ऐसी प्रेम कहानी पर कौन मोहित नहीं होगा, जहां एक महिला अपने प्रेमी से मिलने के लिए दोनों देशों, धर्मों और रीति-रिवाजों के बीच की सीमाओं को तोड़ रही है? सीमा हैदर की कहानी ने कई लोगों को यश चोपड़ा की 2004 की ब्लॉकबस्टर वीर ज़ारा की याद दिला दी है. भारतीय बुद्धिजीवी हों या फिर यहां के लोग दोनों खूब मजे से इस कहानी को देख सुन रहे हैं. भारत इस प्रेम को साजिश और कथित जासूसी हमले के रूप में संदेह की नजर से देख रहा है क्योंकि ऐसे मामलों में हनी ट्रैप होने से इनकार नहीं किया जा सकता है. सीमा हैदर की प्रेम कहानी सच्ची है या नहीं, इसका जवाब जांच एजेंसियों को देना है.
हालांकि, जिस चीज़ ने मेरा ध्यान खींचा, वह है पाकिस्तान में इस प्रेम पर आई प्रतिक्रिया.
सीमा हैदर के मामले के बाद से पाकिस्तान के सिंध प्रांत में हिंदुओं पर तो जैसे कहर ही टूट पड़ा है, वहां प्रतिक्रिया के रूप में हमलों की सीरीज़ शुरू हो गई है — मंदिरों को निशाना बनाने से लेकर 30 हिंदुओं को बंधक बनाने तक. पाकिस्तान में हिंदू अल्पसंख्यकों को एक पाकिस्तानी मुस्लिम लड़की के एक भारतीय हिंदू से शादी करने के फैसले का परिणाम भुगतना पड़ रहा है. हालांकि यह जरूर लग रहा है कि यह प्रतिक्रिया कट्टरपंथियों द्वारा प्रेरित है जो हैदर के मामले को पाकिस्तान में पहले से ही पीड़ित हिंदुओं को और अधिक निशाना बनाने के बहाने के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं. पड़ोसी देश में इस तरह की जवाबी कार्रवाई नई बात नहीं है. बाबरी हिंसा के बाद भी पूरे पाकिस्तान में कम से कम 30 हिंदू और जैन मंदिरों को निशाना बनाया गया था, लेकिन हिंदुओं को इस तरह से बिना किसी कारण टार्गेट किए जाने के पीछे की मानसिकता पर क्या कहा जा सकता है?
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हिंदू नफरत को समझना
‘बंधक सिद्धांत’ में एक व्याख्या है, जिसके अनुसार अल्पसंख्यक आबादी पाकिस्तान में बंधकों की तरह है, जिसका उद्देश्य है भारत में मुसलमानों के साथ उचित व्यवहार सुनिश्चित किया जाए. हालांकि, भारत ने कभी भी इस बेतुके विचार पर विश्वास नहीं किया, जैसे उसने कभी भी ‘द्वि-राष्ट्र’ सिद्धांत पर विश्वास नहीं किया.
ऐसा लगता है कि पाकिस्तानी आबादी के कुछ वर्ग में अभी भी यह मानसिकता पर कायम हैं, जहां वे किसी भी घटना के जवाब में अपने ही अल्पसंख्यकों को सज़ा देने लग जाते हैं जिन्हें वे भारतीय मुसलमानों या सामान्य रूप से मुसलमानों के लिए अनुचित मानते हैं. इससे पता चलता है कि उन्होंने अपने अल्पसंख्यकों को कभी भी अपना नहीं माना है बल्कि वो उनके लिए बंधक ही हैं.
‘द्वि-राष्ट्र’ के दायरे में हिंदू और मुस्लिम एक साथ नहीं रह सकते. यह मूलतः ‘उम्माह’ का सिद्धांत का विस्तार है. इस विचार के अनुसार मुसलमानों को एक काल्पनिक राष्ट्र का नागरिक माना जाता है जो राष्ट्रीय सीमाओं से परे है और उन्हें वैचारिक रूप से एकजुट समूह के रूप में देखा जाता है. दुर्भाग्य से ऐसी अवधारणा में गैर-मुसलिमों के लिए कोई जगह नहीं है, कम से कम समान नागरिक के रूप में तो नहीं. इस तरह के विचार के आधार पर गठित राष्ट्र गैर-मुसलमानों के प्रति कट्टरता प्रदर्शित करता है, जैसा कि हम पाकिस्तान में हिंदुओं के मामले में स्पष्ट रूप से देख सकते हैं.
