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Thursday, 31 October, 2024
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कई बार सहलाते नहीं बनती एक वोट की चोट

1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार अपने विश्वास प्रस्ताव पर लोकसभा में हुई वोटिंग में महज एक वोट से हारकर सत्ता से बाहर हो गई थी.

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अब जब लोकसभा चुनाव एकदम सिर पर है, तो मतदाता जागरूकता अभियानों की झड़ी-सी लग गई है. इन अभियानों में ऐसे लोग और संगठन भी ‘सक्रिय’ हैं, जो अन्य दिनों में आमतौर पर लोकतांत्रिक मूल्यों व चेतनाओं को लेकर कतई गम्भीर नहीं रहते. इसीलिए उनके मतदाता जागरूकता अभियान भी इतने तक ही सीमित हैं कि स्कूल-कालेजों के किशोरवय के ऐसे छात्र-छात्राओं को आगे कर कोई रैली वगैरह निकाल दी जाये, जिनकी अभी खुद की भी मतदाता बनने की उम्र नहीं हुई. या फिर छोटे-छोटे बच्चों से कुछ नारे वगैरह लगवाकर उनसे कहा जाये कि बड़े नहीं निभा पा रहे तो वे ही मतदाताओं को जगाने का पवित्र कर्तव्य निभा दें.

पर्याप्त गम्भीरता के अभाव में स्वाभाविक ही ऐसे अभियानों का वांछित असर नहीं होता. इसीलिए विभिन्न चुनावों में मतदान प्रतिशत बढ़ने के सच्चे-झूठे दावों के बीच आजादी के 70 साल बाद भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शत-प्रतिशत मतदाताओं की भागीदारी सपना बनी हुई है और कई बार मतदाता यह सोचकर मतदान बूथों तक जाने के प्रति उदासीन बने रह जाते हैं कि जब इतने लोग वोट दे ही रहे हैं, तो उनके एक वोट देने या न देने से कौन-सी क्रांति रुक जानी है?


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वे भूल जाते हैं कि 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार अपने विश्वास प्रस्ताव पर लोकसभा में हुई वोटिंग में महज एक वोट से हारकर सत्ता से बाहर हो गई थी. दरअसल, हुआ यह था कि तेजी से चले राजनीतिक घटनाक्रमों के बीच उसके सहयोगी दल अन्नाद्रमुक ने, जिसका नेतृत्व उन दिनों जयललिता के हाथों में था, अचानक समर्थन वापस ले लिया.

इसके बाद अल्पमत में आ जाने के आरोपों का सामना कर रही सरकार अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए लोकसभा में विश्वास का प्रस्ताव ले आई तो उसके प्रस्ताव के पक्ष में 269 और विपक्ष में 270 वोट पड़े. विपक्ष में पड़े वोटों में एक वोट ऐसे विपक्षी सांसद का भी था, जो एक राज्य के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद तकनीकी रूप से ही सांसद रह गये थे. सिर्फ इसलिए कि तब तक उन्होंने औपचारिक तौर पर इस्तीफा देकर लोकसभा की सीट छोड़ी नहीं थी.

यहां कहा जा सकता है कि एक वोट से सरकार गिर जाने का यह मामला तो लोकसभा का यानी सदन के अन्दर का है, लेकिन देश के आम चुनावों में भी एक वोट से हार-जीत के कई वाकये घटित हो चुके हैं. 2004 में कर्नाटक की संथेरामहल्ली विधानसभा सीट के चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी ध्रुवनारायण अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी जनता दल (सेकुलर) के एआर कृष्णमूर्ति से केवल एक वोट से चुनाव जीते थे.

इस चुनाव में ध्रुवनारायण को 40,752 और कृष्णमूर्ति को 40,751 वोट मिले थे. उन दिनों आई खबरों के अनुसार मतदान के दिन कृष्णमूर्ति के ड्राइवर ने उनसे मतदान करने जाने की मोहलत मांगी, तो उन्होंने झिड़कते हुए उसे मना कर दिया था. जाहिर है कि वे इसके अफसोस से लम्बे वक्त तक नहीं उबर पाये होंगे.

एक वोट से हार-जीत की दूसरी मिसाल राजस्थान विधानसभा के 2008 के चुनाव में उसकी नाथद्वारा सीट पर बनी, जब वहां से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सीपी जोशी भाजपा के कल्याण सिंह चौहान से एक वोट से हार गये. जोशी उन दिनों राजस्थान प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष तो थे ही, राज्य के मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी थे. मतगणना में चौहान को 62,216 मतदाताओं का समर्थन मिला, जबकि जोशी को उनसे एक कम यानी 62,215 का.

जोशी के लिए यह इस अर्थ में भी हाथ मलने वाली बात थी कि उनकी हार के साथ ही मुख्यमंत्री पद की उनकी दावेदारी भी जाती रही. उनके परिवार के तीन सदस्य भी दूसरे मतदाताओं की तरह यही सोचकर वोट देने मतदान केन्द्र तक नहीं गये थे कि उनके एक वोट से क्या होगा? इनमें उनकी मां, पत्नी और ड्राइवर भी शामिल थे. सोचिये जरा, अगर ये तीनों वोट डालने चले गये होते, तो बाजी पलट जाती और तस्वीर कुछ और होती. बाद में इस सीट के नतीजे को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लम्बी कानूनी लड़ाई चली और दोबारा मतगणना का भी आदेश हुआ.

