नितीश कुमार अपने लिए एक नई भूमिका (पद) की तलाश कर रहे हैं, लेकिन यह पता लगाने में असमर्थ हैं कि वह क्या हो सकता है।
बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार खुद को कैच-22 (एक विवादास्पद स्थिति) की स्थिति में पाते हैं और उनके अलावा इसके लिए कोई और दोषी ठहराया नहीं जा सकता। 10 माह पहले कांग्रेस-राजद-जदयू के महागठबंधन से अलग होने और भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए में फिर से शामिल होने के बाद से वह राजनीतिक चक्रव्यूह में फँस गए हैं।
एक समय पर उनको 2019 में विपक्ष के लिए प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने के लिए अग्रदूत माना जाता था। लेकिन तब से, उन्होंने अपनी अधिकांश विश्वसनीयता खो दी है। यदि नितीश फिर से एनडीए से बाहर निकलते हैं तो वह अपनी राजनीतिक मौकापरस्ती को साबित करेंगे।
80 के दशक में, जयप्रकाश नारायण के समाजवाद के ब्रांड के शिष्य के रूप में अपने करियर की शुरुआत करने वाले, नितीश कुमार ने भाजपा के साथ हाथ मिलाकर अंतिम 1990 और शुरूआती 2000 के दशक में अटल बिहारी वाजपेई की एनडीए सरकार में रेल मंत्री का कार्यभार संभाला था। भाजपा से समर्थन लेकर 2005 में वह बिहार के मुख्यमंत्री बने। अपने साथियों को त्यागकर फिर से एनडीए में शामिल होने से पहले, 2013 में भाजपा के साथ अपने 17 साल के गठबंधन को तोड़कर वह महागठबंधन में शामिल हो गए थे और फिर 2015 में इनको तीसरे कार्यकाल के लिए चुना गया था।
जदयू क्यों है चिंतित?
हाल ही में भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी के साथ अपने गठबंधन को समाप्त कर दिया है, जिसको लेकर जदयू चिंतित है। बिहार के लिए विशेष श्रेणी की स्थिति, बाढ़ राहत पैकेज, उपचुनाव में हार और राज्य में हालिया सांप्रदायिक हिंसा सहित विभिन्न मुद्दों पर जदयू और भाजपा के बीच विवाद रहा है।
जदयू ने यह भी पाया है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने मुख्यमंत्री नितीश कुमार को नजर अंदाज किया है, जबकि महाराष्ट्र के अपने सहयोगी शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे और साथ ही साथ अकाली दल के प्रमुख सुखबीर बादल से उन्होंने अपने बेहतर रिश्तों के लिए मुलाकात की है। अन्य सहयोगियों के विपरीत, केंद्र में नरेंद्र मोदी के मंत्रीमंडल में जदयू का कोई भी प्रतिनिधित्व नहीं है।
अगले साल आयोजित होने वाले बिहार लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ सीट साझा करने का तरीका (फॉर्मूला) भी जदयू के लिए नई चिंता का विषय बना हुआ है। जदयू के एक नेता का कहना है कि, “हम आखिरी समय में कोई समझौता नहीं करना चाहते हैं, हम अभी ही सारे मामले को हल करना चाहते हैं।“
2014 में, भाजपा और उसके सहयोगियों (लोक जनशक्ति पार्टी और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी) ने बिहार लोकसभा की 40 सीटों में से 31 पर अपनी जीत दर्ज कराई थी जबकि आरजेडी को चार, कांग्रेस तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस को क्रमशः दो और एक सीट ही मिली थी।
नितीश के पास क्या विकल्प हैं?
