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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतक्या 'अपराधियों' को टिकट देने और वोटर्स को फ्री में रेवड़िया बांटने वाले दलों की मान्यता रद्द होनी चाहिए

क्या ‘अपराधियों’ को टिकट देने और वोटर्स को फ्री में रेवड़िया बांटने वाले दलों की मान्यता रद्द होनी चाहिए

चुनावों में लोकतांत्रिक मूल्यों और न्यायिक व्यवस्थाओं की अनदेखी करने और अपराधियों को टिकट देने और चुनाव के दौरान मतदाताओं को रेवड़ियां देने के वादे से फिर उठी मांग.

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चुनावों में आपराधिक छवि वाले व्यक्तियों की जानकारी सार्वजनिक करने में कोताही और अब मतदाताओं को मुफ्त की रेवड़ियां देने के राजनीतिक दलों के वादे करने वाले दलों की मान्यता/पंजीकरण खत्म करने का मामला एक बार फिर शीर्ष अदालत पहुंच गया है.

लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दौरान जाति, धर्म या वर्ण आदि के आधार पर नफरती भाषण करने, हड़ताल जैसे आंदोलन में हिंसा का रास्ता अपनाने वाले राजनीतिक दलों की मान्यता खत्म करने का मसला पिछले दो दशकों से न्यायपालिका के सामने आ रहा है. लेकिन सरकार और राजनीतिक दलों के उदासीन रवैये की वजह से इस बारे में कोई कानून नहीं बन सका है.

भाजपा के नेता ने दायर की है याचिक

उच्चतम न्यायालय ने मतदाताओं को मुफ्त की रेवड़ियां देने का वादा करने वाले राजनीतिक दलों की मान्यता/पंजीकरण खत्म करने के लिए दायर नई जनहित याचिका पर केन्द्र और निर्वाचन आयोग से जवाब मांगा है. यह याचिका भाजपा नेता और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दायर की है.

उपाध्याय चाहते हैं कि न्यायालय निर्वाचन आयोग को निर्देश दे कि वह इन दलों से पूछे कि उसने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशी को उम्मीदवार क्यों बनाया और साफ सुथरी छवि वालों को मौका क्यों नहीं दिया?

उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर चुनाव में भाजपा, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस सहित अधिकांश राजनीतिक दलों ने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को उम्मीदवार बनाया है. अब तकरार हो रही है कि किस पार्टी के कितने प्रत्याशियों की आपराधिक पृष्ठभूमि है और किसके खिलाफ ज्यादा मामले दर्ज हैं.

बहरहाल, प्रधान न्यायाधीश एनवी रमन्ना की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने राजनीतिक दलों में बढ़ रही इस प्रवृत्ति को बहुत ही गंभीर बताते हुए केंद्र और निर्वाचन आयोग से इस पर जवाब मांगा है.


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लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर पड़ता है असर

राजनीतिक दल भली भांति जानते हैं कि चुनाव घोषणा पत्रों में मतदाताओं से किये गये वादे जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण नहीं हैं, इसलिए वे बेखौफ बड़े बड़े वादे करते हैं. लेकिन इस तथ्य को कैसे नकारा जा सकता है कि राजनीतिक दलों और इनके नेताओं का सत्ता पाने के लिए मतदाताओं को मुफ्त में रेवड़ियां देने का वादा लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ही नहीं बल्कि समाज के सभी वर्गों को प्रभावित कर रहा है.

लेकिन चिंता का सबब यह है कि शायद ही किसी राजनीतिक दल या उनके नेताओं ने इस पहलू का आकलन किया है कि अगर मतदाताओं, विशेषकर महिलाओं और युवाओं, को अगर हर महीने नकद भत्ता दिया जाए तो उस पर कितना खर्च आएगा और इसकी व्यवस्था कैसे की जाएगी? क्या किसी भी राज्य का बजट इस तरह के आर्थिक वादों का भार सहन करने की स्थिति में है?

