कराची की फोर्ब्स, फोर्ब्स, कैंपबेल ऐंड कंपनी का साफ-सुथरे नीले अक्षरों में टाइप किया हुआ एक पत्र जो कश्मीर के महाराजा प्रताप सिंह की मेज तक पहुंचा था उसमें एक असंभव-से दुस्साहस का प्रस्ताव पेश किया गया था. भारत के इस सबसे पुराने कॉर्पोरेट समूह के महामहिम लोग व्यावहारिक थे जो अपनी कल्पनाशीलता के घोड़ों को बहुत ढील नहीं देते थे. उनकी कंपनी लायलपुर में कपास की खेती शुरू कर चुकी थी, सिंध से मीरपुर तक रेल पटरियां बिछा चुकी थी, मैंचेस्टर से पानी वाले जहाज चलाती थी और बॉम्बे की शाही सरकार की बैंकर भी थी, जो आगे चलकर भारतीय स्टेट बैंक बन गया. कपोल कल्पनाएं उनके बिजनेस का हिस्सा नहीं थीं.
इसके बावजूद, महाराजा की मेज तक पहुंचे उस पत्र में कपोल कल्पनाएं ही दर्ज थीं, जो लोहे और चट्टानों के मेल से एक असंभव को संभव बनाने का प्रस्ताव पेश कर रही थीं.
फोर्ब्स, फोर्ब्स, कैंपबेल ऐंड कंपनी के इंजीनियरों ने लक्कड़, लोहा, पशुओं, फलों, और सब्जियों को ढोने के लिए जम्मू से चेनानी होकर बानिहाल के हवादार दर्रे से होकर 150 किलोमीटर लंबा रोपवे बनाने का प्रस्ताव भेजा था. श्रीनगर से दक्षिण कश्मीर के दूरू के बीच की रेलवे लाइन से जुड़ी यह परियोजना कश्मीर के कृषि बाज़ारों को भारत के विशाल औद्योगिक केंद्रों को जोड़ती.
तमाम असंभव सपनों की तरह इस सपने को भी पिछले हफ्ते साकार कर दिया गया, जब कटरा से श्रीनगर की पहले ट्रेन 359 मीटर नीचे बहती नदी के ऊपर बने चिनाब पुल से गुज़री. यह इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की इंजीनियरिंग प्रोफेसर जी. माधवी लता के नेतृत्व में 17 साल की मेहनत की उपलब्धि है. चिनाब पुल के बाद यह ट्रेन नवनिर्मित बानिहाल सुरंग से गुज़री.
वैसे, फोर्ब्स, फोर्ब्स, कैंपबेल ऐंड कंपनी के औद्योगिक युग के इंजीनियरों ने कश्मीर के शासकों को जो भूगोल पढ़ाया था वह कोई निर्विवादित नहीं है. रेलमार्ग, सड़क, सुरंग, और नदी, इन सभी को टेक्नोलॉजी की मदद से इस तरह बदला जा सकता है कि वह लोगों और अर्थव्यवस्थाओं के बीच नया रिश्ता कायम कर सकें.
1921 के बाद से महाराजा प्रताप सिंह, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, उनके उत्तराधिकारी एच.डी. देवेगौड़ा, इंदर कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह, सबने भारत के साथ कश्मीर के भौगोलिक संबंध को बदलने में अपनी-अपनी भूमिका निभाई, जिसकी उपलब्धि का उदघाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया.
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सड़कों की सुध
लगभग पूरी 19वीं सदी में श्रीनगर से दिल्ली जाने का सबसे तेज़ मार्ग बानिहाल दर्रे के ऊपर से गुज़रने वाला गड्ढेदार छकड़ा गाड़ी वाला रास्ता रहा. महाराज प्रताप सिंह के सलाहकार, बोर्बेल के मार्की, मेजर जनरल राउल ने खट्टे मन से लिखा है कि “यह रास्ता जम्मू-कश्मीर के महामहिम महाराजा के लिए रिजर्व्ड था, उनकी इज़ाज़त के बिना दूसरा कोई इसका इस्तेमाल नहीं कर सकता था. मंजूरी का पत्र मिलने के बाद यात्री को जम्मू से इस्लामाबाद (अनंतनाग) तक जाने के लिए अपने तंबू और सामान को ले जाने की व्यवस्था खुद करनी होती थी वरना काफी मुश्किल का सामना करना पड़ सकता था, स्थानीय कुली उनका सामान सड़क के किनारे डालकर भाग जाते थे.”
