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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतG20 का यही सच है— भारत ने पिछले कोल्ड वॉर में दोनों पक्षों से लाभ प्राप्त किया, पर अब कोई विकल्प नहीं है

G20 का यही सच है— भारत ने पिछले कोल्ड वॉर में दोनों पक्षों से लाभ प्राप्त किया, पर अब कोई विकल्प नहीं है

मोदी-बाइडेन का संयुक्त बयान लंबा है लेकिन क्वाड चौथे पैराग्राफ में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है. एक नए शीत युद्ध को तब तक टाला नहीं जा सकता जब तक कि एक या दूसरा पक्ष पूरी तरह से बरबाद न हो जाए.

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उभरती अर्थव्यवस्थाओं के इर्द-गिर्द अपनी सभी बयानबाजी के बावजूद, अपने अस्पष्ट पश्चिम-विरोधी झुकाव के साथ नई दिल्ली ने संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ अपने रणनीतिक संबंधों को गहरा करना जारी रखा है. नए कोल्ड वॉर की बढ़ती तीव्रता का इस गहराते रणनीतिक सौहार्द से बेहतर कोई उदाहरण नहीं हो सकता. ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ के ओवरकोट के बावजूद, G20 इस प्रतियोगिता का एक स्थल है, जिसे भारत इस वास्तविकता पर चित्रित करना चाहता है.

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के बीच मुलाकात के बाद दोनों देशों ने जो संयुक्त बयान जारी किया, वह हमेशा की तरह लंबा है. अवसर के बावजूद, क्वाड ने चौथे पैराग्राफ में ही अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई. निस्संदेह, उसमें कई चीजें निरर्थक थी, जैसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में स्थायी सीट के लिए भारत की दावेदारी के लिए अमेरिका का समर्थन. यूएनएससी में किसी भी सुधार के लिए चीन के समर्थन की आवश्यकता होगी. और सच यह है कि चीन यूएनएससी तो छोड़िए, कभी भी भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) का सदस्य भी नहीं बनने देगा. तो, यह एक नॉन-स्टार्टर है.

इसके अलावा, बढ़ती तनावपूर्ण वैश्विक राजनीतिक स्थिति यूएनएससी की सदस्यता बदलने जैसे प्रमुख संस्थागत सुधारों के लिए सही नहीं है. दरअसल, बढ़ते अंतरराष्ट्रीय तनाव के बिना भी, प्रतिस्पर्धी प्रतियोगियों और क्षेत्रीय असहमति के कारण यूएनएससी में सुधार संभवतः असंभव साबित होता. उदाहरण के लिए, जर्मनी को शामिल करना कठिन होता क्योंकि यूएनएससी में पहले से ही दो यूरोपीय शक्तियां मौजूद हैं और निश्चित रूप से इटली भी इस गेम में है. चीन, पाकिस्तान और दक्षिण कोरिया कभी भी भारत या जापान को सदस्य नहीं बनने देंगे. फिर भी, भले ही अर्थहीन हो, संयुक्त बयान सस्ते में नई दिल्ली को खुश करने के अमेरिकी प्रयासों को दिखाता है.

इसी तरह, क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज (आईसीईटी) पर यूएस-इंडिया इनिशिएटिव, हालांकि अपेक्षाकृत नया है, लेकिन इसे जमीनी स्तर पर तकनीकी सहयोग में तब्दील करना बहुत आसान नहीं है. यह एक एकल कार्यक्रम से अधिक एक सक्षम तंत्र है. फिर भी, यह एक ऐसे क्षेत्र पर काम करने की दोनों पक्षों की इच्छा को दर्शाता है जिसे नई दिल्ली विशेष रूप से महत्वपूर्ण मानती है. हालांकि, इसके क्या हासिल किया जा सकता है इसके बारे में कुछ संदेह होना लाजिमी है.


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इस बार भारत के पास कोई विकल्प नहीं है

फिर भी, कुछ उपलब्धियों पर प्रकाश डाला गया है. संभवतः सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा अंतरिक्ष सहयोग पर है. शुरुआत में विरोध करने के बाद, जून 2023 में, भारत ने यूएस आर्टेमिस समझौते पर हस्ताक्षर किए. अब, दोनों देश 2024 में अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के लिए एक संयुक्त मिशन पर सहमत हुए हैं. मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम पर प्राथमिक भारतीय अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, अब तक रूस के साथ रहा है, इसलिए यह भारत के अंतरिक्ष सहयोग में एक और महत्वपूर्ण बदलाव को दिखाता है. जाहिर है, इसका मतलब यह नहीं है कि भारत अंतरिक्ष पर रूस के साथ सहयोग करना बंद कर देगा, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि अमेरिका के बारे में भारतीय चुप्पी एक और बाधा को पार कर रही है.

वाशिंगटन और दिल्ली के बीच बढ़ती रक्षा प्रौद्योगिकी और आपूर्ति सहयोग भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जिसमें जनरल इलेक्ट्रिक जेट इंजन की बिक्री और लंबी दूरी के ड्रोन की आपूर्ति भी शामिल है. इन सभी प्रयासों का उद्देश्य सीधे तौर पर चीन के खिलाफ भारतीय सैन्य तकनीकी क्षमताओं को बढ़ाना है. हालांकि ऐसा दिख नहीं रहा है कि इसे संयुक्त वक्तव्य में शामिल किया गया है, वाशिंगटन और दिल्ली मध्य पूर्व से गुजरते हुए भारत और यूरोप के बीच नए बुनियादी ढांचे की योजना पर भी चर्चा कर रहे हैं. इसे चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) का मुकाबला करने के लिए डिज़ाइन किया गया है, जो नए कोल्ड वॉर का एक पहलू है.

आसान सच यह है कि 21वीं सदी के कोल्ड वॉर को तब तक टाला नहीं जा सकता जब तक कि एक या दूसरा पक्ष नष्ट न हो जाए. पिछले कोल्ड वॉर में दोनों पक्षों से खेलने से भारत को फायदा हुआ था, लेकिन इस बार कोई विकल्प नहीं है. भारत जैसे अग्रणी राज्य के पास ऐसी विलासिता नहीं है. अमेरिका-भारत के प्रगाढ़ होते संबंध इस बात का उदाहरण है कि पिछली सदी के खेल को फिर से दोहराने की भारत की स्वाभाविक प्रवृत्ति तेजी से विफल हो रही है. यह कि भारत प्राकृतिक रणनीतिक गंभीरता के विरुद्ध इतना कड़ा प्रतिरोध करता है, उसकी विदेश नीति योजना पर सवाल खड़े किए बिना नहीं रह सकता.

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), नई दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. उनका एक्स हैंडल @RRajagopalanJNU है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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