पिछले हफ्ते शशि थरूर को उनके ही साथियों द्वारा आखिरी वक्त में निस्सहाय सा छोड़ दिया गया. सूचना और प्रौद्योगिकी के मामलों पर बनी संसदीय स्थायी समिति के प्रमुख के रूप में, इस कांग्रेसी सांसद ने पेगासस स्पाइवेयर मामले से उठे निजी डाटा के उल्लंघनों और गोपनीयता से जुड़े सवालों पर चर्चा करने की उम्मीद से सत्ताधारी पक्ष के अपने ही सहयोगियों को बुलाने की कोशिश की थी. ऐसा करके वह केवल अपना कर्तव्य निभा रहे थे और अपने साथियों से वही काम कराने की कोशिश कर रहे थे जिसके लिए उन्हें चुना गया है और जिसमें कानून और नीति से जुड़े विषयों पर विचार-विमर्श करना भी शामिल है.
थरूर ने स्वीकार किया कि हालांकि यह मुद्दा काफ़ी विस्फोटक है और लोकतंत्र के लिए कई प्रकार के खतरों को प्रस्तुत करता है, फिर भी पेगासस मुद्दा उस हद तक लोगों- खासकर भारत की मतदान करने वाली जनता- का ध्यान अपनी ओर नहीं खींच कर पा रहा है, जिसका वह हकदार है.
थरूर ने इसका कारण इस मामले का ‘रोज़ी-रोटी’ से जुड़ा नहीं होना बताया. हालांकि वास्तव में यह एक ऐसा ही मुद्दा है. डाटा अब बड़ी तेजी से एक सार्वजनिक उपभोग की वस्तु बन गया है. डाटा, चाहे वह जाति या आय के बारे में ही हो, अब लोकतंत्र के लिए अति आवश्यक है और इसका महत्व समझने के लिए किसी को भी प्रशांत किशोर जैसा चुनाव विशेषज्ञ होने की ज़रूरत नहीं है.
निश्चित रूप से डाटा एक ऐसा मुद्दा है जो हमेशा जनता की सहानुभूति से वंचित/गायब रहा है. हालांकि वह हमेशा और हर तरफ मौजूद है, फिर भी डाटा से संबंधित समस्याओं की अमूर्त प्रकृति के कारण इन्हें पकड़ना भी मुश्किल हो जाता है. ऐसे हालात में इसके प्रति किसी भी प्रकार की सार्वजनिक संवेदनाओं को इकट्ठा करने की तो बात ही छोड़ देनी चाहिए. हालांकि, जल्द ही इस मुद्दे पर इस तरह की आम उदासीनता का पूरा-पूरा श्रेय हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक तूफानों को झेलने की टेफ्लॉन जैसी क्षमता को दिया जाने वाला है.
हालांकि, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पेगासस स्पाइवेयर से जुड़े खुलासे ने निश्चित रूप से भारत के प्रति लोगों का ध्यान सिर्फ़ नकारात्मक अर्थ में ही आकर्षित किया है. द इकोनॉमिस्ट ने इसे भारत के ‘परेशानियों से घिरे लोकतंत्र’ के लिए एक ‘सात-सिर वाला घोटाला’ करार दिया है.
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डाटा: जानकारी या राजनीतिक खबर?
पेगासस से जुड़ी खबरों से यह पता चलता है कि किस तरह डाटा वैश्विक लोकतंत्र को खतरे में डाल रहा है. अपने ही नागरिकों के खिलाफ इजरायली सरकार द्वारा अधिकृत एव अत्याधुनिक स्पाइवेयर को इस्तेमाल करने के मामले में भारत आज सऊदी अरब और हंगरी जैसे देशों के साथ खड़ा है.
