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Monday, 6 May, 2024
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G20 के बाद ग्लोबल साउथ का नेता नहीं बनने वाला भारत, न ही नए शीत युद्ध को रोक सकता

नई दिल्ली द्वारा जी20 की अध्यक्षता को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना दर्शाता है कि इसकी सीमाओं को नहीं समझा जा रहा है. यदि भारत के नेता उन सभी बयानबाजी पर विश्वास करते हैं जो वे कर रहे हैं, तो यह खतरनाक हो सकता है.

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भारत एक भव्य शिखर सम्मेलन के साथ जी20 की अध्यक्षता में भारी निवेश कर रहा है. उम्मीद की जा सकती है कि इससे देश को कुछ राजनीतिक लाभ होगा. लेकिन इस बात की अधिक संभावना है कि इस निवेश से रिटर्न बहुत कम मिलेगा. दरअसल, यह कहना पूरी तरह से गलत नहीं होगा कि रिटर्न एकदम शून्य होगा.

और इसका शिखर सम्मेलन से अनुपस्थित दो प्रमुख लोगों से कोई लेना-देना नहीं है. यह समझ में आता है कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन पर रूस के पूरी तरह से अनुचित और मूर्खतापूर्ण आक्रमण के कारण होने वाली कठिनाइयों और इससे उन पर आने वाली संभावित घरेलू परेशानियों की वजह से शिखर सम्मेलन में भाग लेने से इनकार कर दिया है. किसी भी स्थिति में यूक्रेन में युद्ध अपराधों के लिए अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय द्वारा जारी गिरफ्तारी वारंट पर विचार करते हुए उनकी उपस्थिति नई दिल्ली को असहज कर देती, भले ही भारत आईसीसी का सदस्य नहीं है.

नई दिल्ली में शिखर सम्मेलन में भाग न लेने का शी जिनपिंग का निर्णय अधिक आश्चर्यजनक है क्योंकि यह पहला G20 शिखर सम्मेलन है जिसमें चीनी नेता नहीं दिखेंगे. यह जी20 के भीतर चीन के अलगाव से जुड़ा हो सकता है और इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि यह द्विपक्षीय संबंधों और सीमा पर जारी संकट के संबंध में भारत को एक जानबूझकर दिया गया संकेत है.

फिर भी, उपस्थिति वह मानदंड नहीं है जिसके आधार पर भारतीय प्रयास को आंका जाना चाहिए. पार्टी का उद्देश्य इस बात से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है कि इसमें कौन शामिल होता है. ऐसा प्रतीत होता है कि तथाकथित ग्लोबल साउथ के नेतृत्व को दांव पर लगाया जा रहा है. एक रणनीतिक कदम के रूप में, यह समझ में आ सकता है और इसके कुछ लाभ भी हो सकते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि भारत और चीन ग्लोबल साउथ के नेतृत्व के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं. जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लिखा है, जी20 को “विकासशील देशों की हाशिये पर पड़ी आकांक्षाओं को मुख्यधारा में लाने” के तरीके के रूप में तैयार करना, भारतीय आकांक्षा को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करता है. यह विकासशील दुनिया में चीन के प्रयासों को कमजोर करता है और बीजिंग को अधिक मेहनत करने के लिए मजबूर करता है.


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असली पश्चिम विरोध

हालांकि, भारत वास्तव में चीन की बराबरी नहीं कर सकता, न तो उन संसाधनों के मामले में जो वह ग्लोबल साउथ को दे सकता है या पश्चिम के खिलाफ एक चैंपियन के रूप में प्रतिस्पर्धा करने के मामले में. चीन की बहुत बड़ी अर्थव्यवस्था, भारत से पांच गुना या उससे भी अधिक है, जो उसे इस तरह के कार्यों में कहीं अधिक धन खर्च करने की अनुमति देती है. भारत की डिलीवरी में जरूर सुधार हुआ है, फिर भी यह बुनियादी ढांचे के निर्माण जैसे क्षेत्रों में चीन से बराबरी नहीं कर सकता है. ग्लोबल साउथ की चिंताओं को व्यक्त करना अंततः इस बात से कम मायने रखेगा कि ग्लोबल साउथ को भुगतान कौन कर सकता है.

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इसी तरह, जबकि भारत ग्लोबल साउथ का पक्ष लेने के लिए कुछ अस्पष्ट पश्चिम विरोधी नारे लगा सकता है, लेकिन यह चीन की बयानबाजी की प्रामाणिकता से मेल नहीं खा सकता है. चीन ठोस और प्रामाणिक रूप से पश्चिम विरोधी है क्योंकि वह अमेरिकी सत्ता और पश्चिमी उदार व्यवस्था को उखाड़ फेंकना चाहता है. बेशक, ऐसा करने के उसके अपने कारण हैं लेकिन उसके इरादे स्पष्ट हैं और उसके हित स्पष्ट हैं. इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय नेतृत्व और उसके उत्साही समर्थक अमेरिका, पश्चिम और उदारवाद की कुछ आलोचनाओं में भागीदार हैं. दुर्भाग्य से, भारत को भी पश्चिम की जरूरत है.

