भारतीय जनता पार्टी जाति जनगणना की घोषणा के साथ खुद ही अपने लिए मुश्किल खड़ी कर बैठी है. या यूं कहें कि वह राहुल गांधी की विपक्ष के रूप में ढंग की लड़ाई न लड़ पाने की कुंठा से इतनी परेशान हो गई कि उसने खुद ही अपने लिए एक असली विपक्ष खड़ा करने का फैसला कर लिया. जाति जनगणना में “ब्रांड मोदी” को गहरी क्षति पहुंचाने और उनके कुछ संभावित उत्तराधिकारियों को दौड़ से बाहर करने की क्षमता है. अगर हालात और बिगड़े, तो यह एक तरह के समुद्र मंथन का रूप ले सकता है, जो अमृत नहीं, सिर्फ़ हलाहल—ज़हर—ही पैदा करेगा और भारतीय राजनीति के देवों और असुरों, दोनों को संकट में डाल देगा.
लेकिन उस पर आने से पहले, आइए संक्षेप में यह देखें कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के ‘स्पिन मास्टर्स’ ने जाति जनगणना पर यू-टर्न को सही ठहराने के लिए क्या तर्क दिए हैं. सरकार ने 2021 में संसद और सुप्रीम कोर्ट दोनों को यह बताया था कि वह जाति जनगणना नहीं कराएगी. ऐसे में आज जो बातें आधिकारिक रूप से कही जा रही हैं, वे सिर्फ़ और सिर्फ़ शब्दजाल हैं.
हो सकता है कि वे सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्ध हों, लेकिन वे इस जनगणना के समर्थक कभी नहीं रहे. यह प्रधानमंत्री मोदी के चार जातियों के सिद्धांत—ग़रीब, युवा, महिलाएं और किसान—से मेल नहीं खाता. उन्होंने इस जनगणना को पहले ‘अर्बन नक्सल मानसिकता’ और ‘पाप’ तक कह डाला था. भाजपा अपने व्यापक सामाजिक-राजनीतिक इंजीनियरिंग एजेंडे को धीमा करने के मूड में थी, यह बात तब साफ हो गई थी जब वह पिछड़ा वर्गों की उप-श्रेणीकरण की अपनी घोषित योजना से खुद को निकालने की कोशिश कर रही थी. सरकार ने रोहिणी आयोग को 13 बार विस्तार दिया, जो शुरू में 12 हफ़्तों में अपनी रिपोर्ट सौंपने वाला था. उसे रिपोर्ट सौंपने में लगभग छह साल लग गए, और अगस्त 2023 में उसने राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट सौंपी. तब से वह राष्ट्रपति भवन में धूल फांक रही है और सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है.
सरकार और भाजपा के रणनीतिकार जो ऑफ रिकॉर्ड कहते हैं, वह भी उतना ही कल्पनालोक जैसा है — मानो उन्हें यह विश्वास हो गया हो कि हम मूर्खता की हद तक विश्वास करने वालों में हैं. उनमें से एक यह है कि पार्टी राहुल गांधी का मुख्य चुनावी मुद्दा छीनना चाहती थी. वाक़ई! आखिर ऐसा क्या हो गया कि भाजपा अचानक इससे इतनी घबरा गई? क्या लगातार एक के बाद एक राज्यों में जीत के कारण? जाहिर है, नहीं. इस बात के कोई चुनावी संकेत नहीं हैं कि गांधी की जाति जनगणना की मांग को जनता का कोई खास समर्थन मिल रहा था.
एक और तर्क दिया जा रहा है—बिहार विधानसभा चुनाव का. यह भी ग़लत है. इतनी बड़ी राजनीतिक घोषणा महज एक विधानसभा चुनाव के लिए नहीं की जाती—वह भी एक ऐसे राज्य में जहां सभी अनुमानों के मुताबिक़ एनडीए मज़बूत स्थिति में है. वैसे भी, बिहार में राजनीति बहुत समय से ही जाति कोटा के इर्द-गिर्द घूमती रही है—1978 में कर्पूरी ठाकुर सरकार की परतदार आरक्षण व्यवस्था से लेकर अब तक. नीतीश कुमार सरकार ने अपनी जाति सर्वे के बाद आरक्षण बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दिया है, जो अब सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. ऐसे में केंद्र सरकार की जाति जनगणना की घोषणा बिहार में कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं बन सकती.