लेकिन करीब 1,000 हैक किए गए अकाउंट की सूची, जिसमें राहुल गांधी समेत मोदी सरकार के कई प्रमुख आलोचकों और यहां तक कि सरकार के विरोध में खड़े होने में अशक्त अकादमिक-आलोचकों के नाम भी शामिल थे, वह पहलू है जिसने इसे एक राजनीतिक घोटाले का रूप दे दिया है. तो फिर ऐसा क्यों है कि कई दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण होने के बाजजूद इस राजनीतिक खबर को सार्वजनिक उदासीनता का सामना करना पद रहा है, हालांकि, अनुमानित रूप से मोदी सरकार पूरे ज़ोर शोर से इसे कुचलने में लगी है.
सबसे स्पष्ट और सतही स्तर पर विश्लेषण से यह प्रतीत होता है की विकीलीक्स जैसे खुलासे के विपरीत पेगासस की खबर में किसी भी तरह की बातचीत का कोई विवरण नहीं है. यह केवल उन लोगों की एक सूची है जिनका फ़ोन हैक किया गया है. इसके अलावा विकीलीक्स के विपरीत इस मामले में कोई व्हिसलब्लोअर भी सामने नहीं आया है, डिजिटल दुनिया के उभार का एक परिणाम यह भी हुआ है कि सूचनाओं के अधिभार तले दबी इस नई ध्यान खींचने वाली अर्थव्यवस्था में प्रबल निजी भावनाओं अथवा स्पष्ट विवरणात्मक तत्वों के बिना कोई भी समाचार काफ़ी कम असर पैदा करता है.
लेखक विलियम डेविस के अनुसार इस सबने विशेषज्ञता के ऊपर भावनाओं के हावी कर दिया है. इसे वह ‘रेन ऑफ नर्वस स्टेट्स’ की संज्ञा देते हैं जो इनके द्वारा लिखी गयी एक बेहतरीन किताब का शीर्षक भी है.
आम नज़र में डाटा एक रूखी-सूखी चीज़ है. एकदम उबाऊ. पेगासस स्पाइवेयर द्वारा हैक की गई एन्क्रिप्टेड बातचीत डाटा के अलावा और कुछ नहीं है. हम जिस दुनिया में हैं, वहां डाटा वह चीज़ है जो हमारे पास एक व्यक्तिगत संपत्ति के रूप मे हैं और यह हमारे डीएनए कोड या किसी ऐप में ‘लाइक’ की संख्या से लेकर मतदान के हमारे तौर-तरीकों तक कुछ भी हो सकता है.
स्वतंत्रता जैसे हमारे व्यक्तिगत अधिकारों की तरह, डाटा भी हमारा एक व्यक्तिगत अधिकार है. यह हर जगह मौजूद है और हमारे वर्तमान अस्तित्व में बहुत अधिक मायने रखता है. व्हाट्सएप से लेकर फेसबुक तक या आधार संख्या से लेकर बैंक के डेबिट कार्ड के किसी भी स्वाइप तक, हर एक व्यक्ति अब हेराफेरी और लाभप्रद एल्गोरिदम का समूह बन चुका है.
इस तरह से हरेक व्यक्ति पूर्व-लक्षित विज्ञापन और निगरानी के लिए कई डाटा आधारित बिंदु (सेट पायंट्स) प्रदान करता है, जो आगे चलकर एक बड़े एल्गोरिदम का हिस्सा बन जाता है. इसका उपयोग कपड़े बनाने वाली कंपनी से लेकर एक चुनाव विशेषज्ञ तक, किसी के भी द्वारा किया सकता है. इस ‘ऊपरी स्तर से किए जाने वाले तख्तापलट’ का अपना एक खास नाम ‘सर्विलांस कैपिटलिज्म’ है, जो डाटा माइनिंग के माध्यम से व्यक्तिगत अधिकारों के प्रतिदिन किए जाने वाले तीव्र हनन को व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त एक भारी-भरकम शब्द है.
