युद्धपोत DD-603 के पृष्ठभाग पर जिंदा मेमनों को काटने के लिए लाया गया था. डेक पर फारसी कालीन बिछे थे, एक विदेशी तंबू ताना गया था, और बंदूकों के टर्रेट में रखे विस्फोटकों के ऊपर अंगारों पर लगातार कॉफी पक रही थी. सात फुट लंबे नूबियन गुलाम कमर में लटकती तलवारों के साथ यह सब देख रहे थे. इसी माहौल में किंग अब्दुलअज़ीज़ बिन अब्दुर्रहमान अल सऊद नमाज़ पढ़ रहे थे और अपने दरबारी ज्योतिषी माजिद इब्न खतैला से सलाह ले रहे थे. उनके बेटे, अमीर मोहम्मद और अमीर मंसूर, नीचे डेक में जाकर 1940 की फिल्म टू मेनी गर्ल्स देख रहे थे, जो एक बोल्ड सीन के कारण मशहूर हुई थी.
इस साल उस ऐतिहासिक मुलाक़ात को आठ दशक पूरे हो रहे हैं जब अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डेलानो रूज़वेल्ट ने मिस्र की ग्रेट बिटर लेक पर सऊदी राजा से मुलाक़ात की थी, और आधुनिक अर्थव्यवस्था को संभाले रखने वाला समझौता किया था—अमेरिकी सैन्य सुरक्षा के बदले खाड़ी देशों से सस्ती और स्थिर तेल आपूर्ति.
लेकिन अब इस समझौते के टूटने के संकेत मिल रहे हैं. पिछले हफ्ते खबर आई कि सऊदी अरब को दि लाइन नामक अपनी साइंस-फिक्शन सिटी का काम रोकना पड़ा है. 170 किलोमीटर लंबी और 500 मीटर ऊंची इस ऑल-मिरर-ग्लास सिटी ने पहले ही देश के 1 ट्रिलियन डॉलर के पब्लिक इन्वेस्टमेंट फंड में 50 बिलियन डॉलर की भारी कटौती कर दी है.
इस महीने जब क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान वाशिंगटन जाएंगे, तो उम्मीद है कि F-35 लड़ाकू विमानों की बिक्री और इज़राइल की मान्यता पर सौदा होगा. लेकिन सऊदी इससे भी बड़ा पैकेज चाहता है—मजबूत सुरक्षा गारंटी, सिविल न्यूक्लियर डील और टेक्नोलॉजी सहयोग, ताकि तेल के बाद का भविष्य बनाया जा सके.
कम तेल कीमतें—जो राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की आर्थिक नीति का हिस्सा हैं—सऊदी बजट घाटे को खतरनाक स्तर पर ले गई हैं. दूसरी ओर, अमेरिका अब दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक बन चुका है, जिससे तेल की कीमतों में उछाल की संभावना कम हो गई है. ट्रंप देशों पर अमेरिकी तेल और गैस खरीदने का दबाव भी बढ़ा रहे हैं—जो सऊदी नहीं कर सकता.
कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि सऊदी शाही दरबार अब लुई XIV के दरबार जैसा होता जा रहा है—जिसकी शानो-शौकत और युद्धप्रियता ने फ्रांसीसी क्रांति की जमीन तैयार की थी.
दि लाइन जो टिक नहीं सकती
भले ही सऊदी तेल दुनिया का स्रोत न बना रहे, लेकिन उसके फायदे अभी भी बहुत बड़े हैं. सऊदी कुओं में दुनिया का सबसे ज्यादा और सबसे विविध तेल है, और बेहद कम लागत पर. प्राकृतिक दबाव के कारण वहां एक कुएं से रोज़ 3,000 बैरल तक निकलते हैं, जबकि अमेरिका में यह औसतन 27 बैरल है. सऊदी सिर्फ 4 डॉलर प्रति बैरल में तेल निकाल सकता है, जबकि अमेरिकी शेल की लागत 35–50 डॉलर है.
