अफ़गानिस्तान अब अमेरिका की वापसी के नतीजे भुगत रहा है. तालिबान ने अपने कब्जे वाले इलाकों में आतंक फैला दिया है और बड़े पैमाने पर फौजी कार्रवाई शुरू कर दी है जिससे बड़े रिहाइशी इलाकों के लिए खतरा पैदा हो गया है. बड़े पैमाने पर विनाश सामने आ रहा है, और अफगान लोगों के प्रति न्यू यॉर्क में जबानी समर्थन उभर रहा है. बातचीत से अमन कायम करना ही सबसे अच्छा समाधान बताया जा रहा है. शैतान से समझौते की सिफ़ारिश की जा रही है.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 6 अगस्त 2021 की अपनी बैठक में अफगान लोगों की दर्द भरी आवाज़ें उनके प्रतिनिधियों के माध्यम से सुनी. संयुक्त राष्ट्र महासचिव के विशेष प्रतिनिधि और अफगानिस्तान में यूएन सहायता मिशन के प्रमुख देबोराह लियोन्स ने कहा है कि वह मुल्क खतरनाक मोड़ पर खड़ा है. ‘आगे का रास्ता या तो बातचीत से सच्चा अमन कायम करने का है, या कई तरह के संकटों के उलझाव में फंसने, बर्बर युद्ध और गंभीर मानवीय त्रासदी तथा मानवाधिकारों के बढ़ते उल्लंघनों को झेलने का है.’
अफगानिस्तान इंडिपेंडेंट ह्यूमन राइट्स कमीशन के अध्यक्ष शहरज़ाद अकबर ने कहा, ‘अत्याचारों का जो तूफान जारी है उससे कई जानें गई हैं, आतंक तथा अनिश्चितता फ़ेल गई है और अमन की उम्मीदें और धूमिल हो गई हैं.’ इसके सदस्यों ने तालिबानी हमले रोकने, शांति की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने और ऐसे राजनीतिक समझौते की बातचीत शुरू करने की वकालत की है जो अफगानों द्वारा आगे बढ़ाई जाए और जो उनकी अपनी हो. उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानूनों के उल्लंघन को रोकने की मांग की, और कुछ सदस्यों ने उम्मीद जाहिर की कि अगस्त में प्रस्तावित दोहा वार्ता में कुछ प्रगति होगी. विशेष अमेरिकी दूत जल्मे खलीलज़ाद ने कहा कि तालिबान ‘हुकूमत में बड़ी हिस्सेदारी’ मांग रहा है. जो फौजी कार्रवाई की जा रही है उसका मकसद यही है.
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अब क्या हाल है अफगानिस्तान का
अफगानिस्तान के बड़े हिस्से पर कब्जा करने में तालिबान की कामयाबी उसकी राजनीतिक कामयाबी की गारंटी नहीं दे सकती. फौजी कामयाबी को राजनीतिक कामयाबी में बदलना आसान नहीं है, जब तक कि चीन और पाकिस्तान उसके साथ नहीं आते और रूस यथार्थपरक राजनीति को स्वीकार नहीं करता. रूस और चीन का यह डर उन पर हावी हो सकता है कि धार्मिक उग्रवाद मध्य एशिया और शिनजियांग में भी पैर फैला सकता है. कुछ समय के लिए तालिबान ऐसे खतरे को दूर रखने का आश्वासन दे सकता है, लेकिन यह एक ऐसा जुआ है जो अंततः क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर परेशान कर सकता है.
पाकिस्तान पर अंकुश रखने की कई कुंजी है चीन के पास मगर उसने तालिबान से बातचीत का रास्ता ही चुना है. चीन इस गफलत में है कि तालिबान को अंकुश में रखने की पाकिस्तान की क्षमता चीन-पाकिस्तान कॉरीडोर (सीपीईसी) के लिए खतरे को कम करेगी, मध्य एशिया और फारस की खाड़ी में ईरान के जरिए पहुंच को आसान बनाएगी, साथ में पाकिस्तान को स्थिरता भी देगी. अगर चीन तालिबान को समर्थन देता है तो यह कूटनीतिक, वित्तीय और इन्फ्रास्ट्रक्चर से संबंधित हो सकता है. चीन वहां की जमीन पर अपने बूट रखने से परहेज करेगा और यह उम्मीद करेगा कि उसे परोक्ष समर्थन देने के लिए पाकिस्तान उसे अपनी चुस्त व्यवस्था उपलब्ध कराएगा.