2008 में ही मध्य प्रदेश की धार विधानसभा सीट के मतदाताओं ने एक वोट के अंतर से अपने विधायक का चुनाव किया. भाजपा प्रत्याशी नीना विक्रम वर्मा ने 50,510 वोट प्राप्त किये जबकि कांग्रेस प्रत्याशी बीएम गौतम ने 50,509 और विक्रम वर्मा को एक वोट से विजयी घोषित कर दिया गया.


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इसी तरह 2015 में पंजाब के मोहाली नगर निगम के चुनाव में कांग्रेस की कुलविंदर कौर रागी ने अपनी प्रतिद्वंदी निर्मल कौर को सिर्फ एक वोट से हरा कर जीत हासिल की. मुंबई नगर निगम के चुनाव किसी विधानसभा चुनाव से कम नहीं होते. 2017 के चुनाव में उसके वार्ड संख्या 220 में शिवसेना के सुरेंद्र बगलकर और भाजपा के अतुल शाह के बीच मुकाबला था.

दोनों को 5946-5946 यानी बराबर बराबर वोट मिले हैं और जीत-हार का फैसला लाॅटरी से हुआ-अतुल शाह के पक्ष में. सुरेंद्र बगलकर के पक्ष में एक वोट और पड़ गया होता, तो वे जीत जाते.
बेहतर हो कि मतदाता जागरूकता अभियानों में ये नजीरें सलीके से मतदाताओं तक पहुंचाई जायें और उन्हें समझाया जाये कि अपने और देश के भविष्य के अंदेशों को लेकर फुर्सत से नहीं रोना तो मतदान के दिन हर किसी को उसके प्रति उदासीनता को धता बताने की फुर्सत निकालनी ही चाहिए.

लेकिन इसके बजाय कई ‘जागरूकता’ समर्थक अनिवार्य मतदान के कानूनी प्रावधान की वकालत करते हैं, जबकि अनिवार्य ही करना हो तो प्रत्याशियों की लोकतांत्रिक नैतिकताओं और वादों के प्रति ईमानदारी अनिवार्य करना ज्यादा उपयोगी होगा. यकीनन, इसी राह से मतदाता सच्चे भाग्य विधाता बनकर मतदान के प्रति उदासीनता के पंजे से निकल पायेंगे.

प्रसंगवश, 1984 के लोकसभा चुनाव में इलाहाबाद लोकसभा सीट पर एक दिलचस्प मुकाबले में कांग्रेस प्रत्याशी अमिताभ बच्चन के हाथों पराजित हेमवतीनन्दन बहुगुणा ने मतदाताओं के फैसले के प्रति लोकतांत्रिक नैतिकता का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया था. इस चुनाव के बाद बोफोर्स तोपों की खरीद में दलाली के आरोपों ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी को मिले जनादेश की चमक फीकी की, तो कुछ कीचड़ अमिताभ पर भी आ पड़ा. खिन्न होकर अमिताभ ने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और राजनीति से तौबा कर ली.

इससे रिक्त इलाहाबाद लोकसभा सीट पर उपचुनाव की घोषणा हुई तो समर्थकों व शुभचिंतकों ने हेमवतीनंदन बहुगुणा से फिर मैदान में उतरने का आग्रह किया. यह भी कहा कि बोफोर्स के कीचड़ में लथपथ होकर कांग्रेस ने अपनी 1984 की लोकप्रियता का ग्राफ बहुत नीचे गिरा लिया है. इस कारण इस बार मैदान पूरी तरह साफ है और कोई भी विरोध में लड़े, उनकी जीत को लेकर कोई अंदेशा नहीं है.


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लेकिन बहुगुणा ने यह कहकर उन्हें मना कर दिया कि 1984 में इलाहाबाद की जनता ने उन्हें पांच वर्षों के लिए हराया था. ये पांच साल पूरे हुए बिना 1988 में ही फिर से उसके पास वोट मांगने जाना अनैतिक तो होगा ही, उसके फैसले का अपमान भी होगा. तब कांग्रेस के खिलाफ एकजुट विपक्षी दलों ने उससे इस्तीफा देकर बाहर निकल आये वीपी सिंह को अपना प्रत्याशी बनाया था और वे एक लाख से ज्यादा वोटों से जीते थे.

आज के हालात में बेहतर हो कि इस तरह की लोकतांत्रिक नैतिकताओं का उस सीमा तक विकास किया जाये, जिसमें प्रत्याशी वोटों की सबसे बड़ी ढेरी पर निर्भर करने के बजाय मतदाताओं के वास्तविक बहुमत के प्रतिनिधि बनने में गर्व का अनुभव करें. तब मतदाता शायद ही कभी खुद को सोचने की सीमा तक उपेक्षित महसूस करें कि एक वोट से क्या होता है.

(लेखक जनमोर्चा के स्थानीय संपादक हैं)

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