इस तरह से देखें तो आपका व्यक्तिगत डाटा किसी की रोज़ी-रोटी (या यूं कहें तो मलाई-मक्खन है). यह उतना ही स्वादिष्ट है जैसे कि सुगंधित और भरपूर आइसिंग के साथ अच्छी क्वालिटी वाला कोई फ्रेंच केक और पेस्ट्री हो. विश्वास ना हो तो जरा मार्क जुकरबर्ग से पूछिए. और अगर यह डाटा राजनीतिक जानकारी वाला है, जैसे कि पेगासस हैक के मामले में किया गया है, तो फिर तो यह अमूल्य ही है.
दिल्ली के नीति निर्धारक हलकों में, डाटा का महत्व अब पिछले कुछ समय से काफ़ी प्रसिद्ध हो चुका है. पिछले पांच वर्षों में, मैंने भी दूसरों अन्य लोगों की तरह ही हमारे जमाने का नया बार-बार दोहराया जाने वाला वाक्य (क्लीशे) सुना है कि ‘डाटा नया ईंधन वाला तेल है’. वास्तव में, यह चौथी औद्योगिक क्रांति, या यूं कहे तो हमारे वर्तमान समय की प्रमुख उपभोग की वस्तु है. तेल तो वास्तव में पिछली सदी की चीज़ बन गया है.
डाटा और लोकतंत्र
अपने शुरुआती दिनों में, डाटा और डाटा-संचालित संचार माध्यम जैसे कि फेसबुक और व्हाट्सएप को लोकतंत्र के सबसे बड़े समर्थक के रूप में देखा जाता था. याद कीजिये ‘अरब स्प्रिंग’ का समय काल, तब डाटा संचार वास्तव में उन देशों को भी ‘आज़ाद’ कर रहे थे जहां आज़ादी काफ़ी हद तक थी ही नही. पर यह तो दस साल पहले की बात थी.
‘अरब स्प्रिंग’ के कुछ ही समय बाद ही कैम्ब्रिज एनालिटिका घोटाला सामने आया जिसमें दुनिया के सबसे शक्तिशाली और सबसे स्वतंत्र लोकतंत्र में एक काफ़ी महत्वपूर्ण चुनाव के दौरान एक निजी कंपनी द्वारा सोशल मीडिया के डाटा में हेराफेरी देखी गयी. उसी दौरान एक और नया ‘चर्चित शब्द’ सामने आया जिसे किसी भी नीतिगत चर्चा के दौरान याद न करना मुश्किल होता था, ख़ासकर भारत में, और वह शब्द था ‘डाटा सॉवेरेंटी‘ (संप्रभुता)’.
यह तथ्य कि एक तरफ व्हाट्सएप जैसा एप है और दूसरी तरफ है पेगासस नाम का एक स्पाइवेयर जिसे केवल सरकारें ही खरीद सकती हैं, इस डाटा युग में लोकतंत्र के लिए उपजे गहरे खतरे को उजागर करता है. सिलिकॉन वैली के एक बड़े फर्म और राजकीय निगरानी जैसे दो महाकाय पाटों के बीच व्यक्तिगत नागरिक, राजनीतिक कर्मी या नेता पीसा जा रहा है. वास्तव में, यह आम आदमी है जिसे निजी डाटा कंपनियों और राज्य के द्वारा तैनात किए गये डाटा हैकर्स के बीच की इस लड़ाई में हारने और इस्तेमाल होने के लिए तैयार किया/ फंसाया जा रहा है.
‘डाटा संप्रभुता’ का मतलब सिलिकॉन-वैली के उन धन्नासेठों को जवाब देना था, जो भारतीय डाटा को लगातार उड़ा रहे थे और इससे मोटी-मोटी रकमें कमा रहे थे. ‘डाटा सॉवेरेंटी’ शब्द का उपयोग यह संदेश पहुंचने के लिए किया गया था कि ‘राज्य’ या राजनीतिक अथवा संप्रभु व्यवस्था को इन डाटा दिग्गजों पर लगाम लगानी थी और अपनी स्वयं की शक्ति को फ़िर से प्राप्त करना था. परंतु यह कार्य असंभव साबित हुआ है. कई स्थायी संसदीय समितियां या अन्य देशों में भी इसी तरह की संस्थाएं, किसी भी प्रमुख डाटा समूह को कोई भी माकूल जवाब देने में विफल रही हैं, उन पर लगाम लगाने या उन्हें विनियमित करने की तो बात ही छोड़िए. इस मामले में भारत भी कोई अपवाद नहीं है.
