आखिर वायु-प्रदूषण राजनीतिक मुद्दा क्यों नहीं बन रहा? अगर ये सवाल बीते हफ्ते आपके भी जेहन में कौंधा हो तो समझिए आप अकेले नहीं. अगर आप एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) के वासी हैं तो फिर याद कीजिएः आंखों की जलन, सांसों की घुटन और थोड़े-थोड़े अंतराल से पर उठने वाली वह खांसी जिसने ना रुकने की जैसे कसम खा ली हो. अकेले आप ही नहीं, आपका पड़ोस जितना बड़ा है, उसमें सभी के साथ यही परेशानी लगी रही. या फिर, यह सब याद करने की जगह बस जरा खिड़की से बाहर झांक भर लीजिए. शुक्र मनाइए कि बीते चंद रोज से मीडिया में सुर्खियां लग रही हैं और लोगों की एक अच्छी-खासी तादाद को अब यह अब यह चिन्ता खाये जा रही है कि आखिर दिल्ली का एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई-वायु-गुणवत्ता) कभी सुधरेगा भी या नहीं? लोगों के माथे पर एक्यूआई की यह चिन्ता अब अगर किसी भूत की तरह सवार है तो ऐसा होना लाजिमी है लेकिन जो चिन्ता लोगों को खाये जा रही है वही चिन्ता लोगों के हाथों चुनी गई सरकार के सिर पर क्यों सवार नहीं नहीं, आखिर हमारी सरकारों को एक्यूआई की ऐसी ही फिक्र क्यों नहीं सता रही?
यह कोई धर्माधर्म का, बैठे-ठाले का या फिर भोलेपन में पूछा गया सवाल नहीं बल्कि सचमुच ही किसी पहेलीनुमा सवाल है. हम आये दिन राजनीति और राजनेताओं की लानत-मलामत किया करते हैं कि राजनीति की गंगा मैली हो चली है या फिर यह कि फलां राजनेता महाभ्रष्ट है. रोजमर्रा की राजनीति किसी बाजार की तरह होती है. जैसे व्यापार मुनाफे के लिए किया जाता है वैसे ही राजनीति के खिलाड़ी इस मैदान में सत्ता हासिल करने के लिए उतरते हैं. जैसे हम यह उम्मीद नहीं पालते कि कोई व्यापारी, ग्राहकों को सेवा फराहम करने के लिए अपना कोई नुकसान उठाएगा वैसे ही हमें यह उम्मीद भी नहीं पालनी चाहिए कि कोई राजनीतिक दल या फिर आम चलन का राजनेता जनता-जनार्दन की सेवा करने के चक्कर में चुनाव हारने का जोखिम उठाएगा. राजनीतिक दल और राजनेता वही करते हैं जिनसे उनका मकसद (यानी सत्ता हासिल करना) सधता है और ऐसा कुछ भी करने से परहेज करते हैं जो उन्हें सत्ता हासिल करने के अपने मकसद से दूर करता लगे. राजनेता शायद ही कभी ईमानदारी या फिर विवेक से काम लेते हों, ऐसा करने का आखिर उन्हें चुनावी फायदा क्या होना है.
वायु-प्रदूषण का मामला जरा हट के है या फिर कम से कम ऐसा जान पड़ता है. वायु की गुणवत्ता का खराब होते जाना कोई ऐसा दूर-दराज का या फिर ढंका-छिपा मामला नहीं कि उस पर ध्यान ही न जाये. हवा जहरीली हो रही है, इसे जानने के लिए आपको मीडिया की तरफ नहीं देखना होता. धुएं और धुंध से भरी हवा सेहत को नुकसान पहुंचाती है, इसे जानने के लिए आपके पास मेडिकल की डिग्री होना जरुरी नहीं. वायु की गुणवत्ता में बिगाड़ कोई मौसमी सर्दी-जुकाम का मामला नहीं है, इसका सीधा असर इस बात पर पड़ता है कि आप आगे और कितने वसंत देख पायेंगे. आज मतदाता के लिए सबसे जरुरी कोई चीज है तो यही कि उसे सांस लेने को साफ हवा मिले. जाहिर है, फिर जो राजनीति की दुनिया में अपनी किस्मत आजमाने के आकांक्षी हैं उन्हें तो जनता-जनार्दन की इस जरुरत को पूरा करने की तरफ दौड़ पड़ना चाहिए, मसले को हल करने का श्रेय लेना चाहिए और चुनावों में अपनी जीत की संभावना बढानी चाहिए. कम से कम चुनावी हार-जीत का तर्क यही कहता प्रतीत होता है.
