scorecardresearch
Monday, 7 October, 2024
होममत-विमतएक ही दिन कफील खान, शर्जील उस्मानी और देवांगना कलीता की रिहाई किसी पैटर्न का हिस्सा नहीं बल्कि एक अपवाद है

एक ही दिन कफील खान, शर्जील उस्मानी और देवांगना कलीता की रिहाई किसी पैटर्न का हिस्सा नहीं बल्कि एक अपवाद है

अभी जो कुछ हो रहा है वह एक मायने में 1984 के दंगे से भी बदतर है. पुलिस दोषियों के लिए सिर्फ ढाल बनकर नहीं खड़ी बल्कि नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोधियों के पीछे जी-जान से लगी हुई है.

Text Size:

‘ए हैट्रिक फ्रॉम द कोर्ट’ यानि कोर्ट ने हैट्रिक लगायी. मंगलवार को मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ ने अपने ट्वीट में यही लिखा था. नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) का विरोध कर रहे कार्यकर्ताओं के लिए मंगलवार का दिन खुशखबरी लेकर आया था, उन्हें इस दिन एक पर एक तीन अच्छी खबरें सुनने को मिलीं और तीस्ता सीतलवाड़ ने अपना ट्वीट इसी बात को लक्ष्य करके लिखा था.

पहली खबर ये आयी कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने डॉ. कफील खान की रिहाई के आदेश दिये हैं. डॉक्टर कफील खान को कुख्यात राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) के तहत गिरफ्तार किया गया था. कोर्ट ने खान की गिरफ्तारी को गैर-कानूनी करार देते हुए उन्हें तत्काल रिहा करने के आदेश दिये. इसके बाद एक खबर ये आयी कि दिल्ली हाई कोर्ट ने पिंजड़ा तोड़ ग्रुप की कार्यकर्ता देवांगना कलीता को रिहा करने का फैसला सुनाया.

दिल्ली में हुए दंगों के संदर्भ में देवांगना पर कई मुकदमे लगे हुए हैं और इन्हीं में से एक मामले में कोर्ट ने उन्हें रिहा करने का आदेश दिया. और, तीसरी खबर ये थी कि अलीगढ़ के सेशन कोर्ट ने नागरिकता संशोधन अधिनियम विरोधी आंदोलन में भागीदार रहे अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के छात्र शर्जील उस्मानी को जमानत पर रिहा करने का फैसला सुनाया.

शर्जील उस्मानी को दंगा करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. आपको लग रहा होगा कि अगर सीएए-विरोधी तीन कार्यकर्ताओं को अदालत ने एक ही दिन रिहा करने का फैसला सुनाया है तो इसके पीछे जरूर ही कोई ना कोई राज की बात होगी.

लेकिन ऐसा सोचना सच से कोसों दूर जाना कहलाएगा. रिहाई की कथा में अगर आज डॉ. कफील खान, देवांगना कलीता और शर्जील उस्मानी के नाम हमारी आंखों के आगे किसी जुगनू की तरह चमक रहे हैं तो इसलिए कि इन तीनों के इर्द-गिर्द अंधेरा बहुत ही घना है. सच ये है कि देश भर में सीएए के विरोध में हुए प्रदर्शनों के साथ कुछ यों बरताव किया गया मानो कोई अपराध किया जा रहा हो. प्रदर्शनकारियों पर नकेल कसने की जी-तोड़ कोशिशें हुईं और ऐसी कोशिशों का निशाना मुस्लिम प्रदर्शनकारियों को खास तौर से बनाया गया. इन कोशिशों को अंजाम देने के लिए कानून के राज को एकदम ठेंगा दिखा दिया गया. ऐसा करने से ना सिर्फ लोकतांत्रिक प्रतिरोध की संस्कृति को दूरगामी नुकसान पहुंच सकता है बल्कि पीड़ितों के मन-मानस पर ऐसे गहरे जख्म लग सकते हैं कि घावों का भर पाना बहुत कठिन हो जाएगा.


यह भी पढ़ें: माफी क्या है? प्रशांत भूषण के अवमानना मामले से इस शब्द का सही अर्थ पता चलता है


भाषण मैंने भी सुना था

प्रदर्शनकारियों के साथ अपराधी की तरह बर्ताव करने के इस चलन का मैं चश्मदीद रहा हूं. पिछले साल 12 दिसंबर को मैं और डॉ. कफील खान साथ ही में दिल्ली से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय गए थे. वहां के छात्रों ने हम लोगों को नागरिकता संशोधन विधेयक (तब विधेयक अधिनियम का रूप नहीं ले पाया था, राज्य सभा को उसी दिन विधेयक पर बहस करके उसे पारित करना था) पर अपने विचार रखने के लिए बुलाया था.

विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार के अंदर बिल्कुल नज़दीक की जगह पर सभा बैठी तो उसका जोश-ओ-दम देखते बनता था. मुझे ये बात याद रह गई है कि मैं अभी अपने भाषण के अधबीच ही था कि छात्राओं का एक समूह अचानक से सभा के बीच आ जमा. इन छात्राओं ने बैठक में आने के लिए अपने छात्रावास का ताला सचमुच तोड़ डाला था!

मुझे याद है, डॉ. कफील खान ने उस दिन जो तकरीर की थी उसमें भाषणबाजी के वैसे लटके-झटके ना थे जो अमूमन ऐसे अवसरों पर देखने को मिलते हैं. डॉ. कफील खान के तकरीर की तासीर कुछ ऐसी थी कि वो सुनने बैठे लोगों के दिल को छू रही थी. वो बारंबार राष्ट्रवाद और हिन्दू-मुस्लिम एकता की अपील कर रहे थे और मैं अचरज में पड़ा सोच रहा था कि आखिर किसी मुस्लिम वक्ता को हर बार अपना राष्ट्रवाद और सेक्युलरिज्म क्यों साबित करना पड़ता है. लेकिन, उस दिन डॉ. कफील खान का भाषण बड़ा कारगर साबित हुआ, वे सुनने बैठे लोगों को ये बताने में कामयाब रहे कि प्रस्तावित नागरिकता संशोधन विधेयक में क्या गड़बड़ी है.

उस रोज याद रह जाने वाली एक अहम बात ये भी हुई कि शाम के वक्त हमलोग एक मकामी ढाबे पर भोजन कर रहे थे कि तभी मेरे सामने एक जहीन और नपे-तुले शब्दों में बात कर रही लड़की जिन्ना के मसले पर एक लड़के से खूब तीखी बहस में उलझ गई. दोनों अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के ही छात्र थे. मुझे बाद में पता चला कि जिन्ना के मसले पर बहस में उलझने वाले लड़के का नाम शर्जील उस्मानी है.

इस वाकये के चंद रोज होंगे कि मुझे पता चला कि उत्तर प्रदेश की पुलिस ने समुदायों के बीच दुश्मनी पैदा करने और हिंसा भड़काने के आरोप में डॉ. कफील खान के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है. जल्दी ही, उत्तर प्रदेश की पुलिस ने कफील को मुंबई में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार भी कर लिया. और, सोचिए कि गिरफ्तारी हुई भी तो किस भाषण के लिए! वही भाषण जिसको सुनकर मुझे लगा था कि इसमें राष्ट्रवाद और हिन्दू-मुस्लिम एकता की इतनी दफे दुहाई क्यों दी जा रही है! बीते सात महीने के दौरान डॉ. कफील के परिवार के दिन निश्चित ही बड़े सांसत में कटे होंगे, मामले की सुनवाई कई बार रुकी और चली और आखिर को हाई कोर्ट ने बिल्कुल वही कहा जो दिन के उजाले की तरह साफ था कि डॉ. कफील खान के भाषण में- कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत उन्हें लगातार जेल में बंद रखना गैर-कानूनी है.


यह भी पढ़ें: नए तरीके के राष्ट्रवाद पर आधारित होनी चाहिए आज़ादी की नई लड़ाई, सेक्युलरिज्म की मौजूदा भाषा से लोग दूर हो रहे


एक संदेश

उत्तर प्रदेश में जो कुछ चल रहा है उसे देखते हुए यही कहा जायएगा कि डॉ. कफील खान खुशकिस्मत हैं जो फैसला उनके पक्ष में आया है. नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ खड़े एक अन्य कद्दावर कार्यकर्ता सरवन राम दारापुरी यूपी पुलिस में आईजी के पद पर रह चुके हैं. उन्हें धमकी मिल रही थी कि सीएए के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों से सार्वजनिक संपत्ति का जो नुकसान हो रहा है उसकी भरपाई करने के लिए उनके घर-संपदा को निलाम कर दिया जाएगा.

अब यहां बात सिर्फ मानवतावादी दृष्टिकोण से सोचने भर की नहीं है. असल चिंता कहीं ज्यादा बड़ी है- क्या डॉ. कफील खान और दारापुरी को जो कुछ झेलना पड़ा है वह सब झेलने के बाद हमारे भीतर कानून के राज के प्रति कोई विश्वास कायम रह पायेगा?