बेशक, यह कोई हैरानी की बात नहीं होनी थी. मजदूर गुलाम थे जिन्हें साल में कुछ समय के लिए जबरन राजमहल की बेगारी करनी पड़ती थी.
19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में रेलवे की कई महत्वाकांक्षी परियोजनाएं पेश की गईं, लेकिन कोई आगे नहीं बढ़ी. 1898 में, एस.आर. स्कॉट स्ट्रेट्टन ऐंड कंपनी ने सर्वे करने और परियोजना को लागू करने का प्रस्ताव दिया. इंजीनियर डी.ए. एडम्स ने इलेक्ट्रिक इंजन का प्रस्ताव दिया, लेकिन इसे जिस ऊंचाई तक ले जाने का प्रस्ताव दिया उसके लिए इसे उपयुक्त नहीं माना गया1902 में, डब्लू.जे. वेटमैन ने झेलम नदी के साथ-साथ रेल लाइन बनाने का सुझाव दिया, लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध ने इन सभी अन्वेषणों पर विराम लगा दिया.
कश्मीर घाटी से जाने वाले अधिकतर यात्री और सामान कोहला से होकर पट्टन और बारामुला के रास्ते जाने वाली पक्की और कई पुलों वाली सड़क से उत्तरी पंजाब के झेलम शहर तक पहुंचते थे. इस सड़क का डिजाइन और निर्माण चार्ल्स स्पेड्डिंग और उनकी स्पेड्डिंग ऐंड कंपनी ने किया, जिसने श्रीनगर से रियासत के दूरदराज़ ठिकाने गिलगित तक पहाड़ों से होकर गुज़रने वाली सड़क बनाई थी.
अमेरिकी अन्वेषक एलस्वर्थ हंटिंग्टन ने 1906 में रिपोर्ट दी थी कि बारामुला-झेलम सड़क ही एकमात्र ऐसी सड़क थी जिस पर पहियों वाली गाड़ी चल सकती थी. उनकी शिकायत थी कि “सड़कें भयावह हैंऔर पहाड़ों के कारण बाहर जाना लगभग बंद है, बोझ ढोने वाले जानवर नगण्य हैं, पहियों वाले वाहन झेलम वाले मार्ग से ही जाते हैं. नावों से भी यात्रा की जाती है और सामान छोटी-छोटी दूरियों तक कुलियों की पीठ पर ढोए जाते हैं.”
ऐसा क्यों था? इतिहासकर परवेज़ अहमद ने लिखा है कि पहले की सदियों में कश्मीर के व्यापारिक रिश्ते मुख्यतः मध्य एशिया के समरकंद, काशगर, बुखारा, खुरसान और यारकंद जैसे बाज़ारों से जुड़े थे. 1586 में मुगल आक्रमण के बाद कश्मीरी व्यापारियों के रिश्ते पंजाब के मैदानी इलाकों और उनके आगे के बाज़ारों से जुड़े. 1753 से 1819 तक के संक्षिप्त अफगान शासन के दौरान यह व्यापार ठप हो गया, लेकिन 1819 में डोगरा राज के उत्कर्ष के बाद मैदानी इलाकों के साथ व्यापार और बढ़ा.
