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Thursday, 25 April, 2024
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अपने मन से भय हटाने के साथ अफगानिस्तान के बारे में पांच मिथक जिनसे भारत को उबरना होगा

'साम्राज्यों के कब्रिस्तान' से लेकर महान खेलों के रंगमंच तक, अफगानिस्तान के बारे में कई सदाबहार किस्से प्रचलित हैं.

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भारत और उसके विदेश नीति विशेषज्ञ, हिंदू कुश इलाक़े के परे घट रही घटनाओं को लेकर काफ़ी चिंतित से दिखते हैं. हालांकि ऐसा नही है कि ये घटनाएं बिना किसी चेतावनी घटित हो रही हैं, लेकिन चूंकि कल्पनाशीलता हमेशा से सोची समझी और दृढ़ नीतियों पर हावी होती रही है, इसलिए अफगानिस्तान से जुड़े पांच प्रमुख मिथकों का तोड़ा जाना महत्वपूर्ण है.

मिथक एक – अफगानिस्तान पर कभी कोई विदेशी आक्रमण नहीं किया गया

अफगानों, या यूं कहें तो पश्तूनों, ने हमेशा विदेशी आक्रमणकारियों को हराया है. अफगान लोगो की प्रतिरोध शक्ति के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा जा सकता है, और चूंकि लंदन और मॉस्को दोनों को अफगानों के हाथों मुंह की खानी पड़ी है इसलिए इस बात को बहुत महत्व दिया गया कि यह एक अजेय धरती है. लेकिन संभवतः अचमेनिद से शुरू कर के मौर्य, यूनानी, अरब, मंगोल और मुगल तक अफगानिस्तान ने कई बार आक्रमणकारियों और आक्रांताओं की भीड़ को देखा है. जैसा कि सभी आक्रांताओं के साथ होता है, इनमें से प्रत्येक ने इस देश की संस्कृति और मनोविज्ञान मे कुछ नया जोड़ा. उनका शासन दशकों से लेकर सदियों तक चला, तब तक जब तक कि उनका कोई और अधिक शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी सामने नहीं आ गया या फिर वे खुद बुरी तरह थक नही गये क्योंकि अफगानिस्तान अपने आप में काफ़ी थकाऊ साबित हो सकता है.

मिथक दो – अफगानिस्तान ‘साम्राज्यों की क़ब्रगाह’ है

चूंकि अफगानों ने साम्राज्यवादी यूरोप की महा शक्तियों को हराया था, इसलिए अफगानिस्तान पर ‘साम्राज्यों का क़ब्रगाह’ होने के रूप में एक काफ़ी लोकप्रिय एवम् भावनात्मक चस्पा लगा दिया गया है. हालांकि यह मिथक अफगानिस्तान पर लंबे समय तक चले भारतीय कब्जे के विवरणों, और अंत में इस देश के बंटवारे, से भी खंडित होता है.

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अफगानिस्तान के वर्तमान रूप में एकीकरण होने के दशकों पहले, मारवाड़ के महाराजा जसवंत सिंह ने लगभग एक दशक तक कंधार पर शासन किया और 1678 में जमरूद में उनकी मृत्यु हो गई (शर्मा, जी., 1973). उसके बाद मई 1834 में, अजेय सिख योद्धा हरि सिंह नलवा के नेतृत्व में पंजाब की सेना ने अफगानिस्तान पर जोरदार आक्रमण किया था और उसके कई क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया जो उसे फिर कभी वापस नहीं किए गये. अपने मूल स्वरूप में अफगानिस्तान सिंधु नदी तक फैला हुआ था, जिसमें पेशावर भी प्रमुख रूप से शामिल था. इसलिए, अगर हरि सिंह नलवा और महाराजा रणजीत सिंह की सैन्य शक्ति नहीं होती तो आज के दिन का पाकिस्तान बहुत छोटा होता.

मिथक तीन – अफगानिस्तान एक महान खेल (ग्रेट गेम) का रंगमंच था

19वीं सदी के लंदन और सेंट पीटर्सबर्ग में स्थित सभी जेंटलमेन क्लब अफ़ग़ानिस्तान में सभी प्रकार की जासूसी की गतिविधियों के बारे में प्रचलित अफवाहों, कहानियों और मिथकों से भरे रहते थे. वास्तव में इस तथाकथित ‘द ग्रेट गेम’ ने 19 वीं शताब्दी में भारत और अफगानिस्तान को वैसे हीं एकसाथ जोड़ दिया था जैसे कि करीब हज़ार साल पहले यह व्यापार, यात्रा और आक्रमण के माध्यम से जुड़ा था. दरअसल यह ‘मैच’ तो अफगानिस्तान में खेला जा रहा था लेकिन उसका ‘स्कोरबोर्ड’ भारत के लिए निर्धारित था. यह सारा ‘टूर्नामेंट’ भारत के बारे में था क्योंकि वही यूरोप के लिए सबसे बड़ा शाही इनाम था.

मिथक चार – मुजाहिदीन दिसंबर 1979 के सोवियत आक्रमण की प्रतिक्रिया का नतीजा था

19वीं सदी के असली खिलाड़ियों के जाने के बाद से यहां. चल रहे खेल के ‘खिलाड़ी’ तो निश्चित रूप से बदल गए हैं लेकिन मिथक अब भी बरकरार हैं. उनमें से एक अब इस खेल के मुख्य भागीदारों के बारे में है, जैसे कि तालिबान कोई विशुद्ध रूप से उत्पन्न मिशनरी हैं जो किसी पवित्र मिशन पर है. तालिबान सोवियत आक्रमण युग के दौरान सीआईए-आईएसआई द्वारा पैसे देकर पाले गये मुजाहिदीन की पैदाइश भी नहीं है. उनके असल उत्पत्ति के कारक तो वास्तव में 1973 में मरहूम जुल्फिकार अली भुट्टो की चालबाजी के पाकिस्तान विदेश कार्यालय में एक नए ‘अफगान सेल’ की स्थापना के साथ जुड़ी हुई हैं.

