तमाम दावों और वादों के बाद, लाल सिंह चड्ढा आखिरकार एक शुद्ध देसी भारतीय फिल्म ही बन पाई. इसके निर्माताओं का दावा है कि ये अमेरिकी फिल्म फॉरेस्ट गम्प (1994) की रिमेक है. लेकिन एक भारतीय फिल्म का फॉरेस्ट गम्प बन पाना जोखिम का काम था और फिल्मकार ने ये जोखिम नहीं उठाया. ‘अविवादित, भोली-भाली और शालीन’ फिल्म बनने की कोशिश में लाल सिंह चड्ढा कामयाब रही. ये वो 6 प्रमुख बिंदु हैं, जहां दोनों फिल्में अलग हो जाती हैं.
1. नजरों का फर्क: फॉरेस्ट गम्प अमेरिका को श्वेत यानी गोरे नजरिए से देखती है. इसमें श्वेत कॉकेशियन फॉरेस्ट गम्प की बचपन से प्रौढ़ होने की यात्रा और साथ चलती अमेरिका की यात्रा को दिखाया गया है. इस दौरान अमेरिका के राष्ट्र जीवन में आए तकलीफदेह और शर्मिंदगी के लम्हों का बोझ फॉरेस्ट गम्प के कंधों पर भी होता है. आखिर वह श्वेत जो है. श्वेत लोगों का ही तो दावा है कि उन्होंने अमेरिका की खोज की थी, जबकि वहां पहले से लोग रहते थे. अमेरिका जब युद्ध में हारता है या नस्लवाद करता है या वहां का युवा हताशा में डूबता है तो इसकी जिम्मेदारी का एक सिरा श्वेत युवा फॉरेस्ट गम्प तक भी पहुंचता है.
लाल सिंह चड्ढा का लीड करेक्टर सिख यानी भारत के अल्पसंख्यक समुदाय का है. लीड एक्ट्रेस को ईसाई दिखाया गया है. फिल्मकार के द्वारा किए गए पात्रों के ये दो चयन महत्वपूर्ण है क्योंकि लीड करेक्टर के सिख या ईसाई होते ही ढेर सारे समीकरण बदल जाते हैं. भारत में एक सिख युवा और ईसाई लड़की आडवाणी की राम रथ यात्रा पर आसानी से चर्चा कर पाते हैं कि रथ को निकालने वाले का नाम भी “लाल” है. राष्ट्रीय घटनाओं से चड्ढा का नाता तब ही जुड़ता है, जब उसका अपना समुदाय सीधे तौर पर प्रभावित होता है, जैसे इंदिरा गांधी की हत्या और फिर सिख विरोधी दंगे. बहुसंख्यक प्रभुत्वशाली हिंदू समुदाय से लीड कैरेक्टर न चुनकर लाल सिंह चड्ढा के निर्माताओं ने फिल्म की हदें तय कर दीं.
2. भारतीय संस्कृति की रक्षा: फॉरेस्ट गम्प का स्कूल प्रिंसिपल एक जटिल और बुरा चरित्र है. वह फॉरेस्ट गम्प को स्कूल में एडमिशन देने के बदले उसकी मां से सेक्स का सौदा करता है और सेक्स के बाद ही बच्चे को एडमिशन देता है. इस क्रम में मां की मजबूरी और बच्चे के लिए अपने शरीर का सौदा करने का कारुणिक दृश्य सामने आता है. बच्चा इस घटनाक्रम से वाकिफ है भी और नहीं भी. वह इस सौदे का अनिच्छुक या निष्क्रिय लाभार्थी है, पर उसमें इसे लेकर क्रोध भी है.
वहीं लाल सिंह चड्ढा का प्रिंसिपल बहुत ही करुणाशील व्यक्ति है. जैसे ही लाल सिंह चड्ढा की मां कहती है कि वह प्रिंसिपल के घर में खाना बना देगी और साफ-सफाई कर देगी, तो प्रिंसिपल उसे एडमिशन देने को तैयार हो जाता है और उन्हें घर का काम करने से मना भी कर देता है. इस पूरे प्रसंग में न तो कोई जटिलता है न पेंच. इस दृश्य का न होना लाल सिंह चड्ढा को बहुत कमजोर कर देता है. भारत में बनने वाली फिल्म में गुरु को यौन पिपासु और घटिया नैतिक मूल्यों वाला बताना शायद संभव नहीं हो पाया.