सबसे अहम है सऊदी के बड़े भंडार—1.5 मिलियन वर्ग किलोमीटर में फैले लगभग 90 भंडारों में से केवल 17 ही उत्पादन में हैं. सऊदी अरामको जरूरत पड़ने पर तुरंत उत्पादन बढ़ा सकता है, जैसा 1986 और 2011 में किया गया था.
लेकिन यही उसका बड़ा संकट भी है—तेल इतना ज्यादा है कि उससे देश के सपने पूरे नहीं हो सकते. पिछले साल वित्तीय एजेंसी फिच ने चेतावनी दी थी कि विज़न 2030 जैसे मेगाप्रोजेक्ट्स के लिए पर्याप्त कमाई नहीं है. कारण साफ है—भारत और चीन जैसे खरीदारों को आकर्षित करने के लिए युद्धग्रस्त रूस 2–4 डॉलर प्रति बैरल की छूट दे रहा है. पिछले महीने सऊदी को भी 2.20 डॉलर प्रति बैरल की छूट देनी पड़ी.
2023 के अनुमानों के अनुसार, सऊदी को अपना बजट संतुलित रखने के लिए तेल की कीमत लगभग 96.20 डॉलर प्रति बैरल चाहिए. लेकिन अमेरिकी तेल उत्पादन बाजार में कीमतों को ऊपर नहीं जाने दे रहा.
रूस, वेनेज़ुएला और सऊदी सब 100 डॉलर प्रति बैरल की कीमत चाहते हैं, लेकिन अमेरिका के रहते यह संभव नहीं.
पारंपरिक उत्पादक कीमतें गिराकर अमेरिकी शेल को खत्म कर सकते हैं, लेकिन तब उनके पास अपने मेगासिटी बनाने या युद्ध लड़ने के लिए पैसा ही नहीं बचेगा.
सऊदी अरब के रेत के महल
इसमें कोई संदेह नहीं कि सऊदी अरब ने अपनी समस्याओं को खुद भी बढ़ाया है, जिसकी वजह नेतृत्व की अति-आत्मविश्वास और खराब सलाह रही. दि लाइन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. पत्रकार-आर्किटेक्ट एलिसन किलिंग के अनुसार, जिस गति से इस परियोजना को पूरा करने की कल्पना की गई थी, उसे पूरा करने के लिए नीओम के छोटे पोर्ट पर हर आठ मिनट में एक कंटेनर लगना पड़ता—और उसमें फ्रांस में एक साल में बनने वाले जितने सीमेंट की मात्रा होती, उतनी ही मात्रा में दुनिया के सबसे बड़े क्लैडिंग निर्माता का पूरा उत्पादन भी. परियोजना के कुछ हिस्से, जैसे दि शैंडेलियर, एक 30-मंज़िला इमारत जिसे पुल से उल्टा लटका कर बनाना था, भौतिकी के नियमों को ही चुनौती देता था.
जैसे-जैसे पैसा बहता गया, डिजाइनरों ने कई स्पष्ट चुनौतियों को नजरअंदाज कर दिया. योजना के अनुसार, एक हाई-स्पीड रेल लाइन 20 मिनट में लोगों को नए एयरपोर्ट तक ले जाएगी. लेकिन इस ट्रेन में यात्रियों का सामान फिट नहीं होता, इसलिए यात्रियों को अपना सामान आठ घंटे पहले अपने दरवाजे के बाहर रख देना पड़ता.
उल्टी इमारत में सीवेज की व्यवस्था तो और भी विचित्र थी. किलिंग के अनुसार, टॉयलेट्स से निकलने वाला सीवेज सैकड़ों शटल कारों द्वारा इकट्ठा किया जाना था, जो पुलों पर लगे रिट्रैक्टेबल प्लेटफॉर्म से आ-जा रही होतीं.
