चूंकि विनायक दामोदर सावरकर के माफीनामे से बात शुरू हुई है, तो आलोचकों और विश्लेषकों ने एक बार फिर से, इतिहास के पन्ने खंगालकर अपना-अपना नजरिया सामने रखा है. इसमें मुख्य रूप से दो धाराएं सामने आई हैं.
पहला विचार वह है, जिसे खुद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सामने रखा है. ये पक्ष कह रहा है कि सावरकर महान स्वतंत्रता सेनानी थे और उनके व्यक्तित्व पर जो ‘एकमात्र’ दाग उनके माफीनामे को लेकर लगाया जाता है, वह तो उन्होंने ‘गांधी के कहने पर’ लिखा था. इस विचार के समर्थक गांधी द्वारा सावरकर के लेकर जताई गई चिंता और उनके समर्थन को एक वाशिंग मशीन की तरह देख रहे हैं, जिसमें से निकलकर सावरकर का व्यक्तित्व बेदाग और चमकदार बन जाता है.
वहीं दूसरा पक्ष ये साबित कर पा रहा है कि सावरकर तो 1911 में सेल्युलर जेल में गए और इसके बाद कम से कम दो माफीनामा वे गांधी के भारत आने से पहले ही लिख चुके थे. इसलिए सावरकर जब माफी मांगने की शुरुआत कर रहे थे, तब उसमें गांधी का कोई रोल नहीं था. वे यह भी कह रहे हैं, कि गांधी ने सीधे तौर पर सावरकर को कभी नहीं कहा कि अंग्रेजों से माफी मांगो. यह तो सावरकर की अपनी इच्छा या जेल में रहने का भय था कि वे माफी मांग रहे थे.
सावरकर को सिर्फ माफीनामे तक सीमित रखने की कोशिश
ये दो पक्ष अलग-अलग नजर आ रहे हैं, लेकिन इनमें दो समानताएं हैं. एक, दोनों पक्ष बहस को सावरकर के माफीनामे तक सीमित रख रहे हैं, मानो सावरकर ने माफी मांगी तो वे खराब और माफी नहीं मांगी या गांधी के कहने पर माफी मांगी तो अच्छे. ये दोनों पक्ष सावरकर के पूरे व्यक्तित्व, कृतित्व और विचार को उनके माफीनामे तक सीमित कर रहे हैं. और दो, दोनों पक्ष इस बात पर एकमत हैं कि गांधी का व्यक्तित्व महान था और वे ऐसे पारस पत्थर हैं, जिन्होंने जिसको छू दिया, वो सोना बन गया.
इस लेख की मूल स्थापना ये है कि सावरकर को उनके माफीनामे के आसपास देखने का नजरिया गलत है. सावरकर ने अगर माफी न भी मांगी होती, तो भी उनके विचार और उन विचारों की भारतीय राजनीति पर जो छाया है, उस पर चर्चा-प्रशंसा और आलोचना होनी चाहिए. तथ्यों की रोशनी में मेरे पास ये कहने के लिए पर्याप्त कारण है कि गांधी और सावरकर अपनी विचार यात्राओं में उतने दूर नहीं थे, जितना के खासकर वामपंथी और वामपंथ के प्रभावित मुख्यधारा के इतिहासकार बताना चाहते हैं. गांधी और सावरकर कई प्रमुख सवालों और मुद्दों पर एक जगह खड़े हैं और उनके विरोध में तत्कालीन इतिहास की कोई धारा है, तो उसका नेतृत्व बाबा साहब डॉ. बी.आर. आंबेडकर कर रहे थे.
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हिंदू-हिंदी-हिंदुस्तान और वर्ण व्यवस्था पर सावरकर और गांधी
गांधी और सावरकर दोनों की राष्ट्र की अवधारणा बिल्कुल समान है और ये भारत के मुख्यधारा के इतिहासकारों की भी अवधारणा है. इस धारणा के मुताबिक भारत एक प्राचीन राष्ट्र है, जो कब बना ये किसी को नहीं पता. ये हमेशा से रहा है. इस धारणा का विस्तार ये है कि भारत का इतिहास एक निरंतरता में हैं और हिंदू धर्म और संस्कृति इस राष्ट्र का मूल तत्व है.
20वीं सदी के तीसरे दशक आते आते ब्रिटिश भारत का माहौल बुरी तरह तरह सांप्रदायिक हो चुका था और मुस्लिम लीग का असर काफी बढ़ चुका था. वहीं कांग्रेस के अंदर हिंदुओं की संख्या नाम मात्र (4% की थी. कांग्रेस के मंच से हिंदू प्रतीकों का खूब इस्तेमाल हो रहा था और रामधुन से लेकर वंदे मातरम के नारे लग रहे थे. गाय से लेकर गीता और रामराज्य की बात गांधी कांग्रेस के मंच से कर रहे थे. इसके बावजूद गांधी कह रहे थे कि उन्हें अविभाजित आजाद भारत चाहिए, वहीं सावरकर को भी अविभाजित भारत चाहिए था. ये बच्चों की तरह की जिद थी, जिसे क्यों मान लेना चाहिए, इसकी वाजिब वजह दोनों ही नहीं बता रहे थे.
