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Tuesday, 15 October, 2024
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INS विक्रांत के बाद भारत का अगला कदम नए विमानवाहक पोत, पनडुब्बियों का निर्माण होना चाहिए

विमानवाहक पोत और पनडुब्बियां भारत की नौसैनिक ताकत का मुख्य प्लेटफॉर्म हैं मगर उनके विकास का इतिहास फैसले लेने में लेट-लतीफी से अवरुद्ध.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2 सितंबर 2022 को भारत के पहले स्वदेश में निर्मित विमानवाहक पोत के कमीशन समारोह की अध्यक्षता की. कोचिन शिपयार्ड लिमिटेड में निर्मित यह पोत भारत के अपनी समुद्री ताकत के विस्तार के सफर में एक बड़ा मील का पत्थर है. यह उपलब्धि काबिलेतारीफ है मगर यह बात भुला नहीं देनी चाहिए कि समुद्री ताकत ऐसा खास पद है जिसमें नौसैनिक, समुद्री व्यापार क्षमता और बंदरगाह तथा जमीनी कनेक्टिविटी जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चर सब कुछ मिलाजुला है. इसलिए यह सफर सिर्फ अंतहीन ही नहीं है, बल्कि वित्तीय मामलों में काफी ऊंचे दर्जे का है. फिर भी, इसमें समुद्री व्यापार से मिलने वाले आर्थिक लाभ के जरिए मजबूत बनने की क्षमता है.

समुद्री ताकत में इजाफा

भारत की समुद्री ताकत में इजाफे की बुनियाद शताब्दियों से उसकी समुद्री यात्राओं की परंपरा में निहित है. मौजूदा परिदृश्य में व्यापक समुद्री सफर के अनुभव की वजह से इसे पूरी तरह मात्रा या संख्या के मद में देखा जाता है. भारत नौसैनिक और समुद्री व्यापार के क्षेत्र में मानव पूंजी के मामले में शायद दुनिया में आला तीन देशों में है. ऐसी संपत्ति अमूल्य है, लेकिन ऐसी भी है जो टेक्नोलॉजी प्रगति के साथ आसानी से बराबरी नहीं कर सकता है.

इसलिए यह विडंबना ही है कि भारत अपनी नौसैनिक क्षमता बनाने के लिए संघर्षरत है और व्यापारी जहाज बनाने के मामले में व्यासायिक रूप से पिछड़ गया है. सौभाग्य से, स्वदेशी नौसैनिक क्षमता निर्माण बेहतर संभावना जगाता है, जैसा कि आइएनएस विक्रांत से जाहिर है, भले इसे कमीशन करने की सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी (सीसीएस) की मंजूरी मिलने में बीस साल लग गए.

इसलिए तीसरे विमानवाहक पोत की दलील बेहद दमदार है क्योंकि यही एकमात्र प्लेफॉर्म है, जो देश के दायरे से काफी दूर समुद्री जहाज के सफर में उसे वायु मार्ग और पनडुब्बी-रोधी उपकरणों से सुरक्षा प्रदान कर सकता है. शांति और संकट के दौर में इसकी उपयोगिता बेजोड़ है क्योंकि ताकत दिखाने की उसकी क्षमता और दुस्साहस लाजवाब है. इसमें कोई संदेह नहीं कि देश के समुद्री व्यापार के रास्तों पर दुश्मन ताकतों से रक्षा के लिए नौसैनिक क्षमता में इजाफा किया जाना चाहिए. ऐसी सुरक्षा निगरानी सतह और समुद्र तल की दोनों तरह की क्षमताओं की दरकार होगी. विमानवाहक पोत सिर्फ समुद्री सतह की जहाजों की रक्षा का ही मुख्य प्लेटफॉर्म है, बल्कि वह समुद्र तल में पनडुब्बियों की भूमिका में भी योगदान देता है.

अभियान के मामले में यह नौसेना का अनिवार्य अंग है, अगर हिंद महासागर के क्षेत्र में सक्रियता दिखानी है. इस दलील में बीच समुद्र में उड़ान भरने वाली हवाई ताकत की आक्रमण क्षमता से बेखर है कि जहाजों में तैनात वायु रक्षा मिसाइलों से हवाई हमलों का जवाब दिया जा सकता है. इसके अलावा, भारत-प्रशांत भू-राजनैतिक के दायरे में विमानवाहक पोत दोस्ताना देशों से समुद्री सहयोग में रीढ़ का काम कर सकता है.

