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Friday, 1 November, 2024
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चीफ जस्टिस को देवता बनाने पर तुला सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग की नियुक्ति में ले ली भूमिका

संवैधानिक व्यवस्था ये है कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश तभी लागू होगा, जब या तो संसद संबंधित कानून पास करे या फिर अध्यादेश आए या फिर राष्ट्रपति आदेश जारी करें.

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मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के बारे में सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला कार्यपालिका यानी सरकार और विधायिका यानी संसद के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण है. हमारा मानना है कि इस फैसले के गंभीर नतीजे हो सकते हैं और ये भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद को हिला सकता है.

भारतीय संविधान और लोकतंत्र जिन बुनियादों पर खड़ा है, उसमें ये बात बहुत महत्वपूर्ण है कि शासन के विभिन्न अंगों के अधिकार स्पष्ट रूप से अलग हैं और उनके बीच संतुलन की व्यवस्था है. साथ ही ये बात भी महत्व की है कि सुप्रीम कोर्ट का काम कानून बनाना नहीं है, खासकर तब जबकि ऐसा कानून बनाना, संविधान के मुताबिक, जरूरी नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने आदेश दिया है कि जब तक संसद, चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के बारे में कानून नहीं बनाता, तब तक प्रधानमंत्री, लोकसभा में विरोधी दल या विपक्ष के सबसे बड़े दल के नेता और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की एक कमेटी राष्ट्रपति को सलाह देगी कि इन पदों पर किनको नियुक्त किया जाए.


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ये फैसला इन चार आधारों पर दिया गया है-

एक, संविधान में चुनाव आयोग की नियुक्तियों के बारे में कोई लिखित कानून नहीं है. दो, लोकतंत्र सही तरीके से काम करे, इसके लिए चुनाव आयोग को स्वतंत्र होना चाहिए. तीन, काफी लोगों को ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग कुछ दलों के पक्ष में झुका हुआ है और चार, संविधान के अनुच्छेद 142 के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट को पूर्ण न्याय (Complete Justice) करने का अधिकार है.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले का तर्क इस बात को बनाया है कि ‘चुनाव आयोग सही तरीके से काम नहीं कर पा रहा है और ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि चुनाव आयोग में नियुक्ति का सारा अधिकार कार्यपालिका यानी सरकार के पास है और इसका बुरा असर हो रहा है.’

इस फैसले से पहले तक की व्यवस्था ये थी कि संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले मंत्रिपरिषद की सलाह से मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करते थे. संविधान में इस बात का जिक्र नहीं है कि राष्ट्रपति को दिए जाने वाला परामर्श किस तरह का होगा, न ही संसद ने इस बारे में कोई कानून बनाया है. अभी तक ये काम संविधान के अनुच्छेद से ही चल रहा है.

अनुच्छेद 324 बताता है कि… ‘नियुक्ति राष्ट्रपति करेंगे और अगर संसद इस बारे में कोई (Any) कानून बनाता है तो ये काम उसके अंतर्गत होगा.’

ये महत्वपूर्ण है कि सरकार की शक्तियां और संसद की शक्तियां साथ मिलकर काम करती हैं, इसलिए मंत्रिपरिषद मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की जो प्रक्रिया अपनाता है, वह अपने आप में कानून है. चूंकि अनुच्छेद 324 में ये कहा गया है कि नियुक्ति की प्रक्रिया संसद के कानून बनाने की स्थिति में ही उस कानून से बंधी होगी. यानी जरूरी नहीं है कि संसद इस बारे में कानून बनाए ही. नियुक्ति के लिए संसद से पारित किसी कानून की अनिवार्यता संविधान से स्थापित नहीं की है.  

इस वजह से ये तर्क संविधान सम्मत नहीं है कि चूंकि संसद ने इस बारे में कोई कानून नहीं बनाया है इसलिए सुप्रीम कोर्ट कानून बनाने का आदेश दे और जब तक कानून नहीं बनता, तब तक के लिए कोई व्यवस्था लागू करने का आदेश दे. चुनाव आयोग में इन पदों पर नियुक्तियों के लिए कानून होना कोई शर्त नहीं है. आजादी के बाद से आज तक जितने मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त नियुक्त हुए हैं, वे संविधान के प्रावधानों के तहत ही नियुक्त हुए हैं, न कि संसद द्वारा पारित किए गए किसी कानून से.