3. राष्ट्रवाद और युद्ध में हार-जीत: फॉरेस्ट गम्प अमेरिकी राष्ट्र जीवन की सबसे बड़ी शर्मिंदगी की भी कहानी है. ये फिल्म लगभग तीन दशक की यात्रा है, जिस दौरान अमेरिका में कई शानदार और कई शर्मिंदगी वाली घटनाएं हुईं. फॉरेस्ट गम्प का फोकस शर्मिंदगी वाली घटनाओं पर है. मिसाल के तौर पर, ये फिल्म चुनती है कि फॉरेस्ट गम्प को वियतनाम युद्ध में लड़ता हुआ दिखाया जाए. एक ऐसा युद्ध, जिसमें अमेरिका की शर्मनाक हार हुईं. इस फिल्म में युद्ध विरोधी आंदोलन खूब नजर आया है. फिल्म की हीरोइन और यहां कर कि फॉरेस्ट गम्प भी युद्ध विरोधी प्रदर्शनों में शामिल है.
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लाल सिंह चड्ढा जिस कालखंड की कहानी है, उसमें भारतीय सेना को श्रीलंका के शांति मिशन में शर्मिंदगी उठानी पड़ी. लेकिन भारतीय फिल्मकार ने कारगिल युद्ध दिखाना चुना, जिसमें भारतीय सेना पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेड़ देती है. अगर लाल सिंह चड्ढा की कहानी को फिल्मकार और पीछे ले जाने का फैसला करता, तो वह 1962 के भारत-चीन युद्ध तक पहुंच सकता था. लेकिन उसे राष्ट्र गौरव दिखाना था. वही दिखाया गया. फॉरेस्ट गम्प जैसा कुछ बनाना भारत में एक मुश्किल काम रहा होगा.
4. नस्लवाद का भारतीय अनुवाद उत्तर-दक्षिण का भेद: फॉरेस्ट गम्प अमेरिका की एक और बड़ी शर्मिंदगी- नस्लवाद से भी सीधे टकराती है और इस क्रम में श्वेत लोगों की नीचता को भी सामने लाती है. फॉरेस्ट गम्प के खानदान के एक सदस्य को अमेरिका के सबसे बदनाम नस्लवादी संगठन कू क्लक्स क्लान का संस्थापक बताया जाता है और उसका मजाक खुद फॉरेस्ट गम्प उड़ाता है. फिल्म दिखाती है कि किस तरह अलाबामा यूनिवर्सिटी में पहली बार जब अश्वेत विद्यार्थी पहुंचते हैं तो उनका गोरे विद्यार्थी किस तरह मजाक उड़ाते हैं. फिल्म ये भी बताती है कि अश्वेत युवाओं को किस तरह अमेरिकी सेना में शामिल करके वियतनाम में लड़ने के लिए भेज दिया जाता है. इस कहानी को फॉरेस्ट के अश्वेत दोस्त बूबा के जरिए बताया जाता है.
लाल सिंह चड्ढा जन्म आधारित भेदभाव के भारतीय मॉडल यानी जातिवाद को छुए बिना निकल जाती है. चड्ढा चूंकि सिखों की ऊंची जाति से है तो जाति उसे किसी भी तरह से प्रभावित नहीं करती. वह दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ता है, जहां मंडल कमीशन विरोधी आंदोलन होता है और यूनिवर्सिटी बंद हो जाती है. लेकिन ये घटना चड्ढा के जीवन को किसी भी तरह से प्रभावित नहीं करती. इस फिल्म में फॉरेस्ट गम्प के अश्वेत दोस्त बूबा के समकक्ष किरदार बाला है, जो दक्षिण भारतीय है. लेकिन दक्षिण भारतीय पहचान में न तो दलितों वाली पीड़ा है और न ही वैसा संघर्ष. अश्वेत के बराबर भारत में दलितों को ही होना चाहिए. लेकिन लाल सिंह चड्ढा बनाने वाले ने इस प्रश्न को न छूने का फैसला किया. भारत की फिल्में जैसी बनती हैं, लाल सिंह चड्ढा वैसी ही बन गई. ये दावा ही गलत है कि ये फिल्म फॉरेस्ट गम्प की रिमेक है.