तीसरे विमानवाहक पोत का महत्व

तो, अब भारत के पास दो विमानवाहक पोत होंगे, इसलिए सवाल यह कि तीसरे की जरूरत क्या है? अभी यह दलील दूर रखते हैं कि अगर हमने तीसरे विमानवाहक पोत का निर्माण शुरू नहीं करते हैं तो देश में हासिल अनुभव और ज्ञान की अमूल्य संपत्ति खो जाएगी. तीसरे विमानवाहक पोत की दूसरी बड़ी वजह यह तथ्य है कि विमानवाहक पोत की मरम्मत का चक्र काफी वक्त लेता है और कठिन होता है. ये चक्र पहले छोटे, फिर मध्यम और उम्र बढऩे के साथ लंबा होता जाता है. लंबा चक्र दो साल और उससे भी ज्यादा का हो सकता है. मरम्मत चक्र अपग्रेड के लिए भी होता है, जिससे उसकी क्षमता और अधिक बढ़ जाती है. उनकी अहम भूमिका और भारत के बढ़ते भू-राजनैतिक खतरे के मद्देनजर तीसरा पोत बस पसंद का मामला नहीं, बल्कि जरूरी है.


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समुद्र तल की क्षमता निर्माण की राह में कठिनाइयां

तीसरे विमानवाहक पोत का मामला पनडुब्बियों की शक्ल में समुद्र तल की क्षमता निर्माण के एकदम उलट है. उनकी क्षमता आक्रामक है और लंबे समय तक गहरे तल में बिना पहचाने सफर करने की क्षमता करने की वजह से चुपके से वार करने वाली है. हिंद महासागर के व्यापार रूट में द्वीपों वगैरह के होने से पनडुब्बियों की आक्रमण क्षमता जाहिर है और विरोधियों की रोकथाम में जरूरी है. इसके अलावा, आधुनिक पनडुब्बियों में जमीनी लक्ष्यों पर निशाने की मिसाइल क्षमता भी है.

भारत में पनडुब्बियों की ताकत पांच दशक से ज्यादा पुरानी है. आठ सोवियत फॉक्सट्रॉट क्लास पनडुब्बियां 1967 से 1974 के बीच शामिल की गईं. उसके बाद 1986 और 2000 के बीच किलो क्लास 10 पनडुब्बियां रूस से और चार टाइप209 जर्मनी से आईं. दो टाइप209 पनडुबिबयां मझगांव डॉक्स शिपयार्ड लिमिटेड (एमडीएल) में बनाई गईं. हालांकि उसके बाद आर्डर न मिलने से मानव पूंजी खो गई और निर्माण शृंखला का इस्तेमाल नहीं हो पाया.

सरकार ने 1999 में 24 परंपरागत पनडुब्बियों के लिए 30 साल की योजना मंजूर की. बाद में उसे 18 परंपरागत और छह परमाणु शक्ति से लैश पनडुब्बियों में बदल दिया गया. योजना प्रोजेक्ट 75 के तहत छह, प्रोजेक्ट 75 (1) के तहत छह और प्रोजेक्ट 76 के तहत छह बनाने की थी. प्रोजेक्ट 75 और प्रोजेक्ट 75 (1) को डिजाइन और निर्माण क्षमता बनानी थी और टेक्नोलॉजी हस्तांतरण करवाना था. प्रोजेक्ट 76 में भारतीय डिजाइन की पनडुब्बियां बनाना था. 75 (1) और 76 में एयर-इंडिपेंटेंट-प्रोपल्सन (एआइपी) टेक्नोलॉजी थी, जो पानी के अंदर की क्षमता बढ़ा सकती थी, शोर नियंत्रित कर सकती थी और छुपी रह सकती थी.

