सन 1975 में सिक्किम भारत नामक संघ का 22वां राज्य बना. दरअसल, उस साल बसंत ऋतु की तीन तारीखें यादगार बन गईं. पहली तारीख है 16 मई जब 36वां संविधान संशोधन पारित हुआ था. इसके तहत अनुच्छेद 1 की अनुसूची, जो राज्यों के संघ को परिभाषित करती है उसमें परिवर्तन किया गया और अनुच्छेद 371-एफ लागू किया गया जिसने सिक्किम को विशेष सुविधाएं उपलब्ध कराईं. दूसरी यादगार तारीख है 26 अप्रैल, जिस तारीख से इस अनुच्छेद को लागू माना गया. तीसरी यादगार तारीख है 14 अप्रैल, जिस दिन जनमत संग्रह किया गया था और सिक्किम ने विशाल बहुमत से चोग्याल की राजशाही के तहत स्थापित धार्मिक सामंतवाद को छोड़ भारत के लोकतांत्रिक गणतंत्र में विलय करने का फैसला किया था.
इसके बाद के पांच दशकों में सिक्किम अपनी कामयाबी की कहानी को आगे बढ़ाता रहा है. 2023-24 में यह गोवा को पीछे छोड़, प्रति व्यक्ति सबसे ज्यादा जीडीपी वाला राज्य बन गया. 2024-25 में इसकी प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 7.07 लाख रुपये थी, जबकि अखिल भारतीय औसत 2.4 लाख रुपये का था. 29 मई को सिलीगुड़ी हवाई अड्डे से वीडियो के जरिए गंगटोक में विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने (उनका दौरा खराब मौसम के कारण अंतिम समय में रद्द करना पड़ा था) सिक्किम की जनता को देश का ‘नंबर वन’ राज्य बनने के लिए बधाई दी और भरोसा जताया कि यह राज्य देश में खेलों, पर्यटन, डॉक्टरी की पढ़ाई, जलविद्युत और ऑर्गेनिक खेती का केंद्र बनेगा.
लेकिन, दो सीरीज़ वाला यह लेख इस राज्य की शानदार उपलब्धियों के बारे में नहीं बल्कि हिमालय की इस ज़मीन के निर्माण से जुड़े नैरेटिव के बारे में है. इनमें ये किताबें शामिल हैं: सुनंदा के. दत्ता-रे की ‘स्मैश ऐंड ग्रैब : एनेक्सेशन ऑफ सिक्किम’; ब्रजबीर शरण दास की ‘सिक्किम सागा’, एंड्रीयू डफ की ‘रिक्वायम फॉर अ हिमालयन किंग्डम’, जी.बी.एस. सिद्धू की ‘सिक्किम : डॉन ऑफ डेमोक्रेसी’, प्रीत मोहन सिंह मलिक की ‘सिक्किम : अ हिस्टरी ऑफ इंट्रीग्यू एंड एलायंसेज’. संयोग से इन पांच किताबों के लेखकों ने सिक्किम को बाहर से देखा. दत्ता-रे ‘स्टेट्समैन’ अखबार के संपादक थे और चोग्याल के करीबी दोस्त थे, जिन्हें उन्होंने अपनी यह किताब समर्पित की है. दास एक सरकारी अधिकारी थे जिन्होंने वहां हुए बदलावों को करीब से देखा था. डफ एक स्कॉट नागरिक थे, जो अपने दादा के पदचिन्हों पर चलते हुए इस रमणीय स्थान पर आए और महल तक पहुंच रखने वाली अपनी ‘मिशनरी आंटियों’ के पत्रों के आधार पर किताब लिखी. सिद्धू ने वहां ‘रॉ’ के ऑपरेशनों की अगुआई की थी और मलिक विदेश सेवा अधिकारी थे जिन्हें 1960 के दशक में वहां तैनात किया गया था.
उक्त पांच किताबें बाहरी लोगों का नज़रिया है, लेकिन केवल छठी किताब राज्य के मूल निवासी बिराज अधिकारी द्वारा लिखी गई है. ‘सिक्किम : द वूंड्स ऑफ हिस्टरी’ के लेखक बिराज राज्य के राजनीतिक कार्यकर्ता रहे हैं. यह किताब बताती है कि एक किशोर लड़के ने किस तरह एक नया राष्ट्रगान सीखा और बचपन में किस तरह एक नए झंडे को सलाम करना सीखा.
