गत बुधवार को समाजवादी पार्टी के गठबंधन की घटक सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के सुप्रीमो ओमप्रकाश राजभर ने, जो सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव को नसीहत दी कि 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्हें अपनी पार्टी की हार का 2014 से चला आ रहा सिलसिला तोड़ना है है तो अपने वातानुकूलित कमरे से निकलकर बदले हुए तरीके से हर रोज काम करें तो शायद उन्हें याद नहीं रहा कि अभी तो सपा को आजमगढ़ व रामपुर लोकसभा सीटों के उपचुनावों में ही भाजपा से दो-दो हाथ करके अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करनी है. आजमगढ़ लोकसभा सीट उत्तर प्रदेश के गत विधानसभा चुनाव में करहल से चुने गये अखिलेश के इस्तीफे से जबकि रामपुर लोकसभा सीट इसी नाम की विधानसभा सीट से चुनं गये आजम खां के इस्तीफे से रिक्त हुई है.
संयोग देखिये कि इधर राजभर ने अखिलेश को यह नसीहत दी, उधर चुनाव आयोग ने इन दोनों सीटों के उपचुनाव का कार्यक्रम घोषित कर दिया, जिसके अनुसार उनके लिए 23 जून को वोट डाले जायेंगे.
इस चुनावी मुकाबले में भाजपा की सुविधा यह है कि उसके पास खोने के कुछ भी नहीं है. लेकिन खुदा न खास्ता, सपा इन सीटों पर कब्जा बरकरार नहीं रख पाई या 2019 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले घटी हुई बढ़त के आधार पर जैसे-तैसे रख पाई तो उसके इस मंसूबे को करारा झटका लगेगा कि भाजपा को हराने का उसका जो मिशन 2022 में पूरा नहीं हो पाया, 2024 में पूरा हो जाएगा.
यों, भाजपा कितना भी कस-बल लगा ले, लगता नहीं कि वह दलितों, यादवों व अल्पसंख्यकों के वर्चस्व वाली आजमगढ़ लोकसभा सीट पर सपा के सामने कोई गम्भीर चुनौती पेश कर पायेगी. ज्ञातव्य है कि हाल के विधानसभा चुनाव में सपा ने जिले की सदर, अतरौलिया, निजामाबाद, गोपालपुर, मुबारकपुर, मेहनगर (सुरक्षित), लालगंज (सुरक्षित), दीदारगंज, फूलपुर पवई और सगड़ी सभी सीटों पर क्लीनस्वीप किया और भाजपा का खाता नहीं खुलने दिया है. 2017 के विधानसभा चुनाव में भी अपनी तत्कालीन अखिलेश सरकार के खिलाफ जबर्दस्त ऐंटीइन्कम्बैंसी के बावजूद उसने इनमें फूलपुर पवई सीट ही गंवाई थी. सो भी भाजपा के नहीं, उन रमाकांत यादव के असर कारण, जो 1999, 2004 और 2009 के लगातार तीन लोकसभा चुनावों से आजमगढ़ से सपा, बसपा और भाजपा के टिकटों पर बारी बारी से सांसद चुने जा चके हैं.
इससे पहले 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अखिलेश यादव को आजमगढ़ में ही बांध रखने के लिए उनके विरुद्ध भोजपुरी फिल्मों के स्टार दिनेशलाल यादव निरहुआ को खड़ा किया तोे वे अखिलेश को उतनी भी चुनौती नहीं पेश कर सके, जितनी 2014 के लोकसभा चुनाव में तत्कालीन भाजपा सासद रमाकांत यादव ने मुलायम के समक्ष पेश की थी. तब मुलायम को 3,40,306 वोट मिले थे और रमाकांत को 2,77,102. फिर भी सपाई निराश हुए थे कि मुलायम की जीत का अंतर सम्मानजनक नहीं रहा. 2019 में अखिलेश ने 6,21,578 मत प्राप्त करके निरहुआ को 2,59,874 मतों से हराया तो कहा गया कि यह जिले में परम्परागत आधार रखने वाली बसपा से उनके गठबंधन के कारण सम्भव हुआ. हां, गत विधानसभा चुनाव में क्लीन स्वीप का पूरा श्रेय सपा को ही जाता है. लेकिन उसके विरोधी कहते हैं कि उसको लेकर उसे किसी गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि आजमगढ़ के मतदाताओं को चैंकाऊ चुनाव नतीजे देने की पुरानी आदत है.
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एआईएमआईएम ने भी कोई दांव खेला तो
मिसाल के तौर पर 1977 में जनता पार्टी की आंधी में आजमगढ़ से चुने गये सांसद रामनरेश यादव थोड़े ही दिनों बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गये और उनके लोकसभा से इस्तीफे के बाद इस सीट पर उपचुनाव की नौबत आई तो पार्टी कें कर्णधार आश्वस्त थे कि वे जिसे भी चुनाव मैदान में उतार देंगे, जीत जायेगा, क्योंकि केन्द्र में पार्टी की सरकार बने तब तक साल भर भी नहीं हुआ था. लेकिन हुआ इसका उलटा. जनता पार्टी की रीति-नीति से खफा आजमगढ़ के मतदाताओं ने सारे देश को चैंकाते हुए जनता पार्टी के रामबचन यादव को हराकर कांग्रेस की मोहसिना किदवई को अपनी पहली मुस्लिम सांसद चुन लिया.
