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Saturday, 2 November, 2024
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SC ने महिलाओं के लिए सेना में स्थायी कमीशन का रास्ता खोला लेकिन सख्त भूमिकाओं के लिए उन्हें तैयार रहना पड़ेगा

सेना योग्यता के बूते चलने वाला संगठन है इसलिए महिलाओं को इसके पिरामिडनुमा ढांचे में ऊंचे ओहदों पर पहुंचने के लिए प्रतियोगिता करनी पड़ेगी.

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सुप्रीम कोर्ट ने महिला शॉर्ट सर्विस कमीशन अधिकारियों (डब्ल्यूएसएससीओ) को स्थायी कमीशन देने के मामले में सेना की भेदभावपूर्ण चयन कसौटी को रद्द करने का फैसला सुना दिया है. अब वार्षिक कन्फिडेंशियल रिपोर्ट (सीआर) का भेदभापूर्ण मूल्यांकन और चयन के मामले में मौजूदा मेडिकल मानदंडों को पिछली तारीख से लागू नहीं किया जाएगा, जो कि आम तौर पर सेवा के पांचवें या दसवें वर्ष में किया जाता है.

कोर्ट ने निर्देश दिया कि जिन उम्मीदवारों को स्थायी कमीशन नहीं दिया गया है, उन सब पर उनकी सेवा के 5/10 वर्षों के समय में लागू मेडिकल मानदंडों के आधार पर नये सिरे से विचार किया जाए और उनकी सभी वार्षिक सीआर का निश्चित रूप से मूल्यांकन किया जाए.

यह फैसला सेना द्वारा तैयार उस चयन कसौटी का परिणाम था, जो ‘रक्षा मंत्रालय के सचिव बनाम बबीता पूनिया मामले’ में सुप्रीम कोर्ट के ही 17 फरवरी 2020 के फैसले के बाद तय की गई थी. उस समय कोर्ट ने आदेश दिया था कि सेना में शॉर्ट सर्विस कमीशन में कार्यरत महिलाओं ने स्थायी कमीशन की जो मांग की थी उसका आकलन किया गया और इस मांग को उचित माना गया.


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सख्त टिप्पणियां

सुप्रीम कोर्ट ने 25 मार्च 2021 को अपना ताजा फैसला सुनाते हुए सेना में स्त्री-पुरुष के मामले में भेदभाव पर सख्त टिप्पणियां की थी, जो मेरे विचार से बाकी दोनों सेनाओं के लिए भी लागू होती हैं. अदालत का आक्रोश उसके फैसले की शुरुआत में दिए गए उद्धरण से जाहिर होता है. यह उद्धरण अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के जज स्व. जस्टिस रुथ बेदर जिंसबर्ग का है— ‘मैं अपने लिंग (sex) के लिए किसी इनायत की मांग नहीं कर रही हूं. अपने बंधुओं से मैं सिर्फ यह गुज़ारिश कर रही हूं कि वे मेरी गर्दन पर से अपने पैर हटा लें.’

सुप्रीम कोर्ट ने आगे लिखा है- ‘सेना ने मूल्यांकन की जो कसौटी बनाई है वह याचिकाकर्ताओं के प्रति व्यवस्थागत भेदभाव से भरी है… इस भेदभाव ने उन्हें आर्थिक और मानसिक नुकसान पहुंचाया है और यह उनकी मान-मर्यादा का अपमान है.’

इस फैसले ने डब्ल्यूएसएससीओ को आर्म्स/सर्विसेज़ में नीतिगत आधार पर सेवा देने के मामले में समान अधिकारों के लिए 17 साल तक चली कानूनी लड़ाई का पटाक्षेप कर दिया है. यह कानूनी लड़ाई 2003 में दिल्ली हाई कोर्ट में शुरू हुई थी और उसने 12 मार्च 2010 को अपना फैसला सुनाया था.

सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला 17 मार्च 2020 को सुनाया और दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को कायम रखते हुए उसे और सुधार दिया. अब 25 मार्च को जो ताजा फैसला आया है उसमें सेना को अपनी चयन कसौटी में खामी को दूर करने का निर्देश दिया गया है. यहां यह बताना उचित होगा कि चयन कसौटी में सुधार दिल्ली हाई कोर्ट के 12 मार्च 2010 के फैसले को लागू करने में सेना की दशक भर पुरानी टालमटोल के कारण जमा हुए बकाया काम को एकबारगी निपटाने की कवायद होगी. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने तब कोई ‘स्टे’ नहीं दिया था जब उसने मामले की सुनवाई 2011 में की थी.