जेडी(यू) नेताओं ने सीट साझा करने जैसे मामलों को सुलझाए बिना एनडीए में शामिल होने के लिए नितीश की आलोचना की है। अब, पार्टी नेता के.सी. त्यागी का कहना है कि अब सम्मानपूर्ण सीट साझा करने का सौदा प्राथमिक है। जेडी(यू) में 71 विधायक हैं, जबकि बीजेपी के पास 53 है और जेडी(यू) इस ही आधार पर सौदा चाहती हैं, जिसमें उन्हें लगभग 20 सीटों के आस पास मिले। हालांकि, बीजेपी के वर्तमान मूड को देखते हुए, यह उनसे माँगना कठिन हो सकता है।
दूसरा विकल्प यह है कि इसे स्वीकार किया जाए और इस को झेला जाए, भले ही यह एक अपमानजनक सौदा हो। कम सौदेबाजी शक्ति के साथ, बीजेपी सबसे अच्छी स्थिति में जेडी(यू) को 10 या 11 सीटों के प्रस्ताव दे सकती है और इसे इससे संतुष्ट होना पड़ सकता है। यह पिछली बार से बहुत अलग हो सकता है जब भाजपा और जेडी(यू) ने लोकसभा चुनाव साथ लड़े थे – 2009 में नीतीश की पार्टी 25 सीटों पर चुनाव लड़ी थी।
तीसरा विकल्प एनडीए के साथ रहना और अन्य बिहारी सहयोगियों, एलजेपी और आरएलएसपी के साथ मिलकर एक दबाव बनाने वाला समूह गठित करना। नीतीश इस योजना पर भी काम कर रहे हैं।
चौथा विकल्प है महागठबंधन में फिर से शामिल हो जाना। गठबंधन तोड़ते समय नितीश ने कहा था: “मेरा निर्णय बिहार के हित में है”। उन्हें इसी कारण से वापस जाने से कौन रोक रहा है? कांग्रेस के प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल ने कहा: “अगर नीतीश कुमार एनडीए के साथ गठबंधन तोड़ते हैं तो महागठबंधन को पुनर्निमित किया जा सकता है।” लेकिन नीतीश के लिए तेजस्वी यादव के साथ एक सहायक के दर्जे पर काम करना मुश्किल होगा। तेजस्वी यादव अब आरजेडी के प्रमुख हैं।
पांचवां विकल्प उन्हें अकेले चुनाव लड़ना होगा। यह एक व्यवहार्य विकल्प नहीं है क्योंकि एनडीए और आरजेडी और उसके सहयोगियों के पास जातीय अंकगणित के मामले में बढ़त है। जेडी(यू) को छोड़कर, जिसका सामाजिक आधार मजबूत नहीं है (तीन प्रतिशत कुर्मी को छोड़कर), आरजेडी ने अपने मुस्लिम-यादव वोट बैंक को मजबूत किया है, जबकि बीजेपी ध्रुवीकरण की राजनीति के माध्यम से मजबूत हो रही है। नीतीश बेहद पिछड़ा वर्गों पर पूरी तरह से निर्भर हैं, एक मतदाता वर्ग जिसे नीतीश कुमार ने स्वयं बनाया है।
छठा विकल्प यह है कि बिहार विधानसभा चुनावों को पहले करवा दिया जाए, जो 2020 में होने हैं। जेडी(यू) के एक वर्ग की राय है कि अगले लोकसभा चुनावों के साथ विधानसभा चुनाव आयोजित किए जाने चाहिए, जिससे जेडी(यू) एक महत्वपूर्ण सहयोगी बन जाएगी। लेकिन क्या नीतीश अपने कार्यकाल की अवधि को कम करना चाहेंगे? यह संदेहात्मक है।
नितीश 6-7 जुलाई को निर्धारित महत्वपूर्ण राष्ट्रीय कार्यकारी बैठक में इन मुद्दों से निपटने के लिए सहमति प्राप्त करने की उम्मीद कर रहे हैं, लेकिन कोई विकल्प आसान नहीं है। वह खुद के लिए एक नई भूमिका की तलाश में है, लेकिन यह पता लगाने में असमर्थ है कि यह भूमिका क्या हो सकती है। जेडी(यू) और बीजेपी दोनों के लिए सवाल यह है कि वे कितने दूर तक साथ जा सकते हैं।
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