अफगानिस्तान में विद्रोहियों को हथियार देने की प्रक्रिया पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के एक वृहत पैन-इस्लामिक दृष्टिकोण की वजह से शुरू हुई थी ताकि काबुल को उसके ‘पश्तूनिस्तान’ वाले मोड’ और भारत के साथ उसकी नज़दीकियों के दूर किया जा सके. सीआईए द्वारा इसकी फंडिंग भी दिसंबर 1979 में सोवियत आक्रमण से छह महीने पहले हीं शुरू हुई थी.
अपने वर्तमान स्वरूप में तालिबान का जन्म 1994 में बेनजीर भुट्टो के शासनकाल के दौरान हुआ था. असल विडंबना तो यह है कि दोनों मामलों में उनको जन्म देने वाली दाई की भूमिका में मेजर जनरल नसरुल्ला बाबर (सेवानिवृत्त) थे.

मिथक पांच – अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्ज़े का असल विजेता पाकिस्तान है

हालांकि, मुजाहिदीन समूहों और तालिबान को जन्म देने के पीछे का दिमाग इस वक्त रावलपिंडी के जेनरल हेडक्वॉर्टर मे बैठ कर ‘वॉर गेम’ खेल रहे जनरलों का कतई नहीं था, फिर भी उनके द्वारा पैदा किए जा रहे अवसरों से उनकी बांछे ज़रूर खिल गयी होंगी. लेकिन पाकिस्तान तालिबान के इस पुनर्जन्म का दीर्घकालिक लाभ उठाने वाला नहीं हो सकता है.

हालांकि, तालिबान कोई एकरूप इकाई नहीं है और यह वक्त की ज़रूरत के अनुसार विभिन्न कबीलाई समूहों के सरदारों को अपनी ओर आकर्षित करता और अपने से दूर करता रहता है, फिर भी मूल रूप से यह एक पश्तूनों का समूह बना हुआ है. जिस तरह हम में से कई भारतीय अभी भी बंटवारे की पीड़ा और उसके पश्चाताप से पीड़ित हैं, उसी तरह पश्तून भी डूरंड रेखा पर खफा हैं जो अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच उनकी धरती को विभाजित करती है. यह खटकने वाला बिंदु हमेशा इस्लामाबाद के साथ उनके संबंधों में एक बाधा बना रहेगा, और संभवतः पाकिस्तान को एक दो-मोर्चे वाले युद्ध मे धकेल सकता है.


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भारत और अफगानिस्तान

दूसरी ओर, अफगानिस्तान के मामले में भारत ने बहुत लंबे समय तक बाहरी लोगों के कंधो पर सवारी की है. इसकी इसी बुजदिली के कारण इसने आफ्गानिस्तान के बारे में बातचीत करने वाले देशों के बीच अपना स्थान खो दिया है.

अफगानिस्तान के साथ 2011 के रणनीतिक साझेदारी वाले समझौते का अब कोई मतलब नहीं बचा है, बावजूद इसके कि तत्कालीन अफ़ग़ान राष्ट्रपति हामिद करजई ने तब एलान किया था कि, ‘अफगानिस्तान न केवल इसे कभी भी भूलेगा नहीं बल्कि वह हमेशा इसके लिए भारत का शुक्रगुज़ार रहेगा.‘ घरेलू राजनीति को बड़े राष्ट्रीय सुरक्षा हितों पर हावी होने देने और नागरिक संशोधन अधिनियम में अफगानिस्तान को अत्याचार करने वाले देशों के रूप में शामिल करने की साधारण सी भूल ने भारत द्वारा अफ़ग़ानिस्तान के साथ दशकों की सद्भावना और समझदारी भरे निवेश का खातमा कर दिया.

और अब ज़रा फ़िक्शन को पढ़ें

भले ही भारत के पास अपने भू-भाग से परे सामरिक अभियानों के लिए अपनी सेना तैनात करने के लिए ज़रूरी जिगरे की कमी है, फिर भी नई दिल्ली अफगानिस्तान में बखूबी अपना खेल खेल सकती है. आखिरकार, यह रुडयार्ड किपलिंग द्वारा ‘द ग्रेट गेम’ पर लिखे गये सबसे बड़े फिक्शन ‘किम’ का ‘मंचन स्थल’ है. अधिकांश भारतीय अभिकर्मियों ने उनकी इस उत्कृष्ट कृति को नहीं पढ़ा है, और जिन्होने इसे पढ़ा भी है वे लोग भी इसे अमल मे लाने में सक्षम नहीं हैं. यह बड़े अफ़सोस की बात है क्योंकि यह इस खेल (ग्रेट गेम) के बारे में सब कुछ सिखाता है. जैसा कि एक ‘पठान घोड़े बेचने वाला व्यावसायी’ महबूब अली इस उपन्यास के नायक किम से कहते हैं, ‘यह खेल इतना बड़ा है कि हमें एक बार में इसका थोड़ा ही अंश दिखता है.’ – विडंबना यह है कि उसने यह सब पाकिस्तान के क्वेटा में कहा था!

लेखक कांग्रेस पार्टी के नेता और डिफेन्स एंड सिक्यूरिटी अलर्ट के प्रधान संपादक हैं, वे @ManvendraJasol से ट्वीट करते हैं. प्रस्तुत विचार व्यक्तिगत हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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