धरती पर अपनी अप्रतिम सुंदरता के लिए ख्यात दो नदी धाराओं रंगित और रोंगन्यू ने इस आशंका से सहमकर कि कहीं उनके बीच प्रेम वर्जित न हो जाए, तीस्ता खांगत्से ग्लेशियर के साये से बाहर निकलने का फैसला किया. और इस प्रेमी-प्रेमिका ने अपना मिलन स्थल तय करके मैदानी इलाकों का सफर शुरू कर दिया. लेपचा किवदंती के मुताबिक, प्रेमिका रोंगन्यू ने परिलबु सर्प को अपना मार्गदर्शक चुना और उसके पीछे एकदम सीधी राह पकड़कर कुछ ही समय में अपने मिलन स्थल तक पहुंच गई. वहीं, रंगित का मार्गदर्शक पर्वतीय पक्षी टफ्टो अविश्वसनीय साबित हुआ, जो कभी रंगीन फूल-पत्तों से भरे इलाके देखकर उधर का रुख कर लेता तो कभी कीट-पतंगों पर मोहित होकर किसी और ही दिशा में चल पड़ता. लंबा, घुमावदार रास्ता तय करके मिलन स्थल तक पहुंचते-पहुंचते प्रेमी रंगित का पारा चढ़ गया और उसने वापस लौटने की ही ठान ली. लेकिन अंतत: इन प्रेमियों के बीच सुलह हो गई और फिर कभी जुदा न होने के लिए दोनों एक हो गए.
हजारों सालों से अपने तट पर बसे लोगों के सुख-दुख की साथी रही यही तीस्ता नदी उन दो राष्ट्रों को बांटती भी है, जिनसे होकर वह बहती है.
इस हफ्ते, भारत यात्रा के दौरान बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद ने यह जाहिर करने में कोई गुरेज नहीं किया कि तीस्ता नदी जल बंटवारे पर समझौता करना उनकी कूटनीति का केंद्रबिंदु है. हसीना ने सार्वजनिक तौर पर अपनी टिप्पणी में भारत से इस लेकर जारी बातचीत में ‘अधिक उदारता दिखाने’ का आह्वान भी किया. असम से सिलहट तक चलने वाले कम-विवादित कुशियारा पर बांग्लादेश और भारत एक समझौते पर पहुंचने में सफल रहे, लेकिन तीस्ता पहुंच से बाहर रही।
नरेंद्र मोदी 2014 में प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद से ही शेख हसीना से वादा कर रहे हैं कि वह इस पर एक करार के लिए प्रतिबद्ध है. हालांकि, प्रधानमंत्री का संकल्प हकीकत में बदलना एक कठिन चुनौती बना हुआ है, क्योंकि भारत के राष्ट्रीय हित के लिहाज से बात करें तो शायद लाखों भारतीयों के लिए यह फायदेमंद नहीं है.
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नदियों का बंटवारा
भारत और बांग्लादेश के बीच बहुत से अन्य मुद्दों के साथ तीस्ता विवाद भी विभाजन के साथ जुड़ा है. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ही ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों ने रणनीतिक तौर पर ज्यादा अहम महत्वपूर्ण माने जाने वाले कोलकाता बंदरगाह से गाद निकालने के लिए पहले गंगा और तीस्ता को हुगली की ओर मोड़ने पर विचार किया था. आजादी के बाद सरकार ने एक अधिक जटिल प्रोजेक्ट फरक्का बैराज का काम आगे बढ़ाया. बिजली उत्पादन और सिंचाई का बुनियादी ढांचा तैयार करने उद्देश्य से लाए गए इस प्रोजेक्ट का पश्चिम बंगाल में विकास की नई राह खोलना था.
भारत से 54 नदियां पूर्वी पाकिस्तान की ओर बहती थीं—और इस छोटे देश को आशंका थी कि फरक्का बैराज उसके जल संसाधनों को पूरी तरह चोक करने एक साधन बन जाएगा. पाकिस्तान ने भी इसके जवाब में घोषणा कर दी कि फरक्का के आगे अपना खुद का बैराज बनाएगा. भारत और पाकिस्तान के बीच तनावपूर्ण संबंधों के कारण संसाधनों के बंटवारे पर परस्पर सहमति से कोई विवेकपूर्ण समाधान निकालने के गंभीर प्रयास नहीं किए जा सके.