यह माना जा सकता है कि अमेरिका की वापसी के बाद के दौर में गृहयुद्ध की पहली पुनरावृत्ति हो सकती है. तालिबान और उसके समर्थक सत्ता में हिस्सेदारी के बारे में अशरफ ग़नी की सरकार के साथ बातचीत करके समझौता करना चाहेंगे. काबुल पहुंच जाने के बाद किसी-न-किसी बहाने सत्ता हथियाना कहीं ज्यादा आसान हो जाएगा. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी.
जाहिर है कि हिंसा पर काबू करने और स्थिरता हासिल करने के नाम पर कोई समझौता करवाने की तालिबानी कोशिश उसके लिए काबुल में पैर रखने की कूटनीतिक गुंजाइश बनाएगी. ग़नी की सरकार बातचीत से मना करने की स्थिति में नहीं है, लेकिन सत्ता के बंटवारे पर कोई समझौता हो जाए तो यह एक आश्चर्य ही होगा. बातचीत की प्रक्रिया के कारण तालिबान को हमले करने की तैयारी करने का समय भी मिल जाएगा. लेकिन जनता के प्रति तालिबान के बरताव के बारे में आने वाली खबरों से तो यही संकेत मिलता है कि इसके साथ ही उसके प्रति दुश्मनी ही पैदा होगी और यह अंततः खेल बिगाड़ सकती है.
तालिबान अगर काबुल पर कब्जा भी कर ले, तो वह लोगों का पर्याप्त समर्थन नहीं जीत पाएगा. दूसरी पुनरावृत्ति यह हो सकती है कि जनता ही फैसले का केंद्र बनेगी, चाहे वे कितनी बदहाल क्यों न हों. यह क्षेत्रीय और प्रशासनिक नियंत्रण हासिल करने की तालिबान की ताकत को खत्म कर देगा, भले ही उसे पाकिस्तान और चीन का परोक्ष समर्थन क्यों न हासिल हो. यह भी मुमकिन कि किसी समय पश्तून और पंजाबी मुसलमानों के बीच की सदियों पुरानी दुश्मनी उभरकर सामने आ जाए, और तालिबान पाकिस्तान से भिड़ जाए. तब कभी न खत्म होने वाला गृहयुद्ध शुरू हो सकता है. और लोगों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है.
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सच बोलो
अंतरराष्ट्रीय समुदाय अभी भी यह उम्मीद लगाए बैठा है कि तालिबान कट्टरपंथ और मजहबी उग्रवाद को छोड़कर एक नया अध्याय शुरू कर सकता है. लेकिन तालिबान जिस तरह अल-क़ायदा के तत्वों से मेलजोल रखे हुए है उससे मजहबी उग्रवाद ही हावी होता दिखता है और यह गहरा होता जा रहा है. दोनों गुटों के नाम आतंकवादी गुटों की सुरक्षा परिषद की सूची में दर्ज हैं.
अफगानिस्तान की मौजूदा स्थिति को इसके इतिहास के यातनापूर्ण दौर के एक और अध्याय के रूप में ही देखा जा सकता है. वह मुकाम आ गया है जब अंतरराष्ट्रीय समुदाय को आगे बढ़कर अपना पक्ष साफ करना होगा ताकि तालिबान वापस जाए और अंततः उसका अंत हो. असली पेंच पाकिस्तान है, और उसकी भूमिका पर उंगली अफगानिस्तान के प्रतिनिधि गुलाम इसाकज़ई ने ही उठाई. यहां तक भारत ने भी ऐसा नहीं किया. जब तक अंतरराष्ट्रीय समुदाय पाकिस्तान से जवाबतलब नहीं करता, आम लोग मारे जाते रहेंगे और गृहयुद्ध जारी रहेगा. फिर भी स्थिर तालिबानी शासन मुमकिन नहीं हो पाएगा.
