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Saturday, 4 May, 2024
होममत-विमतआखिरकार बंगाली मुसलमान ममता की तुष्टिकरण की राजनीति का विरोध करने लगे हैं

आखिरकार बंगाली मुसलमान ममता की तुष्टिकरण की राजनीति का विरोध करने लगे हैं

शायद अब ममता बनर्जी जैसे राजनीतिज्ञ भी मुसलमानों को दुधारू गाय से अधिक, मनुष्यों के रूप में देखना सीख जाएं.

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ममता बनर्जी मानती हैं कि मुस्लिम तुष्टिकरण से उन्हें वोट हासिल होंगे. उन्होंने शायद कल्पना भी नहीं की होगी कि एक दिन खुद मुस्लिम समुदाय के भीतर से इस तरह की नीति के खिलाफ विरोध के स्वर उठेंगे.

कोलकाता के 50 मुस्लिम निवासियों ने खासतौर पर हाल की दो घटनाओं को लेकर मुख्यमंत्री बनर्जी को पत्र लिखा है. पहला मामला नीलरतन सरकार मेडिकल कॉलेज में जूनियर डॉक्टरों के साथ मारपीट का है और दूसरा पूर्व मिस इंडिया उशोशी सेनगुप्ता पर कोलकाता में हुए हमले का है.

दोनों ही घटनाओं में हमलावर मुसलमान थे. पत्र में मुख्यमंत्री से आग्रह किया गया है कि हमलावरों की एक खास सांप्रदायिक पहचान होने के कारण वह चुप नहीं बैठें.

भुगतते हैं खामियाज़ा

चुनावी फायदे के लिए, अल्पसंख्यकों की नज़र में अच्छा दिखने की राजनीतिक नेताओं की चाहत कोई नई बात नहीं है. हालांकि, आम मुसलमानों का इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ता है. ज़ाहिर तौर पर उनके धर्म के कारण उन्हें इस तरह के आरोप झेलने पड़ते हैं, कि अपराध करने के बावजूद उन्हें छोड़ दिया जाता है या पर्याप्त योग्यता नहीं होने के बावजूद उन्हें अवसर दिए जाते हैं.

चूंकि गुस्सा उतारने के लिए मुस्लिम तुष्टिकरण करने वाले नेता हाथ नहीं आ सकते. ऐसे में कुछ अतिवादी हिंदू निर्दोष मुसलमानों को पीट-पीटकर मारने तक के कदम उठा रहे हैं.

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सच तो ये है कि, इस पुनरुत्थानशील हिंदुत्व और जहरीले इस्लामोफोबिया की जिम्मेदारी सीधे-सीधे नेताओं पर डाली जानी चाहिए. खासकर हिंदू नेताओं और अल्पसंख्य तुष्टिकरण की उनकी नीति पर.

कई वर्ष पहले जब मुझे बिना किसी अपराध के बंगाल से खदेड़ा गया था, तो ऐसा सिर्फ राज्य के आगामी पंचायती चुनावों में मुस्लिम वोट सुनिश्चत करने के खातिर किया गया था.

तब यह प्रगतिशील मुस्लिम सिविल सोसायटी कहां थी?


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खतरनाक तुष्टिकरण

यह सुनिश्चित करना बहुसंख्यकों की जिम्मेदारी है कि अल्पसंख्यक सुरक्षित और निरापद महसूस करें.

हां, ऐसा किया जाना महत्वपूर्ण है. पर जो ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि अल्पसंख्यकों को अपने अपराधों के परिणाम कभी नहीं भुगतने पड़े. वे गलत हैं. उदाहरण के लिए, आप पश्चिम बंगाल को देख सकते हैं.

यदि इसके खिलाफ मुस्लिम नागरिकों ने बहुत पहले आवाज़ उठाना शुरू कर दिया होता तो शायद नेता कहीं अधिक सावधान हो पाते और इस्लामोफोबिया इतना उग्र नहीं होता.

अब, सवाल ये है कि क्या इन जागरूक मुसलमानों को 2011 से ही ममता बनर्जी के सतत अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के रवैये की जानकारी नहीं थी? वह अपनी मुस्लिम जनता को ‘दुधारू गाय’ मानती हैं. वह सरेआम कह चुकी हैं कि वह इस लाभप्रद गाय को दंडित नहीं करेंगी.