यहां तक की बांग्लादेश के आजाद होने के बाद भी जल बंटवारे पर किसी समझौते पर पहुंचना मुमकिन नहीं हो पाया. लॉ स्कॉलर बिक्रमजीत डे का नोट बताता है कि 1975 में हस्ताक्षरित एक अंतरिम समझौता सिर्फ 41 दिन ही चल पाया था. फिर 1977 में संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता में पांच साल के लिए किए गए करार के तहत बांग्लादेश को ड्राई-सीजन में जल प्रवाह में 80:20 हिस्सेदारी मिली लेकिन यह सौदा भी टिकाऊ साबित नहीं हो पाया.
फिर, 1979 में बांग्लादेश ने डालिया जिले में अपने खुद के बैराज पर काम पूरा कर लिया, जिसे पांच लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई के हिसाब से डिजाइन किया गया था. पांच साल बाद, बांग्लादेश ने डालिया बैराज से देश में चावल और मक्के के खेतों तक पानी पहुंचाने वाली नहरों का 4,500 किलोमीटर का नेटवर्क बना डाला. हालांकि, कुछ ही सालों में नहरें सूख गईं.
इधर, भारत ने सीमा से लगे जलपाईगुड़ी के गजोल्डोबा में एक और बैराज का निर्माण किया, जिससे 228,000 हेक्टेयर कृषि भूमि को पानी की सप्लाई की जा रही थी. जैसा अर्थशास्त्री योशीरो हिगानो और मुहम्मद फकरूल इस्लाम ने 1996 में अपने विश्लेषण में पाया कि ‘ड्राई सीजन में गजोल्डोबा में तीस्ता के पानी पर भारत का खास नियंत्रण रहने से डालिया बैराज निर्रथक हो गया था.’ इसके विपरीत, मॉनसून में प्रवाह अच्छा होने पर बैराज से पानी छोड़ दिए जाने से ‘बाढ़ और तट पर कटाव जैसी गंभीर स्थितियां उत्पन्न हो जातीं.’
जल को लेकर हलचल
1996 के बाद गंगा और तीस्ता जल विवादों को हल करने की एक रूपरेखा बनी. इसके तहत शेख हसीना और प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने 1996 में गंगा जल संधि पर हस्ताक्षर किए जिसमें भारत ने बांग्लादेश के किसानों के लिए फरक्का का पानी छोड़ने की प्रतिबद्धता जताई. पॉलिटिकल साइंटिस्ट फहमीदा अख्तर इस संदर्भ में उल्लेख करते हैं कि ड्राई सीजन में बांग्लादेश पहुंचने वाले पानी का प्रवाह अपेक्षित स्तर से एकदम नीचे गिर जाता था. इसके अलावा, संधि में विवाद समाधान के किसी मैकेनिज्म के अभाव ने इसे निष्प्रभावी बना दिया.
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार ने 2010 में एक समझौते को अंतिम रूप दिया. मसौदा करार में बांग्लादेश और भारत को प्रवाह में 40-40 फीसदी हिस्सेदारी देने और किसी विवाद की स्थिति में अंतरराष्ट्रीय अदालत (आईसीजे) की मध्यस्थता का प्रावधान किया गया था. महीनों समय लगाकर तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने इस पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की सहमति हासिल की.
फिर, उन कारणों को कभी सार्वजनिक नहीं किया गया कि बाद में ममता बनर्जी इससे पीछे क्यों हट गईं. आखिरकार, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के समर्थन पर टिकी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार को यह करार तोड़ने पर मजबूर होना पड़ा.
कुछ रिकॉर्ड बताते हैं कि बनर्जी का मानना था कि इस करार की वजह से पश्चिम बंगाल के कूचबिहार, जलपाईगुड़ी, दक्षिण दिनाजपुर, उत्तरी दिनाजपुर और दार्जिलिंग जैसे क्षेत्रों के किसानों को ड्राई सीजन में लगभग 8,000 क्यूबिक फीट प्रति सेकंड पानी का नुकसान होगा. इसके बजाए, पश्चिम बंगाल ने दिसंबर से अप्रैल तक, सबसे शुष्क महीनों में पानी के 70:30 बंटवारे पर जोर दिया.