यही वजह है कि राजनीतिक दलों के आचरण का मामला बार बार शीर्ष अदालत पहुंच रहा है और अब मुफ्त रेवड़ियां बांटने और न्यायिक व्यवस्थाओं की अनदेखी करने वाले दलों की मान्यता/पंजीकरण खत्म करने की मांग होने लगी है.

इससे पहले, नवंबर, 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान न्यायालय के निर्देशों का पालन नहीं करने वाले राजनीतिक दलों के खिलाफ अवमानना कार्रवाई के रूप में यह मामला शीर्ष अदालत पहुंचा था.

इस याचिका में भी राजनीतिक दलों पर आरोप लगा था कि उन्होंने Public Interest Foundation & Ors.VS Union of India प्रकरण में शीर्ष अदालत के 25 सितंबर, 2018 में दिए गए निर्देशों और फिर फरवरी, 2020 के आदेश का उल्लंन किया है.

वेबसाइट पर आपराधिक प्रवृत्ति वाले अपराधियों का ब्यौरा देना जरूरी

न्यायालय ने फरवरी, 2020 में अपने आदेश में कहा था कि राजनीतिक दलों को अपनी अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर अपने प्रत्याशियों के आपराधिक मामलों का विवरण प्रकाशित करना ही होगा.

यह मामला चुनाव में मतदाताओं को राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि की जानकारी उपलब्ध कराने के लिए समाचार पत्रों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर प्रचार से संबंधित था.

बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी, जनता दल (यू), राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के 40 प्रत्याशियों ने शीर्ष अदालत के 13 फरवरी, 2020 के आदेशों का उल्लंघन किया था.

शीर्ष अदालत के न्यायमूर्ति आरएफ नरिमन और बीआर गवई की पीठ ने राजनीतिक दलों के इस आचरण को गंभीरता से लिया और 10 अगस्त, 2021 को BRAJESH SINGH VS SUNIL ARORA & ORS में प्रकरण में 70 पेज का फैसला सुनाया.

इस फैसले में न्यायालय ने Rambabu Singh Thakur v. Sunil Arora प्रकरण में 13 फरवरी, 2020 दिये गए आदेश में संशोधन किया था. न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि चुनाव के लिए चयनित प्रत्याशी का विवरण नामांकन पत्र दाखिल करने से दो सप्ताह पहले नहीं बल्कि उसके नाम का चयन होने के 48 घंटे के भीतर प्रकाशित करना होगा.

अदालत ने लगाया था जुर्माना

न्यायालय ने बिहार विधानसभा चुनाव मे शीर्ष अदालत के निर्देशों का पालन करने में विफल रहने वाले आठ राजनीतिक दलों पर एक लाख रुपए से लेकर पांच लाख रुपए तक जुर्माना भी लगाया था.

शीर्ष अदालत ने यह भी कहा था कि अगर कोई राजनीतिक दल इस निर्देश के अनुपालन की रिपोर्ट निर्वाचन आयोग में पेश करने में विफल रहता है तो आयोग न्यायालय की अवमानना के रूप में इस मामले को न्यायालय के संज्ञान में लायेगा.

इसके बावजूद, अब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के मामले में भी कमोबेश ऐसा ही हुआ है. भाजपा नेता तथा अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने इसे लेकर उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की है.

राजनीतिक दलों की मान्यता/पंजीकरण खत्म करने के लिए दायर इस जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान S Subramaniam Balaji vs Government of Tamil Nadu & Ors प्रकरण में जुलाई 2013 के शीर्ष अदालत के फैसले का प्रमुखता से उल्लेख किया गया.

इस फैसले में न्यायालय ने मुफ्त रेवड़ियां बांटने के वादे की प्रवृत्ति को लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा बताया था और लोकतांत्रिक व्यवस्था में शामिल राजनीतिक दलों को नियंत्रित करने के संबंध में अलग से कानून बनाने का सुझाव भी दिया था. लेकिन अभी तक कोई कानून नहीं बना, शायद राजनीतिक दल न्यायालय के इस सुझाव को नजरअंदाज करने का प्रयास कर रहे हैं.

