भेदभाव, दमन और अब दिवालियापन—श्रीलंका हर तरह के उतार-चढ़ाव के दौर से गुजर चुका है. यद्यपि 2022 का ‘अरागलया’—सिंहलियों का ‘संघर्ष’—आज की पीढ़ी को अभूतपूर्व लग सकता है, लेकिन पिछले छह दशकों पर एक नजर डालें तो पता चलता है कि हिंद महासागर का यह द्वीप राष्ट्र कैसे व्यापक स्तर पर तनाव का केंद्र बना रहा है.
4 फरवरी 1948 को इस द्वीप राष्ट्र को डोमिनियन ऑफ सीलोन के रूप में स्वतंत्रता मिल गई और 22 मई 1972 को यह श्रीलंका गणराज्य बन गया. ठीक 50 साल बाद, अब यह वह गणतंत्र है जो राजपक्षे वंश को उनके सिंहासन से नीचे उतार चुका है और पिछले तीन माह से जारी एक निरंतर और शांतिपूर्ण अरागलया के जरिये फिर से गणतंत्र को सही मायने में परिभाषित करने की कोशिश में लगा है.
कभी तमिल विद्रोहियों को कुचलने के लिए सिंहली-बौद्ध बहुसंख्यक देश में ‘नायक’ का दर्जा हासिल करने वाले पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को आज अपनी जान बचाकर भागना पड़ा है और वे राजनीतिक शरण के लिए एक देश से दूसरे देश जा रहे हैं. प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को शुक्रवार को श्रीलंका के अंतरिम राष्ट्रपति के तौर पर शपथ दिलाई गई जो उत्तराधिकारी मिलने तक इस पद पर रहेंगे.
गोटाबाया सत्तालोलुपता के साथ कुर्सी पर चिपके रहने वाले प्रभावशाली राजपक्षे परिवार के आखिरी सदस्य रहे, जिन्हें इस हफ्ते जान बचाने के लिए अपनी पत्नी और अंगरक्षकों के साथ देश छोड़कर भागना पड़ा. वह पहले एक सैन्य जेट पर मालदीव पहुंचे और फिर सिंगापुर की ओर रुख किया. हालांकि, वह सिंगापुर में भी शरण पाने में सफल नहीं रहे हैं, जबकि श्रीलंका में मार्च से ‘गोटा गो होम’ के नारों के साथ शुरू हुआ प्रदर्शन अभी थमने का नाम नहीं ले रहा है.
गृहयुद्ध के बाद एक ‘मॉडल विकासशील देश’ के तौर पर हिंद महासागर का केंद्रबिंदु बनते जाने के बीच श्रीलंका आज एक ‘दिवालिया राष्ट्र’ बन गया है जहां कई दशकों से गहरा सामाजिक-आर्थिक तनाव जारी है. यही कारण है कि श्रीलंका दिप्रिंट का न्यूजमेकर ऑफ द वीक है.
यह भी पढ़ेंः श्रीलंकाई स्पीकर से मिले भारतीय उच्चायुक्त, लोकतंत्र कायम रखने में संसद की भूमिका को सराहा
कभी स्वर्ग रहा सेरेन्डिब आज तनाव से जूझ रहा
प्राचीन काल में ‘सेरेन्डिब’ कहे जाने वाला हिंद महासागर से घिरा यह द्वीप राष्ट्र कभी अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए ‘स्वर्ग’ कहा जाता था, जिस वजह से उसका पर्यटन उद्योग फलफूल रहा था, लेकिन 1956 में राजभाषा अधिनियम—या सिंहला ओनली एक्ट—पारित होने के साथ धीरे-धीरे तनाव यहां अपनी जड़ें जमाने लगा.
तनाव की वजह थी तमिल-सिंहली प्रतिद्वंद्विता. जैसे-जैसे शिक्षा और नौकरियों के लिए प्रतिस्पर्धा तेज होने लगी, सिंहली मध्यम वर्ग के युवाओं ने सरकारी नौकरियों में तमिलों से प्रतिस्पर्धा की संभावना घटाने के लिए अधिनियम के लिए अपना समर्थन देना शुरू कर दिया.
पूर्व राजनयिक और अब एक केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी ने अपनी किताब पेरिलस इंटरवेंशन: द सिक्योरिटी काउंसिल एंड द पॉलिटिक्स ऑफ कैओस में लिखा है, ‘इसकी वजह काफी हद तक 1956 में सिंहला ओनली एक्ट पारित होना था. तमिलों के खिलाफ भेदभाव बढ़ गया और सेना, पुलिस और प्रशासनिक सेवाओं में उनकी भर्ती घटने लगी.’
अंततः जैसे-जैसे तनाव बढ़ता गया तमिलों के लिए एक अलग होमलैंड या ‘ईलम’ की मांग को लेकर 1976 में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (लिट्टे) का गठन हुआ और इस तरह श्रीलंका में एक लंबा और खूनी गृहयुद्ध शुरू हो गया, जो मुख्य रूप से सिंहली-प्रभुत्व वाली श्रीलंकाई सरकार और लिट्टे के बीच का टकराव था.