अंतरराष्ट्रीय समुदाय को आगे आना होगा और तालिबान तथा पाकिस्तान को ऐसी ताकतों के रूप में लेना होगा जिन पर लगाम कसना जरूरी है. यूएन चार्टर के अध्याय 7 के तहत संयुक्त राष्ट्र की सेना, जिसमें मुख्यतः वायु सेना और उसे सहायता देने वाला इलेक्ट्रोनिक खुफिया तंत्र शामिल हो, अफगानिस्तान की नेशनल सिक्यूरिटी फोर्सेस की मदद के लिए भेजी जाए. संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में सैन्य साजोसामान भी मुहैया कराए जाएं. इसके लिए सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव की जरूरत होगी ताकि यूएन चार्टर के अध्याय 7 को लागू किया जा सके, हालांकि मौजूदा वैश्विक और क्षेत्रीय तनावों के कारण यह बेहद कठिन है. सहयोग इसलिए मुमकिन लगता है क्योंकि अमेरिका और चीन इस बात को कबूल करते हैं कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान आतंकवादियों के अभयारण्य बन सकते हैं. पाकिस्तान की संदिग्ध भूमिका पर सुरक्षा परिषद को ध्यान देना चाहिए, और उस पर प्रतिबंध लागू करने चाहिए अगर वह आंतरिक मामलों में दखल देने के सिद्धान्त का उल्लंघन करता है.
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अब तो सुरक्षा परिषद आगे बढ़े
अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए सबसे जरूरी काम तो यह है कि वह तालिबान के स्वरूप को पहचाने. उसे एक आतंकवादी गुट के तौर पर ही लेना चाहिए और उसे कोई राजनीतिक तथा कूटनीतिक छूट नहीं देनी चाहिए ताकि उसे कोई मौका न मिले. बातचीत से राजनीतिक समझौता करने की वर्तमान कोशिशों को रोक देना चाहिए और इन्हें असफल प्रयास घोषित कर देना चाहिए. अमेरिका अपनी वापसी को पूरे अंजाम तक पहुंचाए, और इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र की अनुमति से वहां बहुराष्ट्रीय सेना भेजी जाए ताकि बगराम हवाई अड्डे जैसे अहम ठिकानों की सुरक्षा हो सके, जिसे अब तुर्की सुरक्षा देने की योजना बना रहा है. अफगान सरकार ऐसी पहल का समर्थन ही करेगी.
यह साफ हो जाना चाहिए कि अफगान संकट की, जिसमें तालिबान के अलावा भी कई तत्वों का हाथ है, जटिलताएं समस्याएं पैदा करेंगी.उदाहरण के लिए, स्थानीय लड़ाकों और खुली सरहदों का भी इलाज करना होगा. रणनीतिक लक्ष्य तालिबान को फौजी मोर्चे पर हराने का होना चाहिए, जो तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक मुख्यतः चीन पाकिस्तान पर दबाव नहीं डालता. भारतीय दृष्टिकोण के मुताबिक, अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा धार्मिक उग्रवाद को आधार प्रदान करेगा, जो ऐसी ताकतों से मेल करके सुरक्षा को खतरा पहुंचा सकता है और मध्य एशिया तक भारत की पहुंच को बंद कर देगा. कश्मीर में असंतोष को और भड़काया जा सकता है. अफगानिस्तान आतंकवादियों का अभयारण्य बन सकता है, ऐसी चिंता भारत के साथ अधिकतर देशों को है, सिवा पाकिस्तान के. भारत के हित में यही है कि ग़नी सरकार को हर संभव तरीके से अधिकतम समर्थन दिया जाए. भारतीय बूट वहां की जमीन पर न उतरें. असैनिक गतिविधियों को आगे बढ़ाने की नीति और कोशिश होनी चाहिए.
अफगानिस्तान भूगोल का कैदी है. वैश्विक तथा क्षेत्रीय भू-राजनीति की छाया उस पर हमेशा पड़ती रहेगी. तालिबान ने अपने पत्ते खोल दिए हैं, लेकिन अब उसने एक साझा दुश्मन के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय सहयोग का आधार जुटा दिया है. इस अवसर की अनदेखी की गई तो उन सबको खतरा पैदा होगा जिनके बड़े दांव इसमें लगे हुए हैं. समय महत्व रखता है, और हालात का तकाजा है कि सुरक्षा परिषद बातचीत से राजनीतिक समझौता कराने का रास्ता छोड़कर तालिबान से एक आतंकवादी गुट के तौर पर निबटने के लिए यूएन चार्टर के अध्याय 7 का इस्तेमाल करे. कुंजी अमेरिका और चीन के हाथों में है. इस तरह की कार्रवाई नहीं की गई तो सुरक्षा परिषद के हाथ बेकसूर अफगान नागरिकों के खून से रंगे रहेंगे.
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