न्यायालय के 2013 के फैसले में निर्वाचन आयोग को निर्देश दिया गया था कि आदर्श आचार संहिता में एक अलग शीर्षक से राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों के संबंध में भी प्रावधान किया जाये. ऐसा किया गया लेकिन राजनीतिक दलों पर इसका कोई खास असर नहीं हुआ और अब चुनावी वादों की सूची में कर्ज माफी और दूसरी सुविधाओं के साथ महिलाओं और बेरोजगारों को प्रतिमाह नकद दैनिक भत्ता तक शामिल होने लगा है.

शीर्ष अदालत ने 25 जनवरी को मामले की सुनवाई के दौरान 2013 के फैसले में दिया गया सुझाव सामने आने पर टिप्पणी भी की कि जब इस संबंध में कोई कानून नहीं है तो फिर हम इसे कैसे नियंत्रित करें. हां, रेवड़ियां बांटने की प्रवृत्ति पर नियंत्रण पाने के उपायों पर एक कानूनी बहस हो सकती है.

मान्यता रद्द करने की बात पिछले दो दशक से चर्चा में

जहां तक राजनीतिक दलों की मान्यता/पंजीकरण खत्म करने का सवाल है तो यह मामला पिछले दो दशक से भी अधिक समय से चर्चा में आ रहा है. इस विषय पर शीर्ष अदालत ने दो फैसलों में विचार किया है लेकिन अभी तक इसका कोई तर्कसंगत समाधान नहीं निकल सका है.

इस समय जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 29ए के तहत निर्वाचन आयोग को राजनीतिक दलों का पंजीकरण करने का अधिकार प्राप्त है. लेकिन किसी भी दल का पंजीकरण खत्म करने का अधिकार उसके पास नहीं है.

राजनीतिक दलों द्वारा आयोजित हड़ताल के दौरान बल प्रयोग और जनता को डराने-धमकाने की प्रवृत्ति को संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करार देते हुए ऐसे दल की मान्यता समाप्त करने का मामला 2001 में शीर्ष अदालत में आया था.

न्यायमूर्ति वीएन खरे और न्यायमूर्ति अशोक भान ने 10 मई, 2002 को Indian National Congress (I) vs Institute Of Social Welfare मामले में राजनीतिक दलों का पंजीकरण खत्म करने के सवाल पर विचार किया था. न्यायालय का कहना था कि जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 29ए के तहत निर्वाचन आयोग को राजनीतिक दल का पंजीकरण करने का अधिकार है लेकिन उसे संविधान के प्रावधानों या लिखित आश्वासन का उल्लंघन करने पर राजनीतिक दल के पंजीकरण की समीक्षा का कोई अधिकार नहीं है.

परंतु इस संबंध में कुछ अपवाद भी हैं. न्यायालय ने कहा था कि अगर किसी राजनीतिक दल ने छल से पंजीकरण प्राप्त किया है या उसने धारा 29ए (5) के प्रावधानों का उल्लंघन किया हो तो निर्वाचन आयोग उसका पंजीकरण रद्द कर सकता है.

इसी तरह, चुनाव के दौरान जाति, धर्म, वर्ण या जन्म स्थान के आधार पर नफरत भरे भाषण देकर देश की एकता और अखंडता को कमतर करने से संबंधित मामले में भी राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द करने का मामला उठा था.

न्यायमूर्ति बीएस चौहान, न्यायमूर्ति एमवाई इकबाल और न्यायमूर्ति एके सीकरी की तीन सदस्यीय पीठ ने Pravasi Bhalai Sangathan vs U.O.I. & Ors मामले में 12 मार्च, 2014 को अपने फैसले में विधि आयोग से इस पहलू पर विचार करने का अनुरोध किया था.

उम्मीद है कि देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बुरी तरह प्रभावित कर रहे चुनाव में मतदाताओं को मुफ्त की रेवड़ियां देने के वादे और नफरत वाले भाषण जैसे मुद्दों के मद्देनजर शीर्ष अदालत ऐसे राजनीतिक दलों की मान्यता/पंजीकरण समाप्त करने के बारे में कोई सुविचारित और ठोस व्यवस्था देगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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