हालांकि टीएमसी नेता आज केंद्र सरकार पर किसी तरह का दबाव डालने की स्थिति में नहीं है, फिर भी कई राजनीतिक फैक्टर तीस्ता करार की राह में रोड़ा बने हुए हैं. पश्चिम बंगाल में अपनी सियासी उपस्थिति को मजबूत करने में जुटी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ऐसा कोई समझौता करने के मूड में नहीं है जिससे राज्य में किसानों को नुकसान हो. यही नहीं, मोदी सरकार रणनीतिक रूप से संवेदनशील जलपाईगुड़ी, कूचबिहार और दार्जिलिंग जैसे क्षेत्रों में अपनी लोकप्रिय को किसी भी तरह से खतरे में भी नहीं डालना चाहती है. ये क्षेत्र भारत और उसके पूर्वोत्तर क्षेत्र के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं.
इस बीच, सीमा के दोनों ओर समस्या हर साल लगातार बढ़ती जा रही है. 2011 में तीस्ता मुद्दे पर पश्चिम बंगाल सरकार के लिए अध्ययन करने वाले जल विज्ञानी कल्याण रुद्र ने पाया है कि गाद मौजूदा बैराजों और बांधों की भंडारण क्षमता घटा रही है. पानी की मांग लगातार बढ़ना भी भारत और बांग्लादेश के बीच तकरार की एक वजह बनी हुई है.
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लगातार बढ़ता दबाव
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री की मांग इस मसले पर उनकी बेताबी को दर्शाती है. दरअसल, 2023 में बांग्लादेश में चुनाव होने हैं और हसीना जानती हैं कि भारत के साथ उनके संबंधों में आती घनिष्ठता विपक्ष की आक्रामकता को बढ़ा रही है. जबसे हसीना ने पदभार संभाला है, उन्होंने जिहादी खतरा घटाया है, आतंकवाद के खिलाफ अभूतपूर्व सहयोग दिया है और भारत विरोधी उग्रवाद को भी कुचलकर रख दिया है. हालांकि, तीस्ता पर कोई करार कर पाने में प्रधानमंत्री की नाकामी से बांग्लादेश के किसान आहत करती है और किसानों पर शेख हसीना की पकड़ भी कमजोर पड़ रही है.
इसके साक्ष्य मिलना भी मुश्किल नहीं हैं कि हसीना को भारत के दुश्मनों को रियायतें देने पर मजबूर किया जा रहा है. सत्तारूढ़ दल समर्थित इस्लामवादियों ने एक सांस्कृतिक जंग छेड़ रखी है—कैंपस में पश्चिमी कपड़े पहनने वाली महिलाओं और ईशनिंदा करने वालों के खिलाफ लामबंदी जारी है. बांग्लादेश ने तीस्ता पर वाटर मैनेजमेंट प्रोजेक्ट के लिए चीन से समर्थन भी मांगा है, जो भारत के लिए स्पष्ट तौर पर रणनीतिक चिंता का विषय है.
विशेषज्ञों का कहना है कि तीस्ता संधि के अलावा भी कुछ चीजें हैं जिनके जरिए भारत स्थितियों में सुधार ला सकता है. गौरी नूलकर-ओक का सुझाव है कि उदाहरण के तौर पर, सिक्किम में बांधों से पानी छोड़ने का बेहतर प्रबंधन पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश दोनों को ही अधिक पानी मुहैया करा सकता है. दोनों देश भूजल उपलब्धता बढ़ाने और खेती के लिए जल की मांग उचित ढंग से पूरी करने की दिशा में भी काम कर सकते हैं.
तीस्ता पर किसी समझौते की कीमत पश्चिम बंगाल के गरीब और सीमांत किसानों को चुकानी पड़ सकती है—मोदी सरकार को यह बात न केवल समझनी होगी बल्कि इसका समाधान भी निकालना होगा. हालांकि, बांग्लादेश में कोई शत्रुवत सरकार और नागरिक समाज की कीमत उससे कहीं ज्यादा भारी पड़ सकती है.
लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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