो सारी संभावनाएं अभी साकार नहीं हो पायी हैं. हां, ये जरूर कहा जायेगा कि एससी-एसटी के लिए आरक्षण की व्यवस्था भारतीय राजसत्ता के उन चंद कदमों में एक है जिसने उपलब्धियों के मोर्चे पर कुछ ठोस हासिल कर दिखाया है. दुनिया में ऐतिहासिक रूप से जो समुदाय वंचित हैं उनके लिए राजकीय स्तर पर सकारात्मक कदम उठाने की बात जब भी उठेगी भारत में प्रचलित आरक्षण-व्यवस्था को कामयाबी के एक चमकीले दास्तान के रूप में दर्ज किया जायेगा.

लेकिन इसी से जुड़ी हुई एक बात ये भी है कि वक्त गुजरने के साथ कुछ गंभीर शिकायतें आयी हैं कि एससी-एसटी समुदाय के लिए जारी आरक्षण व्यवस्था का फायदा इन समुदायों के भीतर सभी समूहों को समान रूप से नहीं हो पा रहा है. आये दिन सुनने को मिलता है कि कोई एक जाति या समुदाय आरक्षण व्यवस्था के तमाम फायदे अपनी मुट्ठी में करते जा रहा है. लेकिन ऐसा तो होना ही था.

अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति जैसे नाम से जिस समुदाय का बोध होता है वह अपने आकार में बहुत बड़ा है. इसमें विभिन्न परंपरागत पेशों से जुड़े अलग-अलग सामाजिक हैसियत के कई सामाजिक समूहों को एक साथ कर दिया गया है जबकि इन समूहों के बीच वंचना के स्तर पर पर्याप्त विभिन्नता है. अगर ऐतिहासिक रूप से ये सभी समूह इस स्थिति में होते कि शिक्षा के अवसरों का समान लाभ ले पाते तो फिर आरक्षण व्यवस्था का उन्हें समान रूप से फायदा मिल सकता था लेकिन ऐसी स्थिति नहीं है.


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एससी-एसटी के बीच असमानताएं

उत्तर भारत में जाटव (चमड़े के कामकाज से जुड़ी जाति), पश्चिमी भारत में महार, दक्षिण भारत में माला और पूर्वी भारत में नामशूद्र जैसी जातियां हैं जो आधुनिक शिक्षा व्यवस्था के दायरे में बहुत पहले प्रवेश कर गईं और इस नाते इन जाति समूहों को आरक्षण प्रणाली से हासिल अवसरों का इस्तेमाल करने में भी सुभीता हुआ. अब जरा इस स्थिति की तुलना उत्तर भारत के वाल्मिकी समुदाय (परंपरागत रूप से साफ-सफाई के काम से जुड़ी जाति) के लोगों से कीजिए या फिर यूपी अथवा बिहार के उन लोगों की दशा के बारे में सोचिए जो मुसहर तथा डोम जाति समुदाय से हैं. या फिर तमिलनाडु के अरुणधतियार जाति के लोगों की दशा के बारे में विचार कीजिए. शिक्षा के अवसरों को हासिल करने के लिहाज से इन जाति समुदाय के लोगों की पहुंच अब भी बहुत सीमित है जबकि आरक्षण व्यवस्था के फायदे हासिल करने के लिए शिक्षित होना पहली जरूरत है.

साल 2011 यानि अभी तक की नवीनतम जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक देश में साक्षरता दर 74 फीसद की है लेकिन बिहार में डोम जाति के लोगों के बीच साक्षरता दर 16 प्रतिशत और मुसहर जाति के लोगों के बीच साक्षरता दर महज 9 प्रतिशत की है. सूबे (बिहार) में मुसहर जाति के लोगों की तादाद 20 लाख से ज्यादा है लेकिन इनमें मात्र 2000 व्यक्ति ही ऐसे हैं जिन्होंने स्नातक स्तर की पढ़ाई की है. प्रतिशत पैमाने पर ये तादाद लगभग 0.1 फीसद की ठहरती है. ऐसा ही अंतर अनुसूचित जनजाति वर्ग में भी देखने को मिलता है. उत्तरवर्ती पहाड़ी राज्यों ( हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड) तथा पूर्वोत्तर के राज्यों (मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, नागालैंड) में आदिवासी समुदाय के सदस्य शेष भारत के आदिवासी समुदायों से कहीं बेहतर स्थिति में हैं.