महाराजा ने भी बानिहाल वाले छ्कड़ा मार्ग को व्यापार की धुरी के रूप में विकसित करने का काम राज्य के पहले योग्यता प्राप्त इंजीनियर, कश्मीरी पंडित लक्ष्मण जू टिक्कु के नेतृत्व में सौंपने का फैसला किया. इस परियोजना में बानिहाल में सुरंग बनाना भी शामिल था, जिसने इस रास्ते को कुछ दूर तक मौसम के कहर से बचाया और ट्रकों को दर्रे से होकर जम्मू और पठानकोट तक पहुंचना संभव बनाया. इतिहास में कहीं यह दर्ज नहीं मिलता की महाराजा के मन में इसके साथ कोई रणनीतिक पहलू जुड़ा था, लेकिन डोगरा राज को अपने क्षेत्रों से गुज़रता एक दूसरा और भाग्यशाली मार्ग मिल गया.
सड़क और रेल परियोजनाओं के विस्तार के लिए पैसे की ज़रूरत थी मगर राजशाही के पास पैसे नहीं थे. 1939 में 2.77 करोड़ रुपये के राजस्व में से 40 लाख तो महाराजा और उनके निजी विभागों के खाते में चले जाते थे. इसके अलावा 50 लाख उस सेना पर खर्च होते थे जो बुरी हालत में थी. इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए कम ही पैसा बचता था.
महाराज के उत्तराधिकारी हरी सिंह 1947 में श्रीनगर से भाग खड़े हुए क्योंकि पाकिस्तानी घुसपैथियों के हमले के आगे उनकी सेना पस्त हो गई. भारतीय सेना ने इस रास्ते अपने स्पेशल फोर्स को मदद पहुंचाई, जिसे राज्य की रक्षा के लिए वहां विमानों से उतारा गया था.
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आज़ादी का खाका
इंदिरा गांधी के दफ्तर के मुखिया रहे अर्थशास्त्री और राजनीतिक एक्टिविस्ट पृथ्वी नाथ धर 1930 के दशक से ही भारत में कश्मीर के विलय के बारे में सोचने लगे थे. 1951 में एक नोट में उन्होंने लिखा कि एक संभावित रेल मार्ग बानिहाल से होकर बनाया जा सकता है, जैसा कि फोर्ब्स, फोर्ब्स, कैंपबेल ऐंड कंपनी की रिपोर्ट में बताया गया था: “अगर कश्मीर अपना रेल मार्ग बनाता है, तो भारत के साथ गहरा एकीकरण हो सकता है और हिमालय के पहाड़ों के कारण वह जो थोड़ा अलग-थलग पद गया है वह खत्म होगा.”
लेकिन उस वक्त जो टेक्नोलॉजी और संसाधन उपलब्ध थे उनके कारण इस तरह की परियोजना संभव ही नहीं थी. सरकार ने लक्ष्मण जू वाली सुरंग की जगह नई सुरंग बनाने पर ज़ोर दिया और यह काम 1956 में पूरा हुआ. सेना ने भी छकड़ा मार्ग को उस समय जिसे युद्धबंदी रेखा कहते थे वहां तक अपना साजो-सामान पहुंचाने लायक बनाने में योगदान दिया.
इससे भी अहम धर का यह विचार था कि अगर दूसरे रास्ते बनाए जा सके तो पंजाब के साथ व्यापारिक संबंध पर ज्यादा असर नहीं पड़ेगा. लाहौर जैसे बाज़ारों के ज़रिए 1900-01 में 40,442 रुपये मूल्य का व्यापार हो रहा था, जो 1925-26 में 1,53,35,877 रु. मूल्य का हो गया था. मुख्यतः कपास, रंगों, बोरॉन, शराब, धातुओं, तेलों, अनाजों, चाय और तंबाकू का व्यापार होता था. पंजाब को कश्मीर मवेशी, लक्कड़, जड़ी-बूटी, फल, सब्जियां, दालें, चमड़ा, अफीम और चरस (तब वैध रूप से) भेजा करता था.
धर के मुताबिक, कश्मीर की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था और पंजाब की औद्योगिक अर्थव्यवस्था एक-दूसरे की पूरक थी. कश्मीर को जो कुछ चाहिए था उसका काफी हिस्सा वहां नहीं बनता था मगर पंजाब से आ जाता था. कश्मीर को अगर भारत के व्यापक बाज़ार से जोड़ दिया गया तो उसके किसानों को काफी लाभ हो सकता था. केवल ढुलाई की व्यवस्था दुरुस्त करने की ज़रूरत थी. कश्मीर को भारत का लोहा और सीमेंट की ज़रूरत थी, सैनिकों और गोलियों की नहीं.