अब बात विपक्ष की, जो कह रहा है कि जाति जनगणना एक ‘भटकाव’ की रणनीति है. इसे अगर पहलगाम आतंकी हमले के बाद सरकार की ‘चुप्पी’ पर विपक्ष की टिप्पणियों के साथ देखा जाए, तो लगता है जैसे विपक्ष मोदी सरकार के बदले की कार्रवाई न करने की स्थिति में ख़ुश हो रहा है. उन्हें जल्दबाज़ी हो रही है. इस बात की कोई संभावना नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी जवाबी कार्रवाई नहीं करेंगे. वे जानते हैं कि चुप्पी का मतलब होगा ‘ब्रांड मोदी’ का अंत. वे कोई जल्दी में नहीं हैं. बिहार चुनाव अभी छह महीने दूर है.
असल में, हमें यह नहीं पता कि मोदी-शाह ने जाति जनगणना पर यू-टर्न क्यों लिया. लेकिन यह ज़रूर पता है कि इस कदम के परिणाम जटिल और अप्रत्याशित हो सकते हैं—ऐसे कि खुद सत्तारूढ़ पार्टी ने भी शायद उनकी कल्पना न की हो. कम से कम तीन परिणाम तो मैं गिन सकता हूं.
एक फिसलन भरी ढलान
पहला, ओबीसी, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजातियों ने मोदी के पक्ष में एक जाति या जनजातीय समूह के रूप में नहीं, बल्कि एक आकांक्षी वर्ग के रूप में झुकाव दिखाया. वे वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा बताए गए चार वर्गों—ग़रीब, युवा, महिलाएं और किसान—के रूप में सामने आए.
वास्तव में, वे एक पांचवा वर्ग भी जोड़ सकते थे—मध्यवर्ग. मोदी ने इन सभी को बेहतर जीवन, अपने बच्चों के लिए बेहतर भविष्य और एक बेहतर भारत का सपना दिखाया. उनकी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं और कार्यक्रमों के लाभार्थी और भारत के लिए उनके विज़न के हिस्सेदार होने के नाते, इन लोगों ने एक नया वर्ग बना लिया. वे मोदी को तब भी वोट देते, अगर वह ठाकुर, ब्राह्मण या भूमिहार होते.
भाजपा की जाति जनगणना की चाल उनके लिए एक झटका है—यह याद दिलाता है कि मोदी भी पुराने पारंपरिक राजनेताओं की तरह उन्हें केवल जातिगत समूहों के रूप में देखते हैं और उन्हीं की तरह पहचान की राजनीति करना चाहते हैं, जो वर्षों से होती आई है. जाति जनगणना ‘ब्रांड मोदी’ की मूल अवधारणाओं को झटका देती है.
दूसरा, जाति एक बेहद संवेदनशील विषय है जिसमें हर तरह का गर्व और पूर्वग्रह जुड़ा होता है, जो अक्सर तर्क और संवेदनशीलता के साथ मेल नहीं खाते. जनगणना जातीय समूहों को यह बताएगी कि वे संख्या में कहां खड़े हैं और इसलिए राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक रूप से कहां स्थित हैं. जब आधिकारिक आंकड़े सामने आएंगे, तब उनकी प्रतिक्रिया क्या होगी? यह पेंडोरा का बॉक्स खोलने जैसा है. और चाहे भाजपा कुछ भी चाह ले, ‘ब्रांड मोदी’ इस झटके को सह नहीं पाएगा.