लेकिन राजनीति, इस तर्क पर नहीं चलती. बीते हफ्ते सुप्रीम कोर्ट में जो हुआ वह तो हर साल दोहराया जाने वाला कर्मकांड बन चुका है: दिल्ली में प्रदूषण के कारण आपात् स्थिति पैदा होती है, आफत खतरे की लाल-रेखा लांघ जाये तब जाकर सरकार नींद से जागती है, फिर कोई दौड़ा-दौड़ा अर्जी लगाने अदालत पहुंचता है और अदालत सरकार को कड़ी फटकार लगाती है. इसके बाद हम फिर अपने काम-धंधे में लग जाते हैं कि इस बार का हो गया, अब अगले साल देखा जायेगा.
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भाजपा, `आप` और एमसीडी का निठल्लापन
आम आदमी पार्टी के नेतृत्व में दिल्ली सरकार ने किस क्षेत्र में क्या कीर्तिमान स्थापित किये, इसे लेकर बहस हो सकती है लेकिन जहां तक दिल्ली की वायु-गुणवत्ता को सुधारने का मामला है, आम आदमी पार्टी के दोस्त भी अरविन्द केजरीवाल पर ये आरोप` नहीं मढ़ सकते कि हां, उन्होंने कुछ ऐसा किया है जिससे दिल्ली की हवा का जहर कम हो. बीते छह सालों में डीटीसी की बसों की तादाद कम हुई है. मेट्रो का किराया इतना बढ़ा है कि कोई उससे जाने-आने से पहले दस दफे सोचे. मेट्रो स्टेशन से घर की गली तक पहुंचने के लिए वाहन-साधन लगातार नदारद बने चले आ रहे हैं. स्मॉग टावर लगाने जैसी बाजीगरी के अलावे केजरीवाल सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया जो कहा जाये कि हां, फलां कदम उनकी सरकार ने वायु-प्रदूषण के खिलाफ उठाया था. पर्यावरण के नाम पर जो टैक्स-वसूली हुई है, उसे खर्च करने के बारे में केजरीवाल सरकार ने सोचा तक नहीं. पीछे मुड़कर देखें तो याद आएगा कि शीला दीक्षित के मुख्यमंत्री रहते दिल्ली में सीएनजी से चलने वाले वाहनों की शुरूआत हुई और दिल्ली में किसी निर्वाचित सरकार के हाथों उस हवा की गुणवत्ता सुधारने की दिशा में उठाया गया यह एकलौता गंभीर प्रयास था जिसमें सरकार के मतदाता सांस लेते हैं.
लेकिन दिल्ली सरकार के प्रति ईमानदारी बरतते हुए कहें तो ये भी दिखता है कि दिल्ली की हवा की गुणवत्ता को सुधारने के मामले में दिल्ली म्युनिस्पल कारपोरेशन (एमसीडी) और नरेन्द्र मोदी सरकार का रिकार्ड भी बेहतर नहीं. कूड़ा-करकट के निस्तारण(वेस्ट-बर्निंग) या फिर निर्माण-कार्यों से होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए एमसीडी ने जो कुछ किया है, वह ना के बराबर है. केजरीवाल का सिंहासन छिनने को आतुर रहने वाली नरेन्द्र मोदी सरकार को भी बस इतने से संतोष हो जाता है कि चलो, सुप्रीम कोर्ट में अर्जी डाल दी, अब जो करना है सो अदालत करेगी, हमें क्या करना है!
