ये एक अनुभव की हुई समझ है कि किसी भी उग्रवाद के लिए बाहरी सहायता पहली ज़रूरत है. उत्तर-पूर्व के उग्रवाद को भी शुरू में चीन और पूर्वी पाकिस्तान से हथियार और गोला बारूद मिलते थे, और उग्रवादियों के कैंप्स और ठिकाने म्यांमार के जंगलों और पूर्वी पाकिस्तान के पहाड़ी इलाक़ों में थे, जो अब बांग्लादेश है. जम्मू-कश्मीर में ये बाहरी सहायता पाकिस्तान से आती है. रेड कॉरिडोर में वामपंथी उग्रवाद एक महत्वपूर्ण अपवाद है. ये मुख्य रूप से बाहरी और अंदरूनी, दोनों स्रोतों से हुई तस्करी पर निर्भर करता है और इसीलिए उग्रवाद का स्वभाव मूलभूत ही रहता है.
इसलिए, ये बात तर्कसंगत है कि उग्रवाद के खिलाफ किसी भी कार्रवाई की कामयाबी के लिए, बाहरी सहायता का न मिलना अनिवार्य हो जाता है. उत्तर पूर्व में ये सफलता कूटनीति, और म्यांमार की सेना के अनकहे सहयोग से, वहां की गई आवश्यक सैनिक कार्रवाइयों के मिश्रण से हासिल की गई. जम्मू-कश्मीर में हमारी रणनीतिक सीमाएं हमें इजाज़त नहीं देतीं, कि हम पाकिस्तान को कार्रवाई करने के लिए मजबूर कर सकें, इसलिए बाहरी मदद रोकने के लिए, मजबूरन हमें कूटनीति और रोकथाम के उपायों का सहारा लेना पड़ता है.
पिछले कुछ सालों में घुसपैठ
जम्मू-कश्मीर में 1988 से अब तक, 25,079 आतंकवादी मारे जा चुके हैं. इसका मतलब है कि कुछ मामूली अपवादों को छोड़कर, 25,079 आतंकवादियों को पाकिस्तान में ट्रेनिंग देकर, नियंत्रण रेखा के उस पार से घुसपैठ कराई गई. पिछले कुछ सालों में देसी आतंकवादियों (जम्मू-कश्मीर के निवासी) और पाकिस्तानी आतंकवादियों के बीच 50-50 प्रतिशत का अनुपात रहा है. इस तरह, 12,539 आतंकियों ने ट्रेनिंग लेने के लिए, एलओसी को पार किया होगा, और इसी तरह पाकिस्तानी आतंकियों ने भी किया होगा. विद्रोह को बनाए रखने के लिए कोरियर्स भी हर साल हथियार, गोला बारूद और उपकरण लेकर आते रहे होंगे.
इस समय घाटी में आतंकवादियों की अनुमानित संख्या 250 से 300 है, इसलिए तर्कसम्मत सवाल ये पैदा होता है कि सेना घुसपैठ को पूरी तरह रोककर, विद्रोह को ख़त्म क्यों नहीं कर देती? विशेषकर ऐसे में, जब हम नीति के तहत पाकिस्तान से कोई सम्पर्क नहीं रखते, सैनिक रूप से हमारे पास वो निर्णायक बढ़त नहीं है, कि हम पाकिस्तान को किसी कार्रवाई के लिए मजबूर कर सकें, और हमारी सियासी रणनीति वैचारिक निष्क्रियता का शिकार है. इलाके की शांति और विकास सुनिश्चित करने के लिए, हमारी एकमात्र रणनीति सैनिक रूप से विद्रोह से निपटना है.
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सामरिक दुविधा
भारत और पाकिस्तान की सेनाएं, चिनाब नदी से लेकर सियाचिन ग्लेशियर में एनजे 9842 (मैप कोऑर्डिनेट्स) तक फैली 740 किलोमीटर लम्बी सीमाओं पर, सामरिक रूप से प्रमुख जगहों पर, नियंत्रण रेखा की रक्षा करती हैं. कम्पनी या प्लाटून द्वारा स्थापित इन चौकियों के बीच, गहरी संकरी घाटियां या नाले होते हैं, जिनकी ऊंचाई में एक से दो हज़ार फीट तक का अंतर होता है. सीधे तौर पर इन चौकियों के बीच 2-3 किलोमीटर का फासला होता है, लेकिन ये फासला तय करने में 2 से 6 घंटे लग सकते हैं. घुसपैठ इन्हीं संकरी घाटियों व नालों के रास्ते होता है. चौकी की सुरक्षा, आराम, और बीच की जगह की सुरक्षा के बीच संतुलन बनाए रखने की वजह से, घुसपैठ के रास्तों की सुरक्षा वैसी नहीं हो पाती जैसी होनी चाहिए.
जम्मू-कश्मीर में 1987 के विधानसभा चुनावों के बाद, घाटी में कश्मीरी युवाओं की बहुत गतिविधियां देखी गईं, जो आतंकवाद की ट्रेनिंग के लिए एलओसी के पार जाते थे और बाद में प्रशिक्षित आतंकवादी बनकर वापस आते थे. हमारी सेना के ऊपर ये दाग हमेशा रहेगा, क्योंकि बड़े पैमाने की इन गतिविधियों का पता हमें उस वक़्त लगा, जब कश्मीर में विद्रोह फूट पड़ा. तत्काल उपाय किए गए और एलओसी को मज़बूत किया गया. एक अतिरिक्त डिवीज़न घाटी में भेजी गई. चौकियों के बीच की जगहों पर निगरानी और सुरक्षा में हाल के सालों में सुधार किया गया, लेकिन ये अभी भी काफी नहीं है.