प्रोजेक्ट 75 करीब दो दशक देरी से चल रहा है. इससे अभी तक पांच स्कॉर्पियन क्लास पनडुब्बियां मुहैया हो चुकी हैं और छठी 2023 में कमीशन की जानी है. दुखद यह है कि 2018 में स्कॉर्पियन क्लास पनडुब्बियां बनाने के बाद एमडीएल में निर्माण गतिविधि और इन्फ्रास्ट्रक्चर ठप्प हो गई है और नए ऑर्डर का इंतजार है. श्ह घटनाक्रम भारत के रक्षा उद्योग में भी जारी रह सकता है और इससे आत्मनिर्भरता के मायने में भारी रणनीतिक घाटा हो रहा है.

प्रोजेक्ट 75 (1) भी मुश्किल दौर में फंसा है. इसे 2017 में रक्षा खरीद के रणनीतिक साझेदारी मॉडल के तहत लाया गया. इस मॉडल में भारतीय और मौलिक उपकरण निर्माताओं (ओईएम) को साझेदार के रूप में पहचान करना था. 2020 में एमडीएल और लार्सन ऐंड टुब्रो (एलऐंडटी) को भारतीय साझेदार के रूप में चुना गया. पांच मौलिक उपकरण निर्माताओं को दक्षिण कोरिया, रूस, स्पेन, फ्रांस और जर्मनी से मंजूर किया गया. लेकिन जुलाई 2022 तक मिडिया रिपोर्टों के मुताबिक, प्रस्ताव के लिए आवेदन (आरएफपी) सौंपने की तिथि दूसरी बार दिसंबर 2022 तक बढ़ाई गई. नौसेना ने एआइपी और ठेके के कुछ दूसरे पहलुओं में छूट देने के लिए रक्षा मंत्रालय से सिफारिश की.

भारतीय नौसेना के पास 16 परंपरागत पनडुब्बियां हैं, जिनमें आठ किलो क्लास और चार-चार फ्रांस और जर्मनी की हैं. एक फ्रांसीसी पनडुब्बी तैनाती के चरण में है. पनडुब्बियों की तैनाती में देरी की वजह से परंपरागत पनडुब्बियों की उम्र 10-15 साल बढ़ाने के उपाय पर भी विचार हो रहा है. लेकिन असली मामला यह है कि दो दशक पहले 30 साल की योजना के तहत जिन 24 पनडुब्बियों को हासिल करना था, वे अभी भी दूर की कौड़ी लग रही हैं.

राष्ट्रीय सुरक्षा निर्णय प्रक्रिया में सुधार

भारत की नौसैनिक ताकत के प्रमुख प्लेटफॉर्म विमानवाहक पोत और पनडुब्बियां हैं. दोनों के विकास के इतिहास में निर्णय-प्रक्रिया और ठीक समय पर नतीजों के लिए प्रक्रियागत सटीकता को अपनाने में लेट-लतीफी भारी रुकवटें साबित होती रही हैं. स्वदेशी रक्षा क्षमताओं के विकास के बड़े संदर्भ में देखने पर इन रुकावटों के साझा स्रोत हैं. अलबत्ता ये अलग-अलग शक्ल में आती हैं.

यह राजनैतिक संरक्षण, दिशा-निर्देश और दूरदर्शिता का अभाव है जिससे ज्ञात और तत्काल जरूरत वाले सुधार किए जाते हैं. बहुप्रचारित सुधार भी बार-बार अमल की दीवारों से टकराकर थम जाते हैं, जो राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के अभाव और दीर्घावधिक बजटीय आवंटन की कमी से जाहिर है. इसकी सबसे बड़ी मौजूदा मिसाल तो चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ (सीडीएस) की नियुक्ति में बेहिसाब देरी है और थिएटर कमांड सिस्टम की ओर बेहद जरूरी बदलाव की प्रक्रिया का ठप हो जाना है.

आइएनएस विक्रांत से हमें खुश होने की वाजिब वजह है. लेकिन हमें अपने असंदिग्ध उपलब्धियों पर समय-समय पर राष्ट्रीय सुस्ती से निजात पाने की दरकार है. इससे सुरक्षा का एक छलावा भर जाता है और राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर बेहद महत्वपूर्ण कमियों को नजरअंदाज कर दिया जाता है.

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला इंस्टीट्यूशन में स्ट्रैटेजिक स्टडीज के डायरेक्टर हैं; वे नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सेक्रेटेरिएट के पूर्व सैन्य सलाहकार भी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी है)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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