एक तरफ़ यदि डाटा माइनिंग कंपनियां सुपर-सॉवरेन (सम्प्रभुता से परे) हो गई हैं, तो दूसरी तफ़ हमारी सरकारें, जिन्हें हमारे हितों की रक्षा का भार सौंपा गया है, उसके राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ डिजिटल निगरानी का उपयोग करने में अपने ही नागरिकों के विरुद्ध हो गई हैं. अपने कमजोर होते प्रभुत्व के कारण राज्य द्वारा की जा रही निगरानी उसके प्रभुत्व को थोपने का तरीका बन गयी है. स्पष्ट रूप से, अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ ‘देशद्रोह’ का आरोप मढ़ना इसका पसंदीदा कानूनी हथियार बन गया है. ‘देशद्रोह’ एक ऐसा कानूनी प्रावधान है जो संप्रभु सत्ता के प्रति संपूर्ण वफादारी के सिद्धांतों पर आधारित है.
आज के समय के भारत में निगरानी/चौकसी लोकतंत्र का संदर्भ और शर्त दोनों बन गया है और देशद्रोह इसकी प्रमुख सजा. ऐसे माहौल में निजी डाटा के उल्लंघनों के खिलाफ ‘गोपनीयता’ का रोना रोने से कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि यह न केवल महंगा अथवा अभिजात्य विषय लगता है, बल्कि लीक से हटा हुआ भी नज़र आता है.
ऐसा सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि वह ‘व्यक्ति’ जिसके पास कोई गोपनीयता हो सकती है, पहले से ही कई डाटा सेट के रूप में बांटा जा चुका है. और ज्यादातर मामलों में, यह उसकी अपनी इच्छा से- एक क्लिक या स्वाइप के माध्यम से- ही संभव हुआ है कि उसका डाटा किसी विदेशी कंपनी के स्वामित्व में चला गया हो. प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह निगरानी के दायरे में हो या नही, अब पूरी तरह से असुरक्षित है.
इस प्रकार पेगासस का मामला हैक किए गए 1,000 नामों की सूची तक ही सीमित नहीं है. उनके मामले में तो पहले से ही इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि वे सबसे शक्तिशाली लोगों को सबसे अधिक परेशान करने वाले व्यक्तियों की प्रमुख सूची में शामिल हैं. इसके बजाए पेगासस का मामला संप्रभुता के मूलभूत आधार की पुनर्रचना और इसे फिर से व्याखायित करने के प्रयास पर प्रकाश डालता है. यह इसलिए भी विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यह किसी अन्य संप्रभु राज्य और उसकी एक कंपनी द्वारा भारतीय नागरिकों की राजनीतिक निगरानी करने का मामला है. पेगासस मामले के तहत एक ‘निगरानी वाले राज्य’ ने अपनी खुद की चिंता और घबराहट को उजागर किया है, लेकिन इस सबसे बढ़कर, उसने अपनी संप्रभु शक्ति को भी कमजोर कर दिया है. यह विषय कतई उबाऊ नहीं हो सकता और न ही उदासीनता का कारण बन सकता है. यहां ‘द इकोनॉमिस्ट’ गलत है, भारत का लोकतंत्र परेशानी में नहीं है. वास्तव में, यह प्रत्येक भारतीय की संप्रभुता, और इस प्रकार सम्पूर्ण भारत की संप्रभुता, है जो पूरी तरह से खतरे में पड़ती दिखाई देती है.
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(लेखिका कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में आधुनिक भारतीय इतिहास और वैश्विक राजनीतिक विचार की अध्यापिका हैं. उनका ट्विटर हैंडल @shrutikapila है. प्रस्तुत विचार निजी हैं.)
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