जो जातीय समूह खुद को जनगणना में नीचे पाएंगे, वे तत्काल राहत की मांग कर सकते हैं. सरकार खुद को एक फिसलन भरे रास्ते पर पाएगी. राहुल गांधी एंड कंपनी निश्चित रूप से इस मुद्दे को और उछालेंगे और 50 प्रतिशत आरक्षण सीमा को हटाने की मांग करेंगे. जब आधिकारिक रूप से वंचित कहे गए लोग आंदोलित होंगे, तो मोदी सरकार को मानना पड़ेगा, यह उम्मीद करते हुए कि न्यायपालिका उसकी मदद करेगी. लेकिन, आरक्षण सीमा के बाद क्या? यह उन लोगों की पीड़ा को दूर करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा, जिनके लंबे समय से उपेक्षित होने की भावना को अब आधिकारिक मान्यता मिल चुकी होगी। शायद निजी क्षेत्र में आरक्षण! फिर क्या? व्यक्तिगत जातियों और उप-जातियों के लिए बजटीय आवंटन? संपत्ति का पुनर्वितरण? जाहिर है, जाति जनगणना के बाद मोदी सरकार एक खतरनाक ढलान पर फिसल सकती है.
जाति जनगणना का तीसरा परिणाम, हालांकि, कुछ ऐसा है जिसे मौजूदा भाजपा नेतृत्व ने निश्चित रूप से ध्यान में रखा होगा—वह है प्रधानमंत्री मोदी के उत्तराधिकारी के लिए पात्रता मानकों में बदलाव. कल्पना कीजिए एक संभावित स्थिति की. मोदी के तीसरे कार्यकाल के अंत तक, जब जाति जनगणना एक बड़ा राजनीतिक तूफ़ान ला चुकी होगी, और विभिन्न पिछड़ी जातियां सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक शक्ति संरचना में हिस्सेदारी मांग रही होंगी, तब ओबीसी प्रधानमंत्री के उत्तराधिकारी के रूप में कौन सामने आएगा?
निश्चित रूप से कोई ब्राह्मण या ठाकुर नहीं. यह योगी आदित्यनाथ, जो कि ठाकुर हैं, और दो अन्य संभावित दावेदार जो ब्राह्मण हैं—देवेंद्र फडणवीस और नितिन गडकरी—के लिए स्थिति को कठिन बना देगा. असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा, हालांकि अभी तक प्रबल दावेदार नहीं माने जाते, वे भी ब्राह्मण हैं. जाति जनगणना और इसके संभावित प्रभाव उत्तराधिकार की दौड़ में सामने आने वाले नेताओं के लिए पात्रता की परिभाषा बदल देंगे. कोई ऊंची जाति का नेता इस दौड़ में अपनी जगह बनाए रख पाएगा, इसमें संदेह है. तब दो अन्य शीर्ष दावेदार बचेंगे—केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह, जो बनिया हैं, और केंद्रीय मंत्री तथा मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, जो एक ओबीसी नेता हैं.
चौहान के पास एक ओबीसी नेता के रूप में शानदार प्रोफ़ाइल है, उनके पास मध्य प्रदेश में जनाधार है और राज्य से बाहर भी अच्छी पकड़ है. शाह ओबीसी नेता नहीं हैं, लेकिन एक बनिया ओबीसी बनाम ऊंची जातियों के राजनीतिक परिदृश्य में स्वीकार्य चेहरा हो सकता है. शाह के पक्ष में जो बात जाती है, वह है भाजपा संगठन पर उनकी पकड़ और यह तथ्य कि सभी मुख्यमंत्री, सांसद और विधायक उन्हें ही अपनी स्थिति के लिए जवाबदेह मानते हैं. उन्होंने ही इन्हें चुना है. राजनीतिक रूप से अस्थिर समय में यह एक बहुत बड़ा लाभ है.
यह समझ से परे है कि भाजपा जब भारत की सबसे मज़बूत पार्टी की स्थिति में है, तब वह जाति जनगणना जैसे विघटनकारी कदम को क्यों उठाए. अगर राहुल गांधी जैसे विपक्षी नेता ऐसी विघटनकारी राजनीति करते हैं, तो बात समझ में आती है. वे भाजपा के राजनीतिक प्रभुत्व को तोड़ने के लिए बेताब हैं. लेकिन भाजपा क्यों? इस सवाल का जवाब देना मुश्किल है जब हम बड़ी तस्वीर को देखते हैं. लेकिन अगर प्रधानमंत्री मोदी के उत्तराधिकारी की दौड़ के संदर्भ में देखें, तो यह कदम इतना भी बेमतलब और लापरवाह नहीं लगता.
डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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