फिलहाल, अभी सपा को नहीं लग रहा कि 2022 में भी 1978 जैसा कोई चमत्कार हो सकता है. अखिलेश के इस सीट से इस्तीफे के बाद से ही चर्चाएं चलती रही हैं कि सपा उनकी जगह मुलायम परिवार के तेजप्रताप यादव को मैदान में उतारेगी, जो 2014 में मैनपुरी संसदीय सीट से चुने गये थे. लेकिन यह तब की बात है, जब सपा ने अखिलेश की पत्नी डिम्पल को राज्यसभा भेजना तय किया था. अब उसने एक रणनीति के तहत डिम्पल की जगह रालोद के जयंत चैधरी को राज्यसभा भेजना तय किया है, तो कहा जा रहा है कि डिम्पल आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव लड़ेंगी. लेकिन तेज प्रताप लड़ें या डिम्पल, सपा पर परिवारवाद के भाजपा के आरोप को एक ही तरह से चस्पां करेंगे. तिस पर कई बार इस सीट पर काबिज रह चुकी बसपा ने कोई कद्दावर प्रत्याशी उतारा और जैसी कि चर्चा चल रही है असदउद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम ने भी कोई दांव खेला तो उन्हें कड़ा मुकाबला झेलना पड़ सकता है. इस कारण और कि वातावरण में मुसलमानों की सपा से नाराजगी की चर्चाएं गर्म हैं.
रामपुर लोकसभा सीट की बात करें तो सपा के आजम खां ने 2022 में इस पर भाजपा की जया प्रदा को 1,09,997 वोटों से हराया था. आजम को 5,59,177 तो जया प्रदा को 4,48,630 वोट मिले थे. गत विधानसभा चुनाव में आजम ने जिस तरह जेल में रहकर भी इस लोकसभा सीट की इसी नाम की विधानसभा सीट पर 55 हजार से अधिक वोटों के अंतर से जीत हासिल की, उससे भी इस मुस्लिम बहुल क्षेत्र में उनके जनाधार का पता चलता है. इससे पहले इस विधानसभा सीट पर उनकी पत्नी तंजीन फातिमा का कब्जा था.
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रामपुर लोकसभा सीट किसी पार्टी का गढ़ नहीं
प्रसंगवश, 1952 में मौलाना अबुल कलाम आजाद रामपुर लोकसभा सीट के पहले सांसद चुने गए थे और 1977 में जनता पार्टी के राजेन्द्र कुमार शर्मा के जीतने तक यह सीट कांग्रेस की झोली में ही जाती रही.
1980, 1984 और 1989 के लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस के जुल्फिकार अली खान ने इस सीट पर किसी और की दाल नहीं ही गलने दी. लेकिन 1991 में भाजपा के टिकट पर राजेंद्र कुमार शर्मा दोबारा चुन लिये गये. 1996 में नवाब परिवार की कांग्रेस प्रत्याशी बेगम नूरबानो, 1998 में मुख्तार अब्बास नकवी, 1999 में कांग्रेस की बेगम नूरबानो और 2004 व 2009 में समाजवादी पार्टी के समर्थन से जया प्रदा सांसद चुनी गईं, जबकि 2014 की मोदी लहर में भाजपा के नेपाल सिंह. साफ है कि रामपुर लोकसभा सीट किसी पार्टी का गढ़ नहीं है और उपचुनाव का नतीजा प्रचार अभियान के दौरान बनते-बिगड़ते समीकरणों पर निर्भर करेगा.
इस कारण स्वाभाविक ही इस सीट पर सपा की चुनौती आजमगढ़ के मुकाबले बहुत कड़ी है. अगर अखिलेश व आजम के रिश्तों में कड़वाहट को लेकर कही जा रही बातें सच्ची हैं तो वह ओर कड़ी हो जायेगी. निस्संदेह, आजम का शिवपाल या ओवैसी से मिलकर सपा के विरुद्ध कोई खिचडी पकाने का इरादा हुआ, तो भाजपा की बांछें खिल जायेंगी. संभवतः इसीलिए आजम की सद्भावना अर्जित करने के लिए अखिलेश ने सुप्रीम कोर्ट से उनकी जमानत की पैरवी करने वाले वरिष्ठ वकील व पूर्व कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल को पार्टी द्वारा समर्थित राज्यसभा प्रत्याशी बना दिया है. सवाल है कि आजम उनकी ऐसी पहलकदमियों से खुश हो जायेंगे या उनसे 2012 में उनके पिता द्वारा उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिए की गई मानमनौवल जैसी अपेक्षा करेंगे? अगर हां तो क्या अखिलेश उन्हें मुलायम की तरह मनायेंगे? अगर नहीं तो?
कहने वाले कहते हैं कि आजम की सुलह की शर्त यह है कि अखिलेश खुद रामपुर आकर उनकी पत्नी को रामपुर से प्रत्याशी बनाने का एलान करें और प्रचार अभियान में पूरा फ्री-हैंड दें. दूसरी ओर उनकी परम्परागत प्रतिद्वंद्वी जया प्रदा के भाजपा में जाने की अटकले हैं. दानों की भिड़ंत हुई तो भाजपा को आजमगढ़ की तरह यहां भी सपाई परिवारवाद को कोसने का मौका हाथ लग जायेगा. फिरलहाल उसने प्रदेश के आमू बजट में आजमगढ़ व रामपुर दोनों में ऐंटी टेररिस्ट सेंटर खोलने का प्रावधान करके अपने इरादे का पहला संकेत दे दिया है.
(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के स्थानीय संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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