बहुध्रुवीयता के बारे में सभी बयानबाजी के बावजूद, भारतीय नेता जानते हैं कि भारत आज दो प्राथमिक वैश्विक शक्तियों चीन या अमेरिका के बराबर नहीं है. भारत इस स्पष्ट कारण से अमेरिका और उसके सहयोगियों के और अधिक करीब हो गया है कि यदि एलएसी पर धक्का-मुक्की गोलीबारी में बदल जाती है, तो नई दिल्ली को उनके समर्थन की आवश्यकता होगी. अमेरिकी साझेदारी को बनाए रखने की आवश्यकता का मतलब है कि भारत का पश्चिम-विरोधी विरोध, खासकर चीन की तुलना में, पाखंड ही लगेगा.

जी20 शिखर सम्मेलन का अन्य घोषित उद्देश्य, ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य‘ को बढ़ावा देना और भी अधिक संदिग्ध है. यह बात जवाहरलाल नेहरू के मूल ‘एक विश्व‘ सपने की याद दिलाती है. जब नेहरू ने इसका प्रस्ताव रखा था, तब शीत युद्ध शुरू ही हुआ था और 1950 के दशक में यह तीव्र होता गया. अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक जमीनी हकीकतों को समझने में उनकी विफलता ने इस प्रयास को अव्यावहारिक बना दिया.

जैसा कि तब था, आज की दुनिया ऐसी है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय तनाव और संघर्ष बढ़ रहा है. एक नया शीत युद्ध शुरू हो गया है, जिसने अमेरिका और उसके सहयोगियों और साझेदारों को चीन और रूस के खिलाफ खड़ा कर दिया है. यूक्रेन पर रूसी आक्रमण ने इसे और तेज़ कर दिया है लेकिन इससे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने पड़ोसियों पर चीन का लगातार दबाव भी बढ़ गया है. नए शीत युद्ध के खिलाफ चीन की चेतावनियां उस स्थिति का एक प्रमाण है जिसका दुनिया सामना कर रही है. यदि जी20 संयुक्त बयान के बिना समाप्त हो जाता है, जैसा कि संभावित लग रहा है, तो यह एक तरफ पश्चिम और दूसरी तरफ रूस और चीन के बीच बढ़ते टकराव का एक और सबूत होगा.


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नया शीत युद्ध

यदि नेहरू का ‘वन वर्ल्ड’ प्रयास अव्यावहारिक लगता था, तो वर्तमान प्रयास और भी बदतर हो सकता है क्योंकि कम से कम नेहरू का भारत शीत युद्ध में फ्रंटलाइन स्टेट नहीं था, जो दो नायकों में से एक के साथ सीमा साझा करता था. वह अब भी ‘गुटनिरपेक्ष’ भूमिका निभाने की उम्मीद कर सकते थे क्योंकि वह संघर्ष में कोई पक्ष नहीं था. आज, भारत एक इच्छुक पक्ष है क्योंकि न केवल इसकी सीमा चीन के साथ लगती है, बल्कि यह एक सक्रिय, निरंतर विवाद वाली गर्म सीमा है. चीन-भारत सीमा लड़ाई को व्यापक शीत युद्ध से अलग करने का कोई तरीका नहीं है क्योंकि भारत और अमेरिका चीन के खिलाफ भागीदार हैं.

जी20 जैसे बहुपक्षीय प्रयास पूरी तरह बेकार नहीं हैं. लेकिन उनकी सीमाएं भी समझी जानी चाहिए. यह भारत को ग्लोबल साउथ का नेतृत्व नहीं देने जा रहा है क्योंकि नई दिल्ली के पास चीन से प्रतिस्पर्धा करने के लिए संसाधन नहीं हैं. यह किसी नए शीत युद्ध को भी नहीं रोक पाएगा. जी20 की नियमित, चक्रीय (रोटेशनल) अध्यक्षता के बारे में नई दिल्ली की अतिशयोक्ति से पता चलता है कि इन सीमाओं को समझा नहीं जा रहा है. यदि भारत के नेता वास्तव में उन सभी बयानबाजी पर विश्वास करते हैं जो वे कर रहे हैं, तो यह खतरनाक हो सकता है.

नेहरू ने सोचा कि शीत युद्ध में दोनों पक्षों के लिए भारत का महत्व सुरक्षा की गारंटी देता है. उन्होंने सोचा कि भारत पर कोई भी हमला विश्व युद्ध का कारण बनेगा. भारत की लोकप्रियता, महत्व और अपरिहार्यता के बारे में ऐसी गलत धारणा अति आत्मविश्वास और उसके बाद की आपदा का एक नुस्खा थी. ऐसा नहीं लगता कि बीच के कई दशकों ने भारत को अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक वास्तविकताओं पर आधारित विदेश नीति की आवश्यकता के बारे में कोई सबक सिखाया है.

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), नई दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. उनका एक्स हैंडल है @RRajagopalanJNU. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(संपादन: कृष्ण मुरारी)


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