एलओसी पर पाकिस्तान की ओर से जानबूझ कर की गई फायरिंग और मुक़ाबले में की गई दंडात्मक गोलीबारी से इन गैप्स की निगरानी और सुरक्षा प्रभावित होती है, और नतीजे में घुसपैठ करना आसान हो जाता है. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पाकिस्तान से संपर्क साधने की नीति, और नवम्बर 2003 के अलिखित सीज़फायर की वजह से हम जवाबी घुसपैठ पर ध्यान दे पाए. जवाबी घुसपैठ को मज़बूती देने के लिए, एलओसी से अलग-अलग दूरी पर 550 किलोमीटर लम्बी फेंस बनाई गई. ऑपरेशन पराक्रम के लिए सेना की जो टुकड़ियां गठित की गईं थीं, उन्हें रोक कर कुछ क्षेत्रों में फेंस पर तैनात कर दिया गया. ये सीज़फायर आमतौर पर 2010 तक बनाए रखा गया. इससे घुसपैठ में काफी कमी आई, और घाटी में विद्रोह की कमर टूट गई.
ज़ीरो घुसपैठ की चुनौती
ज़ीरो घुसपैठ एक सैद्धांतिक लक्ष्य है, लेकिन इसकी संख्या को घटाकर मामूली स्तर पर लाया जा सकता है. घुसपैठ करने वाले आतंकियों की संख्या का अनुमान लगाना मुश्किल है. पिछले 6 वर्षों में (2014-2019) में मारे गए आतंकियों की संख्या 1,723 है. फिलहाल घाटी में मौजूद सक्रिय आतंकियों की संख्या 250 से 300 के बीच है. ये वो कम से कम संख्या है, जिसे पाकिस्तान को बनाए रखना है, अगर उसे लोगों को आगे चलकर जीत का भरोसा दिलाना है.
इसलिए, ताज़ा घुसपैठ के ज़रिए हर साल, कम से कम 300 आतंकी इसमें जुड़ते रहने चाहिए. देश में ही प्रशिक्षित आतंकियों को ध्यान में रखते हुए, इस संख्या में थोड़ा बहुत बदलाव हो सकता है. मेरे आकलन के हिसाब से, अपनी दीर्घकालीन रणनीति के तहत हिंसा को बढ़ावा देने के लिए, पाकिस्तान सक्रिय आतंकियों की औसत संख्या को बढ़ाकर 500-600 तक कर सकता है. इसके नतीजे में घुसपैठ में भी उतना ही इज़ाफ़ा होगा.
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उपरोक्त विश्लेषण से ये भी पता चलता है कि अंदरूनी इलाक़ों में हमारी आतंकवाद विरोधी ग्रिड, सैनिक कम्पनियों के ठिकानों की ग्रिड पर निर्भर होती है, जो इलाक़े पर दबदबे, ख़ुफिया जानकारी और तुरंत जवाबी कार्रवाई को सुनिश्चित करती है. जीओसी 15 कोर्प्स के अनुसार, एक आतंकी का जीवन सालभर का होता है. इसलिए विद्रोह को जो चीज़ चालू रखती हैं, वो है पाकिस्तान की ओर से ताज़ा घुसपैठ, और हथियार, गोला बारूद और उपकरणों की भरपाई.
जबावी घुसपैठ को और कारगर बनाना
हमारा अनुभव ये रहा है कि घुसपैठ रोकने का सबसे कारगर उपाय है, रात में देखने वाले और अन्य निगरानी उपकरणों से लैस, छोटी-छोटी टीमों की तैनाती. मेरे आकलन के हिसाब से, घुसपैठ मार्गों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, हमें तकरीबन 60 अतिरिक्त कम्पनियों की ज़रूरत है.
चूंकि आतंकी हिंसा फिलहाल अपेक्षाकृत कम है, इसलिए अंदरूनी इलाक़ों में आतंकवाद विरोधी ग्रिड में बदलाव करके, ज़रूरी सुरक्षाकर्मी जुटाए जा सकते हैं. सीधा तर्क ये है कि जिस समय घाटी में, 1500 से 2000 आतंकी काम कर रहे थे, तब हमने राष्ट्रीय राइफल्स की 62 बटालियनों के साथ मौजूदा ग्रिड बनाई थी. आंतकवादियों की ये तादाद, अब उस संख्या का केवल 10-15 प्रतिशत है. इस ग्रिड को फिर से एडजस्ट करके हम आसानी से राष्ट्रीय राइफल्स की 62 बटालियन निकाल सकते हैं.
पिछले कुछ सालों में, अंदरूनी इलाक़ों में हिंसा बढ़ने के डर से, हम इस साहसिक क़दम से बचते रहे हैं. मनोवैज्ञानिक तौर पर भी हमने इस बात को स्वीकार कर लिया था, कि इलाक़ाई रुकावटों की वजह से घुसपैठ को रोका नहीं जा सकता.
हम इस सीधी सच्चाई से दूर भागते रहे, कि अगर घुसपैठ नहीं होगा तो अंदरूनी क्षेत्रों में आंतकवाद को जारी नहीं रखा जा सकता. अब समय है इस बारे में कड़े फैसले लेने का.
(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रिट.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. ये उनके निजी विचार हैं)
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