सुप्रीम कोर्ट ने ये आदेश अनुच्छेद 142 के तहत मिले अधिकारों के तहत दिया है. इसके पीछे तर्क ये है कि चूंकि संसद का पास किया हुआ कोई कानून नहीं है, इसलिए कोर्ट आदेश दे रहा है, जो कानून बनने तक प्रभावी रहेगा. जबकि संवैधानिक व्यवस्था ये है कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश तभी लागू होगा, जब या तो संसद संबंधित कानून पास करे या फिर अध्यादेश आए या फिर राष्ट्रपति आदेश जारी करें. संविधान में शक्तियों के अलग अलग होने की व्यवस्था ऐसे ही काम करती है.  

अगर हम अनुच्छेद 142(1) को संविधान सभा की बहस के संदर्भ में देखें तो स्थिति ज्यादा स्पष्ट हो जाएगी.

ये अनुच्छेद इस प्रकार है –’142(1): उच्चतम न्यायालय अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकेगा या ऐसा आदेश कर सकेगा जो उसके समक्ष लंबित किसी वाद या विषय में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक हो और इस प्रकार पारित डिक्री या किया गया आदेश भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र ऐसी रीति सेजो संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाएऔर जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तकऐसी रीति से जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा विहित करेप्रवर्तनीय होगा.’

संविधान के मूल ड्राफ्ट में इस अनुच्छेद की संख्या 118(1) थी. मूल अनुच्छेद में ये हिस्सा बाद में जोड़ा गया – ‘तब तकऐसी रीति से जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा विहित करेप्रवर्तनीय होगा.’

जोड़ने का ये कार्य किसी संशोधन से नहीं हुआ है, बल्कि ड्राफ्टिंग कमेटी ने ही इसकी सिफारिश की थी. इसका मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश संसद के कानून से ही लागू होगा. सुप्रीम कोर्ट ऐसा आदेश नहीं दे सकता है कि संसद कैसा कानून कब पारित करे.

ये प्रस्ताव दरअसल सुप्रीम कोर्ट की सीमा तय करता है और उसे बेलगाम होने से रोकता है. ये शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत के अनुकूल है. अगर ये न हो तो सुप्रीम कोर्ट भी संसद का रूप ले लेगा और कानून बनाने वाली संस्था बन जाएगा. चूंकि जज जनता द्वारा चुनकर नहीं आते, इसलिए ऐसा करना लोकतंत्र के मूल सिद्धांत के विपरीत हो जाएगा.    

इसलिए चुनाव आयोग में नियुक्तियों से संबंधित सुप्रीम कोर्ट का आदेश तभी लागू हो सकता है जब संसद कानून पास करे या राष्ट्रपति अध्यादेश जारी करें.

यह बात भी गौर करने वाली है कि इस आदेश के जरिए सुप्रीम कोर्ट ने चीफ जस्टिस को कार्यपालिका की शक्तियां दे दी हैं, जिसकी संविधान में व्यवस्था नहीं है. ऐसे भी किसी जज के आ जाने से कोई व्यवस्था सुधर जाएगी, ये मानने का कोई कारण नहीं है. जजों में तमाम मानवीय कमजोरियां हो सकती हैं. इस बारे में डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने संविधान सभा में कहा है कि उनमें भी वे तमाम भावनाएं और पक्षपाती विचार हो सकते हैं, जो किसी आम नागरिक में होते हैं.

सुप्रीम कोर्ट चीफ जस्टिस को देवता बनाकर देश के ऊपर थोप रहा है, जिसे राष्ट्र को खारिज कर देना चाहिए. ये बात भी देखनी चाहिए कि चुनाव आयोग की कमियों और खामियों पर चर्चाएं तमाम दल करते रहे हैं, लेकिन आज तक किसी सरकार ने या किसी सांसद ने चुनाव आयोग की नियुक्ति में जजों को शामिल करने या इसके लिए कोई और व्यवस्था करने संबंधी कोई विधेयक संसद में नहीं लाया.

आखिरी बात, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति की कॉलिजियम प्रणाली खुद गंभीर विवादों में है. जजों की नियुक्ति का अधिकार पहले राष्ट्रपति के पास था, जिसे 1993 में जजों ने खुद अपने हाथ में ले लिया. इस मामले में जज न तो सरकार की कोई भूमिका चाहते हैं और न ही संसद की. लेकिन उन्हें लगता है कि चुनाव आयोग की नियुक्ति कमेटी में आकर वे चुनाव आयोग को सुधार देंगे!

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व प्रबंध संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. दोनों के विचार व्यक्तिगत हैं.)


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