पीआर एजेंसियां दि लाइन को सभ्यता में एक नए युग की तरह बेच रही थीं—दावा था कि यह रोमन सम्राट मार्कस उल्पियस ट्रेज़ानुस द्वारा अरब क्षेत्र पर कब्जे के बाद सबसे बड़ा मोड़ होगा, जिसने व्यापारिक मार्गों की रक्षा के लिए पेट्रा, हिजरा और मदायिन सालेह जैसे शहरों की नींव रखी थी. लेकिन सावधानी की आवाज़ें अनसुनी कर दी गईं. दि लाइन को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स के सहारे सऊदी अरब के तेल-पश्चात भविष्य का इंजन बताया गया.
क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के लिए अंतिम लक्ष्य था—एक ऐसा सऊदी अरब जो न तेल पर निर्भर रहे न धर्मतंत्र पर, भले ही पूर्ण राजतंत्र जस का तस बना रहे.
एक अप्रिय जागरण
हालांकि क्षेत्र में हिंसक क्रांति की संभावना कम है, लेकिन संकेत मिल रहे हैं कि सऊदी अरब अपने कुछ सपनों से पीछे हट रहा है. इस साल पहले, रियाद और जेद्दा में मिश्रित-लिंग नाइटक्लब बंद कर दिए गए और धार्मिक आचरण लागू कराने के लिए गृह मंत्रालय में एक नई इकाई बनाई गई. इंडोनेशियाई मूल के दक्षिणपंथी धर्मगुरु शेख असीम अल-हकीम—जिन्हें युवा अनुयायी “शेख ऑसम” कहते हैं—फिर से लोकप्रिय हो रहे हैं.
सऊदी अरब ने शासन बचाने के लिए बैकअप इंतजाम भी शुरू कर दिए हैं. पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच हुआ परस्पर रक्षा समझौता मूल रूप से अमेरिका पर निर्भरता कम करने की कोशिश है. 2019 में ईरानी ड्रोन हमलों में अबकैक और खुरैस स्थित तेल प्रतिष्ठानों पर हमला हुआ था, लेकिन अमेरिका ने युद्ध भड़कने के डर से कुछ नहीं किया.
गाज़ा युद्ध से नाराज़ युवा सऊदियों की प्रतिक्रिया से डरकर सऊदी अरब ने इज़राइल को मान्यता देने की प्रक्रिया भी टाल दी. साथ ही, चीन की मध्यस्थता से सऊदी ने ईरान से रिश्ते सामान्य करने की दिशा में भी कदम बढ़ाए. विद्वान सुल्तान अलमेर के अनुसार, सऊदी समझ रहा है कि अब उसे एक ही महाशक्ति पर निर्भर रहने के बजाय अपने संबंधों को संतुलित करना होगा—क्योंकि अमेरिका की आठ दशक पुरानी गारंटी अब भरोसेमंद नहीं लगती.
ग्रेट बिटर लेक पर राजा और राष्ट्रपति की गर्मजोशी भरी मुलाकात के बाद सिर्फ एक मुद्दा अनसुलझा रह गया था. राष्ट्रपति रूज़वेल्ट ने समझाया कि यूरोप के यहूदी फ़िलिस्तीन में शरण चाहते हैं. राजा ने इसका समाधान सुझाया: “उन्हें और उनके वंशजों को जर्मनी में वे श्रेष्ठ भूमि और घर दे दो, जिनके अत्याचारों से वे पीड़ित हुए.” उनका तर्क था, “सज़ा अपराधी को मिलनी चाहिए, निर्दोष दर्शक को नहीं.”
हालांकि यह विवाद कभी सुलझा नहीं, लेकिन दोनों देशों का संबंध फूलता-फलता रहा—1948, 1967 और 1973 के अरब-इज़राइल युद्धों में, 1998 और 2003 के इराक युद्धों में, और 9/11 जैसे बड़े झटकों में भी. अमेरिका और सऊदी अरब साथ खड़े रहे.
लेकिन उन्हें जोड़ने वाली काली, बदबूदार तेल की कीचड़ अब पतली पड़ रही है.
प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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