जैसा कि अक्सर कहा जाता है, इतिहासकार देवता से भी ज्यादा ताकतवर होता है क्योंकि वह अतीत की भी नई कल्पना पेश कर सकता है. गौर करने वाली बात यह है कि ये सभी छह नैरेटिव जनसंख्या के बदलते स्वरूप; प्रतिनिधित्व न करने वाली संस्थाओं; नेहरू की सीमांत नीति पर वेरियर एल्विन के प्रभाव; भूमि के सामंती स्वामित्व; नेपाल और भूटान की ओर सिक्किम के हाथ बढ़ाने; तीन हठी महिलाओं की भूमिका जैसे तथ्यों को कबूल करते हैं. ये महिलाएं थीं — चोग्याल की शाही ग्यालमो (संगिनी) होप कूक, लोकप्रिय नेता लेंडप दोरजी की अति-महत्वाकांक्षी पत्नी काजिनी एलिसा मारिया दोरजी जिन्हें ग्यालमो ने अपमानित किया था, पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक जंग में उन्हें पराजित करने वाली इंदिरा गांधी. इन सबका व्यक्तित्व और उनकी महत्वाकांक्षाएं इस बदलाव से जुड़ी थीं. अलग-अलग लेखकों ने इन सबके बारे में अपना-अपना जो नज़रिया पेश किया है उन पर कुछ कहने से पहले मैं इन सभी तथ्यों के बारे में संक्षेप में चर्चा करूंगा.
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जनसंख्या का महत्व
सबसे पहले यह याद करना ज़रूरी है कि किसी भी राजनीतिक सत्ता की तरह सिक्किम के लिए भी जनसंख्या ही उसकी नियति है.
19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में बौद्ध मठों के सत्तातंत्र ने नेपालों मजदूरों को खेती करने के लिए बुलाया ताकि बौद्ध संन्यासियों को नियमित रूप से अनाज वगैरह मिलते रहें. नेपाली परिवारों की संख्या बढ़ती गई, जबकि भूटिया और लेपचा आबादी की प्रजनन दरों में गिरावट आती गई. भारत की आज़ादी के समय, 1947 में तो सिक्किम की कुल आबादी में नेपालियों का अनुपात 60 फीसदी पर पहुंच गया था.
उनकी स्थिति का सही विवरण 1947 में सिक्किम कांग्रेस के प्रमुख ताशी त्शेरिंग के इन शब्दों में पाया जा सकता है : “सिक्किम हिमालय के एक कोने में पड़ा भारत का एक छोटा-सा राज्य है. इसके शासक सर ताशी नामग्याल, केसीएसआई, केसीआईइ और उनके निजी सहायक काज़ी तिब्बती मूल के हैं, जो सिक्किम में मौजूद जमींदारों में बहुसंख्या में हैं. महामहिम की एक परिषद है जिसमें जमींदार भरे हैं और एक सचिवालय है जो जमींदारों की मुट्ठी में है. शासन में प्रजा, या किसानों की कोई आवाज़ नहीं है और वह जमींदारी प्रथा के दबाव में कराहते रहते हैं.”
1953 में हुए सुधारों के तहत सभी को मताधिकार दिया गया, लेकिन राज्य विधानसभा की 18 में से केवल छह सीटें नेपाली मूल के लोगों के लिए निश्चित की गईं. छह सीटें लेपचा-भूटिया समुदायों के लिए भी निर्धारित की गईं और बाकी बचीं छह सीटें चोग्याल द्वारा नामजद उम्मीदवारों के लिए रखी गईं.
गौरतलब है कि आज़ादी के बाद सरदार पटेल और संवैधानिक सलाहकार बी.एन. राऊ ने सिक्किम के भारत में विलय की बात आगे बढ़ाई. उस समय चोग्याल ‘चैंबर ऑफ प्रिंसेज़’ के उपाध्यक्ष थे.