सावरकर और गांधी दोनों को चाहिए था अखंड भारत
सावरकर इस मामले में ज्यादा स्पष्टवादी थे. वे बाकायदा लिख रहे थे कि भारत भूमि हिंदुओं की है, और हिंदू की उनकी परिभाषा के लच्छे हटा दें तो हिंदू थे कि जो लोग भारत को पितृभूमि और पवित्र भूमि मानते हैं. ऐसे लोग ही सावरकर के हिंदू हैं. इस परिभाषा में हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन तथा अछूत कही जाने वाली जातियां तो आ रही थीं, लेकिन खासकर ईसाई और मुसलमान इस परिभाषा में बाहर हो जा रहे थे. सावरकर ये कहते हुए कि हिंदू और मुसलमान दो अलग राष्ट्र है, ये वकालत कर रहे थे कि इन्हें एक ही देश में रहना होगा, जिसमें हिंदुओं का वर्चस्व होगा और मुसलमान रहेंगे, पर हिंदुओं के अधीन.
गांधी भी ये कह रहे थे कि हिंदू और मुसलमानों का एक ही देश होगा. लेकिन जैसा कि आंबेडकर अपनी चर्चित कृति पाकिस्तान या भारत का विभाजन (1940) में कहते हैं कि गांधी और सावरकर के विभाजन पर विचार आश्चर्यजनक रूप से एक हैं, लेकिन जहां सावरकर के विचार स्पष्ट हैं, वहीं गांधी गोलमोल बात कर रहे हैं. गांधी इसका कोई नक्शा पेश नहीं कर रहे थे कि मुसलमानों की नए राष्ट्र में क्या जगह होगी. इस गंभीर सवाल को वे हिंदू-मुस्लिम भाई भाई और ईश्वर अल्लाह तेरो नाम कह कर टालने में जुटे थे.
इतिहास ने साबित किया कि ये न होना था और न हुआ. डॉ. आंबेडकर ने लिखा है कि – ‘सावरकर की (अखंड राष्ट्र की) योजना में कम से कम ये तो स्पष्ट है कि मुसलमानों को ये मिलेगा और इससे ज्यादा नहीं मिलेगा. मुसलमानों को ये मालूम था कि हिंदू महासभा की योजना में वे कहां हैं. वहीं कांग्रेस के मामले में मुसलमानों को समझ में नहीं आता कि उनके बारे में कांग्रेस क्या सोचती है, क्योंकि कांग्रेस मुसलमानों और अल्पसंख्यकों के मामले में अगर दोहरापन नहीं भी कर रही हैं और कूटनीति जरूर कर रही है.’ ये जरूर है कि गांधी की मुस्लिम संबंधी नीति में बदला लेने या घृणा का तत्व नहीं है, जो सावरकर में भरपूर है.
गांधी और सावरकर दोनों के वर्ण व्यवस्था पर क्या विचार थे, इस बारे में बहुत ज्यादा लिखा जा चुका है, इसलिए उन बातों को इस लेख में दोहराने की जरूरत नहीं है. खासकर गांधी ने तो पूरे जीवन में कभी भी वर्ण व्यवस्था को खारिज नहीं किया और इसे भारतीय समाज के लिए उपयोगी मानते रहे. बेशक वे छुआछूत के खिलाफ थे और वर्ण व्यवस्था को मानवीय तरीके से लागू किए जाने के समर्थक थे. गांधी और जातिवाद के बारे में आंबेडकर से लेकर पेरियार ने काफी लिखा है.
वहीं सावरकर जाति और वर्ण के प्रश्न पर गांधी की तुलना में ज्यादा उदार नजर आते हैं और उनकी हिंदू की परिभाषा भी विस्तृत है. ये शायद जरूरी भी रहा होगा, क्योंकि मुसलमानों के मुकाबले बड़ी गोलबंदी करने और संख्या बल जुटाने के लिए ये आवश्यक रहा होगा कि हिंदू के दायरे को बड़ा बनाया जाए. सावरकर अपनी किताब हिंदुत्व में हिंदू राष्ट्र के लिए जिन तत्वों को महत्वपूर्ण मानते हैं, उनमें वेद, भाषा, धर्म, भूगोल से भी ऊपर वर्ण व्यवस्था को रखा गया है. वे कहते हैं कि इन तत्वों की भारतीय राष्ट्र पर गहरी छाप है. वे आगे लिखते हैं कि चार वर्णों की व्यवस्था बुद्धिस्ट दौर में भी टिकी रही और इसका असर इतना ज्यादा रहा कि राजा-महाराजाओं में ये बताने की होड़ मची रही कि वर्ण व्यवस्था उन्होंने बनाई है.