इसी कारण, हमने आपके सामने ये सवाल उठाने की जुर्रत की है कि: आखिर ऐसा हो कैसे रहा है कि जो मसला सिर्फ एक बड़ी तादाद को नहीं बल्कि दिल्ली के हर मतदाता को आये दिन सताता है, सरकार उस मसले का हल निकालने की फिक्र ही नहीं कर रही? जिस मसले से राजनीतिक दलों के भावी अधिसंख्य मतदाताओं की जिन्दगी और मौत का सवाल जुड़ा हो, उस मसले से आंख फेरकर वे कैसे चल सकते हैं ? यह जान पाना सिर्फ मेरे और आप ही के लिए नहीं बल्कि लोकतंत्र के सिद्धांतों के लिए भी एक पहेली सुलझाने की तरह है.
इस पहेली को सुलझाने की पहली शर्त है, यह मानकर चलना कि व्यवस्था चलाने के लिए लोकतंत्र के पास कोई जादुई छड़ी नहीं होती कि हवा में यों घुमायी और जो चाहा सो हाजिर, जिसे न चाहा सो छू-मंतर. आबादी की एक बड़ी तादाद की जो वास्तविक समस्या है, शायद जो सबसे गहरी जरुरत है, उसे लोकतंत्र भला क्यों कर पूरा करे? ऐसा करने की क्या मजबूरी हो सकती है लोकतंत्र के पास? लोकतांत्रिक राजनीति जनता के अधिसंख्यक हिस्से की जरुरत को पूरा करने की दिशा में प्रयास कर सकती है, लेकिन कुछ शर्तों के पूरा होने के बाद. लोकतंत्र के नाम पर जो इश्तहार लिखे मिलते हैं, उनके बड़े-बड़े अक्षरों की चमक के आगे कहीं नीचे की तरफ बड़ी महीन लिखाई में दर्ज यह बात हमारे आंखों से छिप जाती है कि `शर्ते लागू` हैं, कि जिस सब्जबाग को दिखाने के वादे यहां किये गये हैं उन्हें पूरा कुछ शर्तों के अधीन ही किया जायेगा.
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विकल्प यही हैः जागो, बोलो और एकजुट हो जाओ
बाबा साहब ने जब अपने अनुयायियों को यह मंत्र दिया था कि `शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो` और वंचित तबके के लिए लोकतांत्रिक साधनों का इस्तेमाल करो, तो उनका इशारा लोकतंत्र की इसी शर्त की तरफ था. वायु-प्रदूषण के मसले को हल करने के लिए आपको बाबा साहब के इस सूत्रीकरण का पुनराविष्कार करने की जरुरत है.
पहली बात तो यह कि लोकतंत्र में जो पारस्परिक होड़ की राजनीति चलती है, उसमें जरूरतों की नहीं बल्कि मांग की सुनी जाती है. चंद दूरदर्शी नेताओं की बात अपवादस्वरुप छोड़ दें तो फिर कहा जा सकता है कि राजनेताओं के पास ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती कि वे मतदाताओं की जरुरत को सुनें-गुनें. हां, यह जरुरत जब एक स्पष्ट मांग की शक्ल में मुखर होने लगती है तो राजनेताओं के लिए इस मांग पर ध्यान देने की मजबूरी हो जाती है. इसके लिए जरुरी होता है, अपनी जरुरतों के प्रति आगाह होना और जरुरतों को ठोस रुप देना ताकि उन्हें चंद सूत्रों में कहा जा सके, सुना और सुनाया जा सके. मतदाता के लिए जरुरी है कि वह कार्य-कारण संबंध देख सके, उसे पता हो कि कोई चीज अगर उसे झेलनी पड़ रही है तो उसकी वजह क्या है: प्रदूषण को लेकर सबसे जाहिर सी बात क्या है— यही कि सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है, प्रदूषण को नियंत्रित करने के उपायों के मोर्चे पर कुछ करती-धरती नहीं. लेकिन, कार्य-कारण के इस आपसी संबंध का बोध हो जाने के बाद उसे अपने तक सीमित नहीं रखना होता, यह भी जरुरी है कि इसे किन्हीं विचारों का रूप देकर सार्वजनिक रूप से कहा जाये. सो, पहली शर्त तो यही है कि मतदाता को वायु-प्रदूषण की समस्या पर मुखर होना पड़ेगा, इस मुश्किल के बारे में अपनी बात सबके सामने रखनी होगी.