नेहरू ने वेरियर एल्विन की सीमांत नीति के प्रभाव में पटेल और राऊ की बात नहीं मानी और इस मामले को विदेश मंत्रालय के हवाले कर दिया. इसके कारण सिक्किम और दुनिया के दूसरे हिस्सों के कई लोगों में यह धारणा बनी सिक्किम का दर्जा भारत में विलय करने वाले 562 सूबों से अलग है.
नेहरू देश में सभी जगह भूमि सुधारों को लागू करने का समर्थन कर रहे थे, लेकिन सिक्किम के काश्तकार अधिकारों से वंचित रहे. 1962 की लड़ाई के बाद भारत को एहसास हुआ कि उसकी सीमाएं कितनी असुरक्षित हैं, चुंबी घाटी का कितना रणनीतिक महत्व है और सिलीगुड़ी में जो ‘चिकेन्स नेक’ नामक गलियारा है वह कितना कमजोर है.
इस बीच चोग्याल और अमेरिकी महिला होप कूक के बीच जो धुआंधार रोमांस चल रहा था उसने उन्हें प्रभावशाली अमेरिकी पत्रिका ‘लाइफ’ के पन्नों पर सुशोभित करवा दिया. कूक मीडिया में हुए प्रचार से इतनी मोहित हो गईं कि उन्होंने अपने पति के सूबे (जो कि एक रियासत से बड़ा था) की ज़मीनी हकीकत की अनदेखी कर दी, काजिनी से लड़ पड़ीं और यह मान बैठीं कि एक रानी होने के नाते ‘प्रोटोकॉल’ के तहत उनका दर्जा लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित काफी शक्तिशाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी ऊंचा है.
अलग-अलग नैरेटिव
सबसे पहले ‘स्मैश ऐंड ग्रैब : एनेक्सेशन ऑफ सिक्किम’ की बात करें. ‘जुंगख्यांग’ (चोग्याल के लिए इस्तेमाल किए गए सम्मानसूचक शब्द) को समर्पित इस किताब में दत्ता-रे ने किरदारों का जटिल खाका प्रस्तुत किया है. इसमें दयालु व भरोसेमंद राजा के रूप में चोग्याल हैं, उनकी मनमोहिनी पत्नी होप कूक हैं, दलीय नेता काज़ी लेंदुप दोरजी हैं, उनकी महत्वाकांक्षी पत्नी काजिनी एलिसा मारिया हैं, उधेड़बुन में रहने वाले राजनीतिक अधिकारी जी.बी.एस. सिद्धू हैं और इरादों की पक्की व बेरहम रणनीतिज्ञ इंदिरा गांधी हैं.
यह किताब इस क्षेत्र में ब्रिटिश झड़पों, नेपालियों के आगमन, नेहरू के दुविधावादी दौर, चीन के साथ बढ़ते भू-राजनीतिक तनावों, महल के बाहर राजशाही विरोधी प्रदर्शनों से लेकर उस जनमत संग्रह तक के जरिए पूरे घटनाक्रम की ऐतिहासिकता में पैठने की कोशिश करती है जिस जनमत संग्रह ने 333 साल (1642-1975) पुराने नामग्याल राजवंश की किस्मत को अधिकृत रूप से पलट दिया. 1984 में विकास प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस किताब के लेखक और प्रकाशक के खिलाफ काज़ी और काजिनी द्वारा दायर मानहानि के मुकदमे के कारण इसका प्रसार काफी सीमित रहा. मुझे इसकी एक प्रति कलिमपोंग में दिखी थी, जब मुझे 1986 के गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट की आंदोलन के चरम दौर के दौरान वहां तैनात किया गया था.
ज़ाहिर है, इस किताब में घटनाओं का जो विवरण दिया गया है वह ‘उधेड़बुन में रहे अफसर’ जी.बी.एस. सिद्धू की किताब ‘सिक्किम : डॉन ऑफ डेमोक्रेसी’ में लिखे गए विवरण से भिन्न है. इसके बारे में चर्चा इस लेख की अगले लेख में करेंगे.
(भारत में सिक्किम के विलय पर लिखे गए कॉलम की सीरीज़ का यह पहला लेख है)
(संजीव चोपड़ा एक पूर्व आईएएस अधिकारी और वैली ऑफ वर्ड्स के महोत्सव निदेशक हैं. हाल तक, वह लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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