राज्य सरकारों ने समय-समय पर जो समिति और आयोग बनाये उन सबने ध्यान दिलाया कि सरकारी सेवाओं में इन समुदायों के सदस्यों की मौजूदगी के बीच बड़ी असमानता है. मिसाल के लिए तमिलनाडु में अरुणधतियार समुदाय के सदस्यों की संख्या अनुसूचित जाति संवर्ग की 16 प्रतिशत है लेकिन सरकारी सेवाओं में इस समुदाय के सदस्यों की मौजूदगी महज 0.5 प्रतिशत है. बहुत सी समितियों ने सुझाव दिया कि कोटे को कई उपश्रेणियों में बांट दिया जाए और कोटे की एक उप-श्रेणी सर्वाधिक वंचित समूह के लिए रखी जाये. लेकिन ऐसे सुझाव का तीखा विरोध हुआ, ठीक वैसे ही जैसे कि आरक्षण के विचार का विरोध देखने को मिलता है. जो समुदाय कम वंचित हैं उन्होंने नौकरशाही और राजनीति के पदों पर अपना कब्जा जमा लिया और इस स्थिति में आ गये कि वंचित समुदाय का कोई और इन पदों पर पहुंचने की कोशिश करे तो वे ऐसे प्रयासों के राह में अडंगा लगा सकें.

परंपरागत दलित वोट बैंक वाले दल जैसे कि कांग्रेस और बीएसपी इस मसले से आंख मोड़े रहे जबकि बीजेपी ने मसले को इस आशा में आगे बढ़ाया कि दलित समुदाय के भीतर जो कम अधिकार-सम्पन्न जातियां हैं, वो उसके पाले में आ जायेंगी. ऐसी जटिलताओं के बावजूद पंजाब, हरियाणा, बिहार, आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु ने दलित समुदाय को हासिल कोटे के भीतर उप-श्रेणी बनाने के विचार को एक हद तक कामयाबी के साथ लागू किया.


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कानूनी अड़चन

ऐसी कोई भी कोशिश की जाती है तो कानून की अड़चन सामने आ जाती है. कई उच्च न्यायालयों ने फैसला दिया कि एससी-एसटी समुदाय के भीतर उपश्रेणी बनाने का विचार असंवैधानिक है. यहां एक दिलचस्प बात ये है कि सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग (बोलचाल की जुबान में इसे ओबीसी कहा जाता है) के बीच उपश्रेणी बनाने के विचार को देश के कई राज्यों में कुछ यों मान लिया गया जैसे वही मानक हो और इस विचार को सुप्रीम कोर्ट ने मशहूर इंदिरा साहनी मामले में मंजूरी दे दी. ये बात एससी-एसटी के मामले में नहीं हुई. मसला आखिर को ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश के मामले (2004) के जरिये सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. एक पांच सदस्यीय खंडपीठ ने मामले में बड़ा तकनीकी रुख अपनाया और फैसला दिया कि कोई राज्य अगर उपश्रेणी बनाता है तो माना जायेगा कि उसने कानून में बदलाव कर दिया है जबकि ऐसा अधिकार सिर्फ संसद को है. अदालत ने फैसला दिया कि अनुसूचित जाति संवर्ग में दर्ज तमाम जातियों को एकसार माना जाये.

ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश मामले में जो फैसला आया था, तमाम साक्ष्य उसके उलट थे और फैसला सहज-बुद्धि के विपरीत आया था. राज्य की सरकारों ने एससी और एसटी समुदाय के सर्वाधिक वंचित तबके को सरकारी नौकरी में तरजीह देने के जो प्रयास किये थे, उन्हें फैसले से धक्का पहुंचा. शुक्र कहिए कि तत्कालीन चीफ जस्टिस लोढ़ा की अगुवाई में एक खंडपीठ ने देविंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य के मुकदमे में इस कठिनाई को पहचाना और कहा कि चिन्नैया मामले में जो फैसला सुनाया गया था उसकी संवैधानिक पीठ के जरिए समीक्षा की जाये.

जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुवाई में पांच जजों की एक खंडपीठ ने आखिरकार चिन्नैया मामले में आये फैसले को सर्वसहमति से उलट दिया है. ये तो नहीं कहा जा सकता कि जस्टिस अरुण मिश्रा वाली खंडपीठ ने भरपूर कानूनी बारीकी का ध्यान रखते हुए अपना फैसला सुनाया है क्योंकि फैसले में संविधान के 342वें अनुच्छेद के संशोधन (2018) के एक विवादात्मक पाठ का इस्तेमाल किया गया है. खैर, इतना जरूर है कि जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली खंडपीठ ने एक सहज-सामान्य बात स्वीकार कर ली है. बात ये है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति संवर्ग में आने वाले समुदायों की दशा एक जैसी नहीं है, उनमें बहुत अंतर है. फैसले में स्वीकार किया गया है कि वंचना की दशा के बीच अंतर को देखते हुए उन्हें एकसार एक ही संवर्ग में रखना बड़ी नाइंसाफी है और राज्य सरकारों को इस बात की छूट होनी चाहिए कि वो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति संवर्ग में कोटे के भीतर कोटा निर्धारित कर सकें.

लेकिन बात यहीं नहीं रुकी.


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अब आगे क्या

एक तकनीकी अड़चन ये थी कि सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय खंडपीठ ऐसे किसी फैसले को नहीं उलट सकती जिसे सुप्रीम कोर्ट के ही पांच सदस्यीय खंडपीठ ने सुनाया हो. इसलिए, जस्टिस अरुण मिश्रा की खंडपीठ ने तय किया कि मसले की सुनवाई सात जजों की एक संवैधानिक पीठ करे! सहज ही मेरे मन में सवाल उठ रहा है कि- आखिर मामला पांच सदस्यीय खंडपीठ को सुनवाई के लिए दिया ही क्यों गया? लेकिन अदालत की अपनी ही निराली रीत-नीत होती है, उसे सहज-बुद्धि से कौन समझ सकता है भला. मुझे बस इतना भर पता है कि सुप्रीम कोर्ट को नौ साल सिर्फ ये कहने में लग गये कि चिन्नैया मामले में जो फैसला आया है उसपर पुनर्विचार की जरूरत है और फिर अगले छह साल ये कहने में लगे कि चिन्नैया मामले में सुनाया गया फैसला गलत था और अब हमें कुछ साल और इंतजार करना होगा जब अदालत की तरफ से कहा जायेगा कि चिन्नैया मामले में सुनाये गये फैसले को पलट दिया गया है.

आखिर में एक सवाल ये कि उपश्रेणियों को बनाने का आधार क्या हो? अगर कोई ठोस कसौटी तय नहीं होती तो फिर बात मनमाने की हो सकती है, कोई चाहे जिस जाति समूह को कोटे की किसी भी उपश्रेणी में मनमाने तरीके से रख दे.

मैंने ये बात सीएसडीएस के अपने सहकर्मी संजीर आलम से पूछा था. वे सामाजिक सूचकांकों से संबंधित एनएसएस और जनगणना के आंकड़ों पर काम कर रहे थे. उन्होंने ब्यौरेवार बताया कि किस राज्य में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति संवर्ग के कौन से समुदाय सर्वाधिक वंचना की दशा में हैं.

इसके लिए उन्होंने दो ठोस कसौटियों का इस्तेमाल किया था- एक तो अनुसूचित जाति के भीतर ऐसे समुदायों को लक्ष्य करना जो सामाजिक रूप से अत्यंत लांछित करार दिये परंपरागत पेशों से जोड़े जाते हैं (या फिर मामला अनुसूचित जनजाति का हो तो ऐसे समुदायों को लक्ष्य किया जा सकता है जिन्हें विशेष रूप से कमजोर माना गया है) और दूसरा ये देखना कि किसी राज्य की जो औसत साक्षरता दर है उसकी तुलना में अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति संवर्ग का कौन समुदाय सर्वाधिक पीछे है.

नौकरी में कोटा तय करने के लिए इन दो कसौटियों में मैं अपनी तरफ से एक कसौटी और जोड़ना चाहता हूं. ये भी देखा जाये कि अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जनजाति संवर्ग में कौन समुदाय राज्य में अपनी आबादी की तुलना में सरकारी नौकरियों में सबसे कम संख्या में है. उम्मीद की जानी चाहिए कि सात जजों की पीठ जब मामले पर विचार के लिए बैठेगी तो वो 2005 के फैसले को पलटते हुए उपश्रेणी बनाने के लिए ठोस आधार सुझायेगी और मसले पर उलझी बहस अपने जायज मुकाम तक पहुंच सकेगी.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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