जुलाई 1983 में आधिकारिक तौर पर गृह युद्ध तब शुरू हुआ जब कोलंबो में तमिलों को निशाना बनाकर दंगे फैले. बाद में इसे ‘ब्लैक जुलाई’ कहा गया. हिंसक जंग मई 2009 में जाकर खत्म हुई, लेकिन तब तक लिट्टे—जिसे एक आतंकवादी संगठन घोषित किया गया था—ने दुनिया के दो प्रमुख नेताओं की हत्या कर दी—पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी और श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति रणसिंघे प्रेमदासा.
29 जुलाई 1987 को तत्कालीन श्रीलंका सरकार के साथ हस्ताक्षरित एक समझौते के तहत राजीव गांधी ने भारतीय शांति सेना (आईपीकेएफ) को श्रीलंका भेजा था ताकि तमिल लड़ाकों को हथियार डालकर शांतिपूर्ण समझौते के लिए बाध्य किया जा सके.
2005-2009 के बीच अपने बड़े भाई महिंदा राजपक्षे के राष्ट्रपति रहने के दौरान तत्कालीन रक्षा सचिव गोटाबाया ने लिट्टे के खात्मे के लिए कई अभियान चलाए, और ‘युद्ध नायक’ का खिताब भी हासिल किया. ऐसे ही एक अभियान के तहत तमिल टाइगर आंदोलन के प्रमुख वेलुपिल्लई प्रभाकरन को 18 मई 2009 को सुरक्षा बलों ने गोली मार दी थी और इसके साथ ही आधिकारिक तौर पर गृह युद्ध खत्म हो गया.
गोटाबाया, जो गोपनीय तौर पर प्रभाकरण की ‘कट्टर प्रतिबद्धता’ की प्रशंसा करते थे, उसके मारे जाने से ‘बेहद खुश’ थे.
लेकिन इस पूरे घटनाक्रम के बीच करीब 100,000 लोग मारे गए और लाखों अन्य, खासकर अल्पसंख्यक तमिल शरणार्थी के तौर पर विस्थापित हुए.
हार्वर्ड इंटरनेशनल रिव्यू की एक रिपोर्ट बताती है, ‘हालांकि गृह युद्ध 2009 में समाप्त हो गया था, लेकिन श्रीलंका में मौजूदा स्थिति में मामूली सुधार ही हुआ है. तमिल आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी विस्थापित जीवन गुजार रहा है. यहां तक कि हाल के वर्षों में राजनीतिक और नागरिक अधिकारों के मुद्दे सामने आए हैं और कुछ लोगों की प्रताड़ना या जबरन गायब होने की घटनाएं जारी हैं’
राजपक्षे सरकार की तरफ से कड़े विरोध के बावजूद श्रीलंका को युद्ध के अंतिम चरण के दौरान कथित मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों को लेकर संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व वाली अंतरराष्ट्रीय जांच का सामना करना पड़ा है.
हार्वर्ड की रिपोर्ट में बताया है, ‘श्रीलंका सरकार अक्सर लिट्टे से जुड़े लोगों का पता लगाती है और उन पर नजर रखती है. ‘हाई सिक्योरिटी जोन’ माने जाने वाले प्रमुख तमिल इलाकों में आज भी श्रीलंकाई सेना का कब्जा रहता है, हालांकि यह युद्ध के दौरान की तुलना में कुछ हद तक कम है. सरकार का आतंकवाद निरोधक कानून (पीटीए) ज्यादातर तमिलों को निशाना बनाता है.
यह भी पढ़ेंः मोदी सरकार ने मुक्त व्यापार समझौतों की ओर बढ़ाया कदम, क्योंकि निर्यात, रोजगार सृजन हो गया है बेहद अहम
प्रदर्शन के बारे में कुछ अनजाने तथ्य
सरकार विरोधी प्रदर्शन चरम पर होने के दौरान बहुसंख्यक जातीय सिंहली समूह ने पहली बार गृहयुद्ध के अंतिम चरण में नृशंसता से मारे गए जातीय तमिलों को याद किया. इससे पहले इस तरह के आयोजन ज्यादातर निजी तौर पर होते थे.
यद्यपि श्रीलंका के सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों ने अन्य लोकतंत्रों के लिए एक उदाहरण स्थापित किया है, तमिल कार्यकर्ताओं का कहना है कि सुरक्षा बलों ने ऐसा संयम नहीं दिखाया होता यदि वे विरोध जता रहे होते और तमिल-केंद्रित क्षेत्रों में होते.
उत्तरी श्रीलंका के जाफना में स्थित एक तमिल नागरिक अधिकार कार्यकर्ता अनुशानी अलगराजाह ने बीबीसी को बताया, ‘प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए हमेशा दो अलग-अलग के तरीके अपनाए जाते हैं. यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप कौन हैं और आप कहां हैं.’
(व्यक्त विचार निजी हैं.)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
यह भी पढ़ेंः गोटाबाया राजपक्षे से एक बार कहा गया था—‘श्रीलंका को हिटलर की तरह चलाओ’, अब वह खुद फरार हैं