आखिरी कोशिश
वैसे, रेल मार्ग के विचार को कभी खारिज नहीं किया गया था. इस मामले में सभी तरह की सरकारों के बीच उल्लेखनीय सहमति दिखी. 1996 में प्रधानमंत्री देवेगौड़ा ने रेलवे लाइन के लिए शिलान्यास किया. वह ऐसा दौर था जब मजदूरों को जुटाना और उन्हें हमलों से सुरक्षित रखना असंभव लगता था. इसके एक साल बाद प्रधानमंत्री आई.के. गुजराल ने एक और शिलान्यास किया. 2002 में इस परियोजना को राष्ट्रीय घोषित किया गया और इसे रेल बजट के दायरे से मुक्त कर दिया गया.
यह रेल लाइन जब पूरी तरह से काम करने लगेगी तब भारत के तमाम शहरों पर इसके बड़े प्रभाव नजर आने लगेंगे. फलों की काफी कम खर्चे पर कुशलता से ढुलाई हो सकेगी, केसर जैसे मसालों और घी की सप्लाई बेहतर तरीके से हो सकेगी और उत्कृष्ट चीज़ जैसे नए उत्पादों को नए बाज़ार मिलेंगे.
जिन बातों पर कम ध्यान दिया जाता है, दूरी घटने के चलते उनके कारण गहरे सांस्कृतिक बदलाव आ सकते हैं. नई ट्रेन धर्म, स्थान, संस्कृति ही नहीं बल्कि बंटवारे की भयावह यादों और पीर पंजाल की पहाड़ियों के कारण एक-दूसरे से विभाजित दो शहरों जम्मू और श्रीनगर के बीच कुछ घंटो की यात्रा को आसान बनाएगी. इस सांस्कृतिक परिवर्तन के प्रभावों को कमतर नहीं आंका जा सकता है क्योंकि हमें मालूम है कि ऐसा पहले हो चुका है.
अपने पिता लक्ष्मण जू टिक्कु द्वारा बनाए गए नए हाइवे से मुंबई जाकर उनके बेटों ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की. वह नए विचारों से लैस हुए. बड़े बेटे लंबोदर नाथ टिक्कु ने दर्जी बनने का फैसला किया और श्रीनगर में ग्राहकों की पसंद की पोशाक बनाने का बड़ा कारोबार शुरू किया. स्थानीय रूढ़िवादी पंडितों ने अपनी जाति की हैसियत से नीचा काम करने के लिए इस युवा बागी की निंदा की, लेकिन नवयुग टेलर्स ने अपने भारी मुनाफे से उन सबका मुंह बंद कर दिया.
कश्मीर की रेल की कहानी इस राज्य में भारत की उपलब्धियों के मूल पहलुओं को उजागर करती है, जिनके ऊपर अक्सर कम ध्यान दिया जाता रहा. पाकिस्तान ने अपने रेल नेटवर्क का विकास करने पर ध्यान नहीं दिया. आज उसकी एक भी रेल लाइन बिजली वाली नहीं है. इससे उसकी व्यवस्था की कार्यकुशलता घटी है. उसके उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र के अधिकतर रेलवे स्टेशन उपेक्षित पड़े हैं. पाकिस्तान ने कंधार और उत्तर की ओर रेल लाइन बिछाने का काम नहीं किया, जो उसे मध्य एशिया में व्यापार करने की सुविधा उपलब्ध करा सकती थी.
भारत के लिए असली संघर्ष कश्मीर की जनता को भारत के लक्ष्यों के लिए सुरक्षित, समृद्ध सहयोगी बनाने का है. नई ट्रेन की हर एक यात्रा हमें इस उद्देश्य के निरंतर करीब लाती जाएगी.
(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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