अब ज़रा अपनी नज़र असम की तरफ दौड़ाइए, ये देखिए कि असम में भ्रष्टाचार-विरोधी मुहीम के अग्रणी पांत के करिश्माई नेता अखिल गोगोई के साथ क्या हो रहा है. मैं उन्हें लगभग एक दशक से जानता हूं लेकिन आजतक ये तय नहीं कर पाया कि विचारधारा के एतबार से उन्हें किस खांचे में फिट करूं. आप उनसे राष्ट्रीय नागरिकता पंजी की बात करें तो वे कुछ ऐसे स्वर में जवाब देंगे कि आपको लगेगा, जरूर ही ये आदमी असमी राष्ट्रवादी है. लेकिन आप जब उनसे राज्य आर्थिकी (पॉलिटिकल इकोनॉमी) पर बात करेंगे तो वे आपसे बिल्कुल किसी मार्क्सवादी की तरह बातें करते मिलेंगे.

लेकिन, इसी दरम्यान आपको ये भी पता चल जाएगा कि इस आदमी के खूब भीतर, कहीं गहरे में एक गांधी-भाव है कि ये आदमी प्रकृति-परिवेश और उससे जुड़ी मनुष्य की नियति के बारे में भी हरचंद सोचता-महसूस करता है. अखिल गोगोई के संगठन का नाम है कृषक मुक्ति संग्राम संगठन और ये संगठन नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ चल रहे आंदोलन मोर्चे पर 2019 के चुनावों से पहले भी अगली कतार में था.

नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर असम में जैसे ही विरोध की लहर उमड़ी अखिल गोगोई और उनके तीन साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया. उनपर यूएपीए जैसे सख्त कानून के तहत आरोप लगाये गए. लेकिन यूएपीए जैसे सख्त कानून के अंतर्गत गिरफ्तार करने के एवज में तर्क क्या दिया गया? यही कि 10 साल पहले उन्होंने एक ऐसी बैठक में शिरकत किया था जिसमें एक माओवादी नेता भी मौजूद था! उनसे मिलने के लिए जब मैं गुवाहाटी जेल में गया तो उन्होंने मुझसे कहा, ‘ये लोग मुझे 2021 के असम विधानसभा के चुनावों से पहले जेल से बाहर नहीं आने देंगे’. गिरफ्तारी को अब नौ महीने हो गये हैं लेकिन अखिल गोगोई और उनके साथी अब भी संघर्ष में लगे हैं कि जमानत की याचिका खारिज किये जाने के खिलाफ किसी तरह हाई कोर्ट में अपील दायर करें. आप खुद से ही पूछिए- अखिल गोगोई का हश्र जानने के बाद आप ऐसे किसी व्यक्ति को क्या सलाह देंगे जो शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन की योजना बना रहा हो?

लोकतांत्रिक विरोध-प्रदर्शन को अपराधी करतूत में तब्दील करने का असल रंगमंच तो खुद देश की राजधानी दिल्ली बनी हुई है. बीते जुलाई महीने में 72 गणमान्य नागरिकों ने जिनमें अधिकतर रिटायर्ड आईएएस थे, देश के राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखी कि उत्तर-पूर्वी दिल्ली में भड़की सांप्रदायिक हिंसा की जिस तर्ज पर तफ्तीश हुई है उसे लेकर एक जांच आयोग बैठाया जाए.

चिट्ठी में ध्यान दिलाया गया है कि तफ्तीश के छह माह गुजरने के बाद भी दिल्ली पुलिस अभी तक सत्ताधारी पार्टी के रहनुमा बनकर घूम रहे नेता अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा और कपिल मिश्रा से सवाल नहीं पूछ पायी है जबकि इन नेताओं ने दिल्ली में दंगे के तुरंत पहले खुलेआम भड़काऊ भाषण दिया था.

पुलिस ने दिल्ली हाई कोर्ट को जुलाई में बताया कि कपिल मिश्रा और भाजपा के अन्य नेताओं की दंगों को भड़काने में कोई भूमिका नहीं थी.

चिट्ठी लिखने वाले गणमान्य नागरिकों ने चिंता जतायी थी कि भरपूर रिपोर्टिंग, वीडियो के सबूत और दंगे में दिल्ली पुलिस के पक्षपाती रवैये के औपचारिक आरोप के बावजूद ना तो इस बाबत कोई कार्रवाई हुई है और ना ही जांच करवायी गई है.

ये सारी बातें हमें 1984 के दंगों की याद दिलाती हैं जिनके साक्ष्यों की लीपापोती की जा चुकी है. एक मामले में इस बार का दंगा 1984 के दंगे से भी बदतर है. इस बार दिल्ली पुलिस ने दोषियों के लिए सिर्फ ढाल की तरह ही काम नहीं किया बल्कि वह सीएए का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों के पीछे किसी साये की तरह लगी हुई थी. पुलिस बड़ी बेताबी से ऐसे साक्ष्य गढ़ने में जुटी थी जिससे साबित हो कि सीएए-विरोधी प्रदर्शन के पीछे कोई बड़ा षड्यंत्र है. ऐसे षड्यंत्र की बात जांच-पड़ताल के पहले ही गृह मंत्री सदन में कह चुके थे. अब आप ये तो नहीं कह सकते कि कोर्ट का रुख क्या रहेगा लेकिन आप ये जरूर भांप सकते हैं कि विरोध-प्रदर्शन के लिए हजारों की तादाद में निकले लोगों के मन में क्या भाव पैदा हुए होंगे और याद रहे कि प्रदर्शनकारियों में बहुतायत तो मुस्लिम महिलाएं थीं जो पहली बार किसी प्रदर्शन में भागीदारी के लिए निकली थीं, उनके होठों पर देशभक्ति के गीत थे, हाथ में तिरंगा था और वो भारत के संविधान की प्रस्तावना किसी मंत्र की तरह दोहरा रही थीं.


यह भी पढ़ें: अयोध्या का कार्यक्रम विशुद्ध राजनीतिक कर्मकांड है, सेक्युलरिज्म के रक्षक ही इसकी हार के जिम्मेदार


असल त्रासदी

असल त्रासदी यही है. मंगलवार के दिन अदालत ने जो हैट्रिक लगायी उसने हमारे देश को घेरने वाले दुर्भाग्य को सबके सामने ला दिया. ये तिहरा दुर्भाग्य है. एक दुर्भाग्य ये है कि जो ताकतवर हैं वो दंड के भय से मुक्त होकर छुट्टा घूम रहा है जबकि निर्दोष लोगों पर निशाना साधा जा रहा है और इस चक्कर में कानून के राज के नाम पर जो कुछ भी आधा-अधूरा बचा हुआ है, उसपर से लोगों का रहा-सहा विश्वास भी उठता जा रहा है. फौजदारी के मामलों से संबंधित पूरी न्याय प्रक्रिया पर सवालिया निशान लग रहे हैं. दूसरा दुर्भाग्य ये है कि शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन को आपराधिक कृत्य करार दिया जा रहा है. ये लोकतंत्र का गला घोंटने का ठोका-आजमाया तरीका है.

विरोध-प्रदर्शन किसी व्यवस्था के लिए सेफ्टी-वॉल्व का काम करता है और जब कोई विरोध को दबाने पर तुल जाता है तो आशंका पैदा होती है कि असहमति की आवाजें अपनी अभिव्यक्ति के लिए संविधान-प्रदत्त ढांचे के बाहर जाकर कहीं अवसर ना खोजने लग जायें. तीसरा दुर्भाग्य ये है कि आज के भारत में दुर्दशा झेल रहे मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर निशाना साधा जा रहा है और विरोध के स्वर को आपराधिक करार दिया जा रहा है जो राष्ट्र-निर्माण के नाजुक काम को ऐसी गहरी चोट पहुंचा सकता है कि उसकी भरपायी नहीं की जा सके.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: असम और बिहार में हर साल आने वाली बाढ़ पर ठोस कदम उठाना ही भारत के लिए सच्चा राष्ट्रवाद होगा


 

share & View comments

2 टिप्पणी

  1. Beshaq Beshaq,, Aur Bilkul Bemisaal Bebak Nikshpaksh Responsiblyty Ekdam Sach Ke Sath Aap Apna Kaam Kar Rahe Hume Aap Aur Aapki Responbel Team Par Dil Se Proud Feel Hota Bas Paristhhiti Chahe Koi Bhi Kaisi Bhi Ho Kisi Bhi Sattadhari Jaiso Se Desh Ke Izzat Samman Swabhiman Ka Sauda Na Kariyega Godi Media Jaise Bike Huye Patrkaro Ki Tarah Please Desh Ki Jagruk Janta Ki Ummid Banaye Rakhne Ke Liye Desh Ki Shanti Ekta BhaichaRa Banaye Rakhiyega Jaihind Jaibharat Pyare Bhai I Sailyut You STOP,, SUICIDE ACTION INDIA MISSION

Comments are closed.