scorecardresearch
Monday, 18 November, 2024
होममत-विमतक्या हनुमान चालीसा का पाठ करना राजद्रोह की श्रेणी में आएगा

क्या हनुमान चालीसा का पाठ करना राजद्रोह की श्रेणी में आएगा

अटॉर्नी जनरल ने ही राजद्रोह कानून से संबंधित धारा 124 ए की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करने पर राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तारी का उल्लेख किया.

Text Size:

स्वतंत्रता सेनानियों की आवाज दबाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बना राजद्रोह कानून लंबे समय से न्यायिक समीक्षा के दायरे में है क्योंकि इस कानून का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है. लेकिन कभी यह कल्पना नहीं की गई थी कि एक दिन सार्वजनिक रूप से हनुमान चालीसा का पाठ करने का संकल्प करने के कारण आजाद हिंदुस्तान में ही किसी सांसद और विधायक के खिलाफ राजद्रोह के अपराध के आरोप में मुकदमा दर्ज करके उन्हें जेल भेज दिया जायेगा.

मगर महाराष्ट्र पुलिस ने यह कारनामा कर दिखाया. यह तो अब न्यायिक समीक्षा के बाद ही पता चलेगा कि आखिर हनुमान चालीसा का पाठ करने का बयान राजद्रोह कैसे हो गया और जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों को इस प्रावधान के तहत गिरफ्तार करके जेल में डालना कितना न्यायोचित था.

महाराष्ट्र पुलिस के इस कारनामे के बाद भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए के दुरुपयोग को लेकर इसके खिलाफ आवाज ज्यादा मुखर हो गई और यह महसूस किया जाने लगा कि देश की सर्वोच्च अदालत को राजद्रोह से संबंधित प्रावधानों के इस्तेमाल के बारे में दिशा निर्देश बनाने चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने राजद्रोह के प्रावधान की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाले मामलों में अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल से सहयोग करने का अनुरोध किया था. इसी के अनुसार वेणुगोपाल ने धारा 124 ए के इस्तेमाल के बारे में व्यापक दिशा निर्देश बनाने का न्यायालय से अनुरोध किया.

अटॉर्नी जनरल ने ही राजद्रोह कानून से संबंधित धारा 124 ए की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करने पर राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तारी का उल्लेख किया. उन्होंने कहा कि न्यायालय को अपने दिशा निर्देश में स्पष्ट करना चाहिए कि इस कानून के तहत क्या स्वीकार्य है और क्या अस्वीकार्य है और राजद्रोह के दायरे में क्या आता है?

जहां तक इस कानून की वैधता का सवाल है तो अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने धारा 124 ए और इसे वैध ठहराने वाले सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के 1962 के फैसले का सुप्रीम कोर्ट में बचाव किया है.

पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 1962 में केदार नाथ सिंह & स्टेट ऑफ़ बिहार प्रकरण में सुनाये गये फैसले में धारा 124 ए को संवैधानिक ठहराया था. इस कानून के बढ़ते दुरुपयोग के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में कह चुकी है कि इस निर्णय पर पुनर्विचार करने का समय आ गया है क्योंकि सरकार की नीतियों से असहमति व्यक्त करने वालों के खिलाफ बड़ी संख्या में राजद्रोह के मामले दर्ज किये जा रहे हैं जो लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है.


यह भी पढ़े: समलैंगिक विवाह का मामला कानूनी दांव-पेंच में फंसा, हिन्दू विवाह कानून पंजीकरण के विचार का विरोध शुरू


क्या है धारा 124 ए

भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए में राजद्रोह की परिभाषा के अनुसार अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता या ऐसी सामग्री का समर्थन करता है जिससे असंतोष पैदा तो यह राजद्रोह है और यह दंडनीय अपराध है.

ऐसा लगता है कि केंद्र और राज्यों में सत्तासीन राजनीतिक दलों में राजद्रोह कानून का दुरुपयोग करने की होड़ लगी हुई है. महाराष्ट्र में सांसद नवनीत राणा और उनके विधायक पति के खिलाफ राजद्रोह का मामला एक उदाहरण है. इससे पहले, प्रतिष्ठित पत्रकार विनोद दुआ और प्रखर राजनेता सुब्रमण्यम स्वामी सहित अनेक लोग इस कानून के दुरुपयोग का शिकार हो चुके हैं.

विनोद दुआ प्रकरण में न्यायाधीशों ने स्पष्ट किया था कि 1962 के केदारनाथ सिंह प्रकरण में संविधान पीठ की व्यवस्था के अनुरूप प्रत्येक पत्रकार संरक्षण का हकदार होगा. इसके बाद, सुप्रीम कोर्ट में कानून की किताब में राजद्रोह के अपराध को लेकर कई याचिकाएं दायर की गई थीं.

इन्हीं में से एक मामले की सुनवाई के दौरान प्रधान न्यायाधीश एन वी रमण की अध्यक्षता वाली पीठ ने भी ब्रिटिश शासन काल के इस दंडात्मक कानून के दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त की थी. उनकी स्पष्ट राय थी कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के दौर में सत्तारूढ दल के लोग अपने विरोधियों को फंसाने के लिए इस कानूनी प्रावधान का सहारा ले सकते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त करते हुए कई बार कहा है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति के स्वर को राजद्रोह नहीं माना जा सकता. हमारे देश का संविधान प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की आजादी प्रदान करता है और इस पर अनावश्यक अंकुश नहीं लगाया जा सकता है.