5. सीमा पार दुश्मन है और जाहिर है कि वह मुसलमान है: फॉरेस्ट गम्प में कोई स्पष्ट रूप से निगेटिव किरदार नहीं है. जिन दो करेक्टर्स में नेगेटिव लक्षण हैं वे हैं प्रिंसिपल और फौज का लेफ्टिनेंट डैन. फॉरेस्ट गम्प में दोनों किरदार श्वेत दिखाए गए हैं. अमेरिकी फौज जिस वियतनामी टुकड़ियों से लड़ती है, वहां से कोई विलेन नहीं लाया गया है.
लाल सिंह चड्ढा का आतंकवादी सरगना जाहिर है कि मुसलमान है. पाकिस्तान से भारत में दहशत फैलाने आया है. वहां उसे जन्नत में 72 हूर मिलेंगी वाली मानसिक खुराक दी गई है. भारत में उसे लाल सिंह चड्ढा का प्यार मिलता है और वह सुधरकर वापस पाकिस्तान जाकर बच्चों को पढ़ाता है. सीमा पार दुश्मन तलाशने वाली सैकड़ों फिल्मों में लाल सिंह चड्ढा भी शामिल हो गई है. इस फिल्म में अबू सलेम, दाऊद इब्राहिम, कसाब सब हैं. इसलिए भी मैं इसे खांटी भारतीय फिल्म कह रहा हूं. साथ ही इस फिल्म में 2012 के गुजरात दंगों को नहीं दिखाया गया है. बाबरी मस्जिद विध्वंस, उसके बाद के दंगे हैं, पर उनमें कोई विलेन नहीं है.
6. लालची करियरिस्ट लड़की लौटकर घर आती है: फॉरेस्ट गम्प की हीरोईन जेनी एक मृग मरीचिका के पीछे भागती है. उसका जीवन छितराया हुआ है, जिसमें उसका गुस्सैल प्रेमी है जो न्यू लैफ्ट स्टूडेंट मूवमेंट का नेता है, ड्रग्स हैं, हिप्पी कल्चर है, युद्ध विरोधी मुहिम है, पूंजीवादी जीवन से विद्रोह है, बेलगाम सेक्स हैं और एक वायरल बीमारी है, जो शायद एड्स है, जिसमें उसकी मौत होती है. ये अमेरिका की एक पूरी बागी जेनरेशन की कहानी है. फिल्म ये भी बताती है कि जेनी का बाप बचपन में उसका शोषण (संभवत: यौन शोषण) करता है.
इसके मुकाबले लाल सिंह चड्ढा की हीरोइन कामयाबी और पैसे के पीछे भागने वाली लड़की है, जो शोषण का शिकार बनती है, खूब चोट खाती है और आखिर में लौटकर चड्ढा के ग्रामीण संस्कारी जीवन में लौटती है. ये लड़की के सबक सीखने की दास्तान है कि लड़कियों को कामयाबी के पीछे नहीं भागना चाहिए. रूपा जेनी नहीं है. वह बागी नहीं है. वह कॉलेज में एक लड़के के साथ सिर्फ इसलिए रिश्ता बनाती है क्योंकि वह बहुत अमीर है. उसे सिर्फ कामयाबी और पैसा चाहिए. रूपा का बाप एक क्रूर पति है. रूपा के साथ उसका बर्ताव कैसा है, इस बात को छिपा लिया गया है. बेटी और बाप के रिश्ते की पवित्रता की फिल्म में रक्षा की गई है. ये भी भारतीय हिसाब-किताब ही है.
लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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