वे लिखते हैं कि जब वर्ण व्यवस्था अपने उद्देश्यों को पूरा कर लेगी, तो वह खुद ब खुद समाप्त हो जाएगी. लेकिन वे इस काम को तेज करने की कोई मंशा नहीं रखते और न ही ये बताते हैं कि वर्ण व्यवस्था कब तक समाप्त हो जाएगी. वर्ण व्यवस्था के टिकाऊ होने को लेकर गांधी और सावरकर एक ही जगह खड़े हैं.
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राष्ट्र की भाषा और हिंदीवाद
गांधी और सावरकर दोनों इस बात को मानते हैं कि भारत राष्ट्र की एक भाषा होनी चाहिए. गांधी गुजराती और सावरकर मराठी भाषा की पृष्ठभूमि से आते हैं और दोनों ने अपना अधिकतर लेखन इंग्लिश में किया है. लेकिन गांधी के राम राज्य और सावरकर के हिंदू राष्ट्र की भाषा हिंदी है. सावरकर राष्ट्रीय एकता के लिए हिंदी या हिंदुस्थानी भाषा की वकालत करते हुए कहते हैं – कोई नानक, कोई चैतन्य या कोई रामदास इस भाषा में पूरे देश में घूम और अपनी बातों का प्रचार इसी भाषा में कर सकते थे, जबकि अपनी भाषा में वे अपने प्रांत में ही इस काम को करने में सक्षम थे. वे कहते हैं हमारी वास्तविक राष्ट्रभाषा का विकास सिंधुस्थान या सिंधु या हिंदुस्थानी या हिंदू जैसे पुराने नामों के विकास से जुड़ा हुआ है, लेकिन ये एक तथ्य है कि पूरे राष्ट्र की साझा भाषा हिंदुस्थानी या हिंदी ही कही जाएगी. सावरकर संस्कृत को देवभाषा मानते हैं और जिस हिंदी को वे राष्ट्रभाषा बनाने की कल्पना कर रहे हैं, वह बोलचाल की हिंदी नहीं, बल्कि संस्कृतनिष्ठ हिंदी है. गांधी और कांग्रेस की भी राष्ट्रभाषा की कल्पना में हिंदी ही है, बेशक गांधी संस्कृतनिष्ठ हिंदी की जगह हिंदुस्तानी (सावरकर हिंदुस्थानी कहते हैं) भाषा की वकालत करते हैं, जो आम बोलचाल की भाषा है.
भरूच में गुजरात एजुकेशन बोर्ड की मीटिंग में दिए भाषण में गांधी कहते हैं – ‘हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है क्योंकि देश के बहुसंख्य लोग ये भाषा बोलते हैं.’ गांधी चाहते हैं कि पूरे देश के लोग एक दूसरे से बात करते समय हिंदी बोलें. 1918 में उन्होंने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना तक की थी. उन्होंने उत्तर भारत के लोगों को दक्षिण भारतीय भाषाएं सीखने के लिए नहीं कहा, लेकिन दक्षिण भारत में जाकर इस बात का प्रचार किया कि वे हिंदी सीखें!
इस तरह हम पाते हैं कि धर्म, राष्ट्र, भाषा और जाति के प्रश्न पर गांधी और सावरकर उतने दूर नहीं है, जितना बताया जाता है. इन विषयों पर गांधी और सावरकर का वैचारिक और तात्विक विरोध की धारा का नेतृत्व डॉ. आंबेडकर करते हैं. डॉ. आंबेडकर हिंदू राष्ट्र को आपदा कहते हैं और हर कीमत पर उससे बचने की सलाह देते हैं. वे कहते हैं कि हिंदूइज्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए खतरा है. वे भारत को एक प्रचीन, सदा से विद्यमान राष्ट्र नहीं मानते बल्कि संविधान सभा में कहते हैं कि – भारत एक बनता हुआ राष्ट्र है (‘India is a nation in the making.’) भाषा के प्रश्न पर भी डॉ. आंबेडकर उदार हैं और किसी भाषा को औरों पर थोपे जाने की वकालत नहीं करते.
आंबेडकर ने सावरकर के अखंड राष्ट्र के सिद्धांत को वैचारिक तौर पर अव्यावहारिक बताते हुए कहा कि अगर सावरकर हिंदुओं के लिए हिंदू राष्ट्र मांग रहे हैं तो वे कैसे कह सकते हैं कि मुसलमानों का मुस्लिम राष्ट्र नहीं होना चाहिए.
जो राजनीतिक स्थिति 1940 तक बन चुकी थी, उसमें आंबेडकर स्पष्ट देख पा रहे थे कि विभाजन को टाला नहीं जा सकता, जबकि गांधी और सावरकर इस समय भी अखंड राष्ट्र की बात कर रहे थे. इतिहास ने साबित किया कि डॉ. आंबेडकर की विश्व दृष्टि दोनों से बेहतर और सुसंगत थी.
(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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