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अंतिम मोर्चे की पुकार

तो क्या अब भारतीय महिलाओं ने सेनाओं में पुरुषों के बराबर आने का अंतिम मोर्चा फतह कर लिया है? जीत अभी बहुत दूर है, बावजूद इसके कि उन्होंने तीन दशक तक लंबा संघर्ष किया है (सेना में महिला अफसरों को 1992 में शामिल किया गया था). अभी उन्होंने छोटा-मोटा मोर्चा ही जीता है और महिला अफसरों को केवल 10 आर्म्स/सर्विसेज़ में नियुक्त किया जाता है. उन्हें रिक्त हुए पदों के मुताबिक प्रवेश दिया जाता है. महिलाओं को सेना में योग्यता के आधार पर पुरुषों से प्रतियोगिता का अधिकार नहीं दिया गया है. 2020 से केवल सिपाही के पद पर प्रतीकात्मक नियुक्ति की जाने लगी है.

महिलाओं को अभी भी निम्नलिखित अवसरों से वंचित रखा जा रहा है-

. 10+2 की शिक्षा के बाद नेशनल डिफेंस अकादमी के जरिए और ग्रेजुएशन की पढ़ाई के बाद संबंधित सर्विस अकादमियों के जरिए उन्हें सेना में सीधे स्थायी कमीशन नहीं दी जाती.

. फ्रंट पर लड़ने वाले आर्म्स को मेकेनाइज्ड इनफैंट्री/ आर्मर्ड कोर और आर्टिलरी में तैनात नहीं किया जाता.

. नौसेना में पोत/ पनडुब्बी पर सर्विस में उन्हें शामिल नहीं किया जाता. भारतीय नौसेना ने सिद्धांततः इस प्रस्ताव को स्वीकार किया है, बशर्ते महिलाओं के लिए खास सुविधाओं की व्यवस्था की जाए.

. उन्हें स्पेशल फोर्सेज़ में शामिल नहीं किया जाता.

. उनकी भर्ती सोल्जर, सेलर और एअर वारियर के पदों पर नहीं की जाती. थल सेना, नौसेना और वायु सेना में ये पद अफसर के पद के नीचे के हैं. तीनों सेनाओं में इन पदों पर प्रयोग के तौर पर प्रतीकात्मक भर्ती करने की तैयारी चल रही है. सेना ने मिलिटरी पुलिस कोर और असम राइफल्स में इसे शुरू कर दिया है.

. सेना के सभी पदों पर सीमित निश्चित खाली पदों की जगह खुली, बिना स्त्री-पुरुष भेदभाव के, योग्यता के आधार पर प्रतियोगिता के जरिए उनकी नियुक्ति अभी भी नहीं हो रही है.

महिलाएं जबकि सैन्यतंत्र में पितृसत्तात्मक अनुग्रह की भावना के साथ-साथ अंतिम बाधाओं को तोड़ने लगी हैं तब उनकी आकांक्षाओं का सेना के कठोर मानदंडों और सेवा शर्तों से टकराव होना तय है.


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सैन्य मानदंड बनाम महिलाओं की आकांक्षाएं

शुरू में सेना ने दिखावे के लिए महिला अफसरों को नियुक्त किया था, तब शारीरिक फिटनेस के मानदंड काफी नीचे रखे गए थे- पुरुषों के लिए जो मानदंड थे उसके 50 फीसदी के बराबर. महिलाओं को इसका विरोध करना चाहिए था लेकिन वे खामोश रहीं और सैनिकों वाले शारीरिक कामों की कठोरता का पालन न कर सकीं. बाद में फिटनेस के मानदंडों में बदलाव किया गया और अभी ही वे पुरुषों के लिए तय मानदंड से 25-30 फीसदी कमतर हैं. महिलाओं के शरीर के ऊपरी हिस्से की फिटनेस के लिए कोई टेस्ट नहीं लिया जाता. समान अधिकारों और समान अवसरों का मतलब है शारीरिक फिटनेस के समान मानदंड भी, जो स्त्री-पुरुष के आधार पर नहीं बल्कि भूमिका के आधार पर तय होने चाहिए. महिला योद्धाओं के लिए कोई अलग युद्धभूमि नहीं होती.

लेकिन शारीरिक सीमाएं भी तो होती हैं. अमेरिका में ‘सेंटर फॉर मिलिटरी रेडिनेस’ के अध्ययनों के मुताबिक, महिला सैनिक पुरुषों से कद-काठी में औसतन छोटी होती हैं, उनके शरीर के ऊपरी हिस्से की ताकत 45-50 फीसदी कम होती है और एरोबिक (कसरत) क्षमता, जो कि सहन शक्ति के लिए जरूरी है, 25-30 फीसदी कम होती है. मेरे विचार से, आर्म्स/सर्विसेज के लिए महिलाओं में शारीरिक क्षमता पुरुषों की इस न्यूनतम/संतोषजनक क्षमता के बराबर होनी चाहिए. फ्रंट पर लड़ने और स्पेशल फ़ोर्सेज के लिए यह पुरुषों के बराबर होनी चाहिए ताकि वे युद्ध की परेशानियों को झेल सकें.