दूसरी शर्त है मांगों का एकजुट या एकमंच होना. राजनीति में किसी जरूरत का मांग के रूप में मुखर होना अनिवार्य तो है लेकिन पर्याप्त नहीं. चंद लोगों या फिर बहुत से लोगों का मांग को मुखर करने भर से बात नहीं बनने वाली. ऐसा कोई होना चाहिए जो किसी मसले पर मुखर हो रही तमाम मांगों के बीच एका बैठाए, उन्हें एकजुट और एकमंच करे और इन मांगों को मुखर करने वाले लोगों को लामबंद करे. उन चंद सयाने और संवेदशीनशील नेताओं को अपवादस्वरुप छोड़ दें जो किसी मांग के मुखर होने से पहले ही भांप लेते हैं कि लोग अभी चाहते क्या हैं तो नजर आयेगा कि आम ढर्रे के नेता तबतक अपने आसन से इधर-उधर नहीं डोलते जब तक कि उनके आगे यह ना जाहिर हो जाये कि फलां मांग को लेकर उठ रही एकजुट आवाजों पर कान न दिया तो अपना आसन ही खतरे में पड़ जायेगा. तो, दूसरा सबक ये है कि: संगठित बनना होता है. मुहल्ला समिति से लेकर एयर क्वालिटी मॉनिटर ग्रुप कायम करने तक और वायु-प्रदूषण का गड़बड़झाला बनाये रखने के लिए नेताओं और नौकरशाहों को उनके नाम लेकर लानत-मलामत करने की सामूहिक रणनीति बनाने तक का काम एकसीध और एकसुर में करना होता है.
लेकिन संभव है, ऐसी सामूहिक कार्रवाई आपको अपना मकसद हासिल करने की तरफ कुछ दूर तो ले जाये लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं कि वह निर्णायक भी साबित हो, इतनी कारगर हो जाये कि मकसद हासिल हो जाये. आलोचना करने भर से इस बात की गारंटी नहीं हो जाती कि मतदाता एकजुट और एकमंच हुई मांगों की तरफदारी में अपने कदम बढ़ा देगा, जरूरी होता है कि मतदाता को कोई ठोस और कारगर विकल्प नजर आये. भ्रष्टाचार तो हमेशा से रहा है और उसकी आलोचना भी होती रही है लेकिन भ्रष्टाचार का मुद्दा निर्णायक चुनावी मुद्दा तभी बन पाता है जब ईमानदार समझा जा रहा कोई नेता या पार्टी चुनावी होड़ में दिखायी देते हैं. यहां जो बात भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लागू होती है वही बात एयर-क्वालिटी (वायु की गुणवत्ता) या फिर आमतौर पर पर्यावरण के मुद्दे के बारे में लागू कही जा सकती है.
आम मतदाता सरकार के कामकाज को लेकर भले खीझ में हो, अपनी खीझ में इतना सींझ चुका हो कि अब उसके मन में सरकार के कामकाज को लेकर उब या वितृष्णा पैदा हो गई हो लेकिन ये मसला निर्णायक तभी बनता है जब कोई अन्य राजनीतिक दल इसे अपने अजेंडे में शामिल करे और समाधान के लिए क्या-क्या ठोस उपाय किये जायेंगे, ऐसी कोई वैकल्पिक कार्य-योजना बनाये. तो, इस बात से एक तीसरा सबक निकलता है कि: विकल्प को अपने दोनों ही अर्थों में विकल्प होना होता है यानी नीति(पॉलिसी) के मामले में और राजनीति(पॉलिटिक्स) के मामले में भी.
वायु-प्रदूषण चाहे कितना भी गंभीर क्यों न हो, वह खुद-ब-खुद राजनीतिक मुद्दा तो बनने से रहा. उसे मुद्दा बनाना पड़ेगा. लोगों को आगाह करके, मसले को सार्वजनिक रुप से मुखर करके, मुखर हुई मांग को एकजुट और एकमंच करके और विकल्प देकर हमें इस मसले पर लोकतंत्र का जो धुंध-धुंधलका छाया हुआ है, उसे हटाना पड़ेगा.
(योगेंद्र यादव स्वराज इंडिया के सदस्य हैं और जय किसान आंदोलन के सह-संस्थापक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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