तो क्या जागरूक लोगों के इस समूह ने 2019 लोकसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद उनकी नीतियों की आलोचना करने का फैसला किया है? क्योंकि मुस्लिम तुष्टिकरण अब उल्टा भी पड़ सकता है. इन लोगों को निश्चय ही इमामों को 2,500 से 30,000 रुपये मासिक भत्ते के रूप में देने के ममता बनर्जी के पूर्व के संकल्प की जानकारी रही होगी. उन्होंने इमामों को घर बनाने के लिए ज़मीन देने का भी वादा किया था. मुख्यमंत्री ने पुजारियों के लिए या अन्य समुदायों के धार्मिक प्रतिनिधियों के लिए ऐसी कोई घोषणा नहीं की थी. दीर्घकाल में ऐसी घोषणाओं ने मुसलमानों का भले से ज़्यादा बुरा ही किया है.

जब, हिंदू होने के बाद भी ममता बनर्जी किसी मुसलमान की तरह प्रार्थना कर रही थीं. इन खुले दिमाग वाले प्रगतिशील मुसलमानों में से एक भी ये कहने के लिए सामने नहीं आया कि ‘नहीं, आपको हमारे वोटों के लिए मुसलमान होने का ढोंग करने की ज़रूरत नहीं है. आप अपने खुद के धर्म पर चलें और राज्य के सभी नागरिकों को एक समान मानते हुए सबके भले के लिए काम करें. हमारे साथ आप वैसा ही व्यवहार करें जैसा राज्य की शेष जनता के साथ करती हैं.’

क्या इस प्रबुद्ध वर्ग ने कभी उन कश्मीरी पंडितों के हाल को लेकर विरोध प्रदर्शन किया है. जो मुसलमानों द्वारा घाटी से खदेड़े गए हैं? मैंने देखा है कि ये बंगाली मुसलमान सिर्फ तभी आंसू बहाते हैं, जब उनको गैर-मुसलमानों के हाथों मुसलमानों के उत्पीड़न की जानकारी मिलती है. जब आईएसआईएस , बोको हराम, अल-शबाब जैसे इस्लामी आतंकवादी संगठन मुसलमानों का कत्ल करते हैं, जब सऊदी अरब के धनी मुसलमान गरीब कामकाज़ी वर्ग के मुसलमानों पर अत्याचार करते हैं. तब इन सजग प्रगतिशील मुस्लिम नागरिकों को विरोध प्रदर्शन की ज़रूरत नहीं महसूस होती है.


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आशाजनक संकेत

टीपू सुल्तान मस्जिद के इमाम बरकती ने कोलकाता के बीचोंबीच धरमतल्ला में एक सार्वजनिक सभा में सरेआम मेरे खिलाफ फतवा जारी किया था. उसने मेरे सिर की कीमत रखी थी.उसके लिए जो कि मेरी हत्या कर सकता हो. तब उस सभा में कई पुलिस अधिकारी भी मौजूद थे, पर इमाम को गिरफ्तार करना तो दूर, किसी ने उससे ये तक नहीं पूछा कि उसने ऐसी घोषणा क्यों की, जोकि स्पष्टत देश के कानून के खिलाफ थी.

बजाय इसके, मुझे याद है कि पुलिस ने उसे सुरक्षा प्रदान की थी और तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और उनके मंत्रियों ने उस पर कृपा बरसाए थे. सच कहें तो, नेताओं ने आम मुसलमानों के तुष्टिकरण का काम कभी नहीं किया है. उन्होंने अक्सर महिला-विरोधी, आधुनिकता-विरोधी, अशिष्ट, अशिक्षित और असभ्य कट्टरपंथी मुसलमानों का ही साथ दिया है, ऐसे लोग जो हमेशा मानवाधिकारों के खिलाफ रहते हों.

हालांकि, उनकी आदतन चुप्पी के बावजूद, ये एक आशाजनक संकेत है कि बंगाल के मुस्लिम समुदाय का एक वर्ग, छोटा ही सही, तुष्टिकरण की इस नीति को जारी रहते नहीं देखना चाहता है. बेशक, कुछेक दुष्ट तत्वों के व्यवहार के लिए किसी समुदाय के प्रत्येक सदस्य को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. फिर भी, अपने समुदाय को शिक्षित और जागरूक बनाने और उन्हें धार्मिक पहचान से ऊपर उठकर सिर्फ अपनी उपलब्धियों पर फोकस करने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से यदि कुछ लोग इसकी जिम्मेदारी उठाने के लिए सामने आते हैं. तो इसमें बेहतरी की एक उम्मीद नज़र आती है. और फिर शायद राजनीतिक नेता भी मुसलमानों को दुधारू गाय से अधिक मानना सीख जाएंगे. वे उन्हें मनुष्यों के रूप में देख पाएंगे.

(लेखिका एक साहित्यकार और टिप्पणीकार हैं. प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)

(इस खबर को पढ़ने के लिए यहां क्ल्कि करें)

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