इसलिए, अकेले शारीरिक मानदंडों के कारण सेना में महिलाओं की भर्ती विशेष भूमिकाओं के लिए ही सीमित हो जाती है.
स्त्री-पुरुष समानता का तकाजा यह भी है कि सेवा की शर्तों और स्थितियों में कोई छूट न दी जाए. सेना को महिलाओं की विशेष शारीरिक जरूरतों और मातृत्व तथा शिशु देखभाल के लिए छुट्टी आदि से संबंधित विशेष अधिकारों को स्वीकार करना पड़ेगा.

अनुभव बताता है कि शादी और बच्चे के जन्म के बाद महिलाओं के कामकाज में कमी आ जाती है. बच्चों की खातिर शांतिपूर्ण क्षेत्रों में या पति के साथ अधिकृत समय से ज्यादा तैनाती का अनुरोध करने की प्रवृत्ति देखी जाती है. उनकी संख्या जब कम थी और सेवा काल भी 10+4 साल था तब तो इस तरह की समस्याओं को निपटाना आसान था लेकिन उनके ज्यादा भर्ती और स्थायी कमीशन लागू होने के बाद ये समस्याएं कई गुना बढ़ जाएंगी.

महिलाओं को 50 फीसदी सेवा अवधि परिवार से दूर, पुरुषों को प्राप्त सुविधाओं के साथ फील्ड में बिताना होगा. सेना के लिए स्त्रियों और पुरुषों के लिए अलग-अलग यूनिट/संगठन बनाने की गुंजाइश शायद ही है. महिलाओं को मिश्रित यूनिटों में पुरुषों के स्वाभाविक आचरणों को सहते हुए काम करना पड़ सकता है. अब तक वे अफसर के रूप में ऊंचे पद के अधिकारों के साथ पुरुष सैनिकों के साथ काम करती रही हैं. अब वे सैनिकों के रूप में भर्ती की जाएंगी तो सेनाओं को इसके कारण पैदा होने वाली स्थितियों से निपटने के लिए नियम-कायदे बनाने होंगे. यहां यह बताना उचित होगा कि अमेरिकी सेना में अनुशासन भंग की दूसरे मामलों से ज्यादा महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार के मामले ज्यादा होते हैं.

सेना योग्यता-क्षमता के बूते चलने वाला संगठन है, इसके पिरामिडनुमा ढांचे में ऊपर के ओहदों तक पहुंचने के लिए महिलाओं को प्रतियोगिता का सामना करना पड़ेगा. प्रोमोशन में आरक्षण की कोई गुंजाइश नहीं है.


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आगे का रास्ता

मैं इस बात का पक्षधर हूं की महिलाओं को सेना के सभी कामों में बिना किसी प्रतिबंध के शामिल किया जाना चाहिए, जब तक कि वे इसके योग्य हैं और कठोर मानदंडों पर खरी उतरती हैं. सेना को अपनी पितृसत्तात्मक प्रवृत्ति छोड़नी चाहिए और सभी पदों और कामों के लिए महिलाओं की बहाली की व्यावहारिक नीति बनानी चाहिए. महिला सैनिकों के लिए जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर जरूर बनाया जाना चाहिए. सेना को सर्विस में महिलाओं के लिए जरूरी शारीरिक फिटनेस के मानदंड तय करने चाहिए. ये मानदंड पुरुष सैनिकों के लिए संतोषजनक/औसत माने गए मानदंडों के बराबर होने चाहिए. लड़ाई के लिए आर्म्स और स्पेशल फोर्सेज़ में उनके लिए मानदंड पुरुषों के लिए तय मानदंड के बराबर होने चाहिए.

महिलाओं के लिए सेवा शर्तें और स्थितियां संगठन के हितों के मुताबिक संहिताबद्ध की जानी चाहिए. स्त्री-पुरुष भेद से संबंधित अपराधों और समस्याओं के लिए फौजी कानून, नियम और नियमन व्यवस्था तय की जानी चाहिए. शुरुआत के लिए महिलाओं के लिए भर्ती के मानदंडों में समझौता किए बिना 5 प्रतिशत का कोटा तय किया जा सकता है. युद्ध में स्वेच्छा से जाने के लिए तैयार महिला अफसरों/सैनिकों को ही मानसिक तथा शारीरिक फिटनेस के मानदंडों पर खरी उतरने के बाद लड़ाकू टुकड़ी में शामिल किया जाना चाहिए.

अब तक जो बहस और कानूनी लड़ाई चली है वह स्त्री-पुरुष समानता के लिए चली है, महिलाओं के प्रदर्शन के नैतिक मूल्यांकन के आधार पर नहीं चली है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले योग्यता की कसौटी से ज्यादा संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16 पर आधारित रहे हैं. अब गेंद महिलाओं के पाले में है कि वे शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक और प्रदर्शन तथा सेवा शर्तों के कड़े मानदंडों पर खरी उतरें. फौज में पुरुष वर्चस्व को तोड़ने के सुधारों का दारोमदार योग्यता पर आधारित प्रदर्शन पर ही टिका होगा.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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