न्यायपालिका की व्यवस्था के प्रति असहमति के स्वर को लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व मानती है. उसका स्पष्ट मत है कि इस असहमति को राष्ट्रविरोधी या लोकतंत्र विरोधी बताना लोकतंत्र पर ही हमला है क्योंकि विचारों को दबाने का मतलब देश की अंतरात्मा को दबाना है.

राजद्रोह के कानून के दुरुपयोग के बारे में न्यायपालिका की चिंताओं से सहमति व्यक्त करते हुए विधि आयोग भी कई अवसरों पर इस प्रावधान पर पुनर्विचार करने या रद्द का सुझाव दे चुका है. लेकिन सत्तारूढ़ दलों द्वारा अपने राजनीतिक विरोधियों को सबक सिखाने में मददगार इस कानून पर अभी तक पुनर्विचार नहीं हुआ है.

वैसे केंद्र सरकार ने संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान इस कानून के बारे में अपनी मंशा स्पष्ट कर दी थी. कानून मंत्री किरण रिजीजू ने लोकसभा को सूचित किया था कि गृह मंत्रालय के पास राजद्रोह के अपराध के आरोप से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए को निरस्त करने या उसमें संशोधन करने का प्रस्ताव विचाराधीन नहीं है.

इसी सत्र के दौरान केंद्र सरकार ने राज्यसभा को बताया था कि 2018 से 2020 के दौरान देश में राजद्रोह कानून के तहत विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने राजद्रोह के 236 मामले दर्ज किए थे. इनमें 199 व्यक्ति गिरफ्तार हुए थे और सात को ही दोषी ठहराया गया था.

इस समय देश की सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह से संबंधित धारा 124 ए की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली कम से कम सात जनहित याचिकाएं लंबित हैं. न्यायालय इन याचिकाओं पर केन्द्र सरकार को अपना रुख स्पष्ट करने का निर्देश दिया था. चूंकि केन्द्र ने अभी तक अपना रुख स्पष्ट नहीं किया है, इसलिए इन याचिकाओं पर 10 मई से सुनवाई होगी.

ये याचिका इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व मुख्य संपादक और भाजपा नेता अरुण शौरी, पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेमचा, कन्हैया लाल शुक्ला, ‘द शिलॉन्ग टाइम्स’ की संपादक पेट्रीसिया मुखिम और ‘कश्मीर टाइम्स’ की मालिक अनुराधा भसीन, एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, गैर सरकारी संगठन कॉमन कॉज और मानवाधिकार कार्यकर्ता मेजर-जनरल (अवकाशप्राप्त) एसजी वोम्बटकेरे आदि ने दायर कर रखी है. आंध्र प्रदेश के दो तेलुगू समाचार चैनलों- टीवी 5 और एबीएन आंध्र ज्योति के खिलाफ राजद्रोह के आरोप में दर्ज मामला भी न्यायालय में विचाराधीन है.

फिलहाल तो न्यायालय को यह निर्णय लेना है कि क्या उसे 1962 के पांच सदस्यीय संविधान पीठ के फैसले से जुड़े सवालों को विचार के लिए वृहद पीठ को सौंपना चाहिए या नहीं. हालांकि, अटॉर्नी जनरल वेणुगोपाल का कहना है कि 1962 का निर्णय सुविचारित है और इस मामले को वृहद पीठ को सौंपने की कोई आवश्यकता नहीं है.

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में कह चुकी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडिया के अधिकारों के संदर्भ में राजद्रोह कानून की व्याख्या की समीक्षा की आवश्यकता है.

न्यायालय ने पिछले साल मई में कथित राजद्रोह को लेकर दो तेलुगू समाचार चैनलों टीवी 5 और एबीएन आंध्र ज्योति के खिलाफ आंध्र प्रदेश पुलिस द्वारा दर्ज मामले में न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट की तीन सदस्यीय विशेष पीठ ने कहा था, ‘हमारा मानना है कि भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों – 124ए (राजद्रोह) और 153 (विभिन्न वर्गों के बीच कटुता को बढ़ावा देना) की व्याख्या की जरूरत है, खासकर प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुद्दे पर.’

सुप्रीम कोर्ट का लगातार यही मत रहा है कि बात बात पर राजद्रोह की संगीन धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज करने की प्रवृत्ति गलत है और इस पर रोक लगनी चाहिए.

अब देखना यह है कि राजद्रोह के आरोप से संबंधित कानूनी प्रावधान को असंवैधानिक घोषित करने के लिए दायर याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट क्या रुख अपनाती है? क्या वह अटार्नी जनरल के सुझाव के अनुरूप इस कानूनी प्रावधान का दुरुपयोग रोकने के लिए दिशा निर्देश प्रतिपादित करेगी या फिर सारे मामले को वृहद पीठ को सौंपेगी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


यह भी पढ़े: मुफ्त की बिजली, मुफ्त का पानी देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत महंगी पड़ेगी


share & View comments