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Thursday, 21 November, 2024
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स्त्री की कोख का सहारा लेने वाले देवता को स्त्रियों से डर क्यों लगता है?

माहवारी वाली स्त्रियां अगर छू लें तो क्या अयप्पा को दिक्कत होगी? नहीं, उनके एजेंट, जो किसी स्त्री के ही कोख से पैदा हुए हैं, उन्हें बड़ी दिक्कतें हैं.

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ये काम उन्हें रात के अंधेरे में चोरी-छिपे नहीं करना चाहिए था, दिन दहाड़े मंदिर में घुसें और जिस देवता को मन हो, छुएं, पूजें. सवाल धर्म में आस्तिकता का नहीं, सवाल भगवान अयप्पा का नहीं, सवाल महिला के अधिकारों का है, जिसे दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती.

ये जानते हुए कि स्त्रियों की मुक्ति का रास्ता धर्म से होकर नहीं गुज़रता, बल्कि धार्मिक पाखंडों को कुचल कर गुज़रता है. ये जानते हुए कि उनकी मानसिक गुलामी का सबसे बड़ा कारण धर्म है, जिसका जाने अनजाने संवहन वे सदियों से करती चली आई हैं. आंख मूंद कर धर्म का निर्वाह किया और आगे भी उसकी जकड़ में रहेंगी. क्योंकि धर्म मनुष्य को साहसिक नहीं, डरपोक बनाता है, शोषक और पखंडी बनाता है, महिलाएं धार्मिक रुढ़ियों में जकड़ी रहेंगी.

यही कारण है कि सबरीमाला मंदिर में प्रवेश की लड़ाई से असहमत होते हुए भी सहमत हूं, क्योंकि मुझ जैसी तमाम सचेतन स्त्रियों के लिए यह एक प्रतीकात्मक लड़ाई है. स्त्री अधिकारों का मामला है और आस्था ने नाम पर गैरबराबरी के खिलाफ युद्ध का ऐलान है. यह लड़ाई अंतिम फैसले तक पहुंचने तक जारी रहेगी, रहनी चाहिए.


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ताज़ा ताज़ा मामला सामने आया है कि कल नये साल की अर्द्धरात्रि में दो स्त्रियां केरल के सबरीमाला मंदिर में चोरी—छिपे घुसीं और पता चलते ही मंदिर प्रशासन मंदिर की सफाई में जुट गया. महिलाओं के प्रवेश से मंदिर अपवित्र हो गया, जिसे पवित्र करने की कोशिश की जा रही है.

जाने कैसे देवता हैं, जिन्हें स्त्रियों से डर लगता है. देवताओं को महिलाओं से डर क्यों लगता है? देवता भी तो अपने पैदा होने के लिए स्त्री की कोख खोजते हैं. राम और कृष्ण को भी अपने लिए कोख खोजना पड़ा था और सामान्य मनुष्य की तरह नौ महीने कोख के अंधेरे में गुज़ार कर बाहर आए थे. ये अलग बात है कि वे गा सकते हैं- भय प्रकट कृपाला….

अगर प्रकट ही होना था तो कोख में आने का नाटक क्यों? कोख के नाम पर देवकी का जेल में सिसक—सिसक कर सारा जीवन क्यों काटना पड़ा? देवता थे, प्रकट हो जाते, कहीं भी, कभी भी…

स्त्री की कोख का सहारा लेने वाले देवता को स्त्रियों से डर क्यों लगता है? देवता को लगता है या उनके एजेंटो को लगता है? देवता अयप्पा के नाम पर पिछले 800 साल से सबरीमाला मंदिर में 10 वर्ष से 50 साल की महिलाओं का प्रवेश अंदर वर्जित है. क्योंकि इस उम्र में स्त्रियां रजस्वला होती हैं. उनके छूने से देवता अयप्पा की ताकत कम होती जा रही है. जब देवता की ताकत कम होगी तो भला उन्हें दुनिया क्यों पूछेगी?


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पढ़े लिखे, अनपढ़ों को नहीं समझाया जा सकता कि माहवारी न होती तो वे पैदा न होते. माहवारी स्त्री की ताकत है जिसके आने से वह उर्वरा होती है. सृष्टि का प्रतीक है माहवारी. स्त्री की कोख से पैदा होने वाले देवता अपवित्र नहीं होते. माहवारी बंद होती है तभी तो कोई जीवन पैदा होता है. कोख स्त्री की नैसर्गिक ताकत है. अगर माहवारी के दौरान स्त्री अपवित्र है तो उसी माहवारी के रुकने से पैदा हुए देवता कैसे पवित्र हुए?