जब एक पाकिस्तानी मुस्लिम महिला भारत के एक हिंदू पुरुष से शादी करती है, तो स्पष्ट रूप से पाकिस्तान में एक वर्ग जो पहले से ही हिंदू अल्पसंख्यक के खिलाफ पूर्वाग्रह रखता है, सोचता है कि हिंदुओं को दंडित करना उचित है. वे सभी हिंदुओं को एक एकल समुदाय के रूप में देखते हैं और ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों के कारण अपनी पहचान भारत से जोड़ते हैं. उनकी धारणा उनकी अपनी वास्तविकता का प्रतिबिंब है क्योंकि वे खुद को एक जनजाति के रूप में देखते हैं.
हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमले केवल किसी विशेष घटनाओं से संबंधित प्रतिक्रियाओं तक ही सीमित नहीं हैं. उन्हें केवल गैर-मुस्लिम या “काफ़िर” के रूप में अपनी पहचान के कारण ही लगातार टार्गेट किया जाता है. हाल ही में पाकिस्तान की एक घटना में 13 हिंदुओं पर उस समय हमला किया गया जब वे सत्संग कर रहे थे.
पाकिस्तान में हर साल हिंदू, ईसाई और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की लगभग 1,000 लड़कियों का अपहरण किया जाता है और उनका जबरन धर्म परिवर्तन कराया जाता है.
यहां तक कि इतिहास में दिल्ली सल्तनत और मुगल काल के दौरान भारत में धार्मिक हिंसा के उदाहरण मौजूद हैं. दक्षिण एशिया के मुस्लिम इतिहासकारों के संस्मरणों में, जो उस अवधि के दौरान मुस्लिम आक्रमणों, दासता और लूट का दस्तावेज़ीकरण करते हैं, हिंदुओं, बौद्धों, सिखों और जैनियों को “काफ़िर” कहा गया है.
यह सच में निराशाजनक है कि ऐसी मानसिकता और धारणाएं आज भी कायम हैं और जो लोग उन्हें चुनौती देने का साहस करते हैं उन्हें अक्सर धमकियों और विरोध का सामना करना पड़ता है. इस्लामिक विद्वान जावेद गमदी को अपने काम के विरोध और अपने जीवन और परिवार के लिए उत्पन्न खतरों के कारण 2010 में पाकिस्तान छोड़ना पड़ा. इस तरह का विरोध अंतर्निहित मुद्दे को संबोधित करने में किसी भी सार्थक प्रगति में बाधा डालता है. नतीजों का डर कई लोगों को प्रचलित मान्यताओं और विचारधाराओं को खुले तौर पर चुनौती देने, असहिष्णुता के चक्र को कायम रखने और सकारात्मक बदलाव की राह में बाधा डालने से रोकता है.
समाधान खोजने की कुंजी पाकिस्तान की गहरी जड़ वाली समस्याग्रस्त मानसिकता को स्वीकार करने में निहित है, जो पाकिस्तानी राज्य के विचार और धार्मिक व्याख्याओं में कठोरता से उत्पन्न होती है. इन वास्तविकताओं को पहचाने बिना किसी समाधान की दिशा में प्रगति चुनौतीपूर्ण हो जाती है.
पाकिस्तान 2019 में नहदलातुल उलमा के वाक्ये से काफी कुछ सीख सकता है. इंडोनेशिया स्थित इस प्रमुख इस्लामी संगठन ने एक उद्घोषणा जारी की, जिसमें मुसलमानों से गैर-मुसलमानों का जिक्र करते समय ‘काफिर’ शब्द का इस्तेमाल करने से परहेज करने का आग्रह किया गया. उन्होंने माना कि यह शब्द आपत्तिजनक है और “धार्मिक हिंसा” की धारणा को कायम रखता है. अधिक समावेशी और सम्मानजनक दृष्टिकोण अपनाकर, यह विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच समझ और स्वीकृति के माहौल को बढ़ावा देता है. धार्मिक सहिष्णुता और संवाद के ऐसे उदाहरणों का अनुकरण पाकिस्तान में अधिक सामंजस्यपूर्ण समाज का मार्ग प्रशस्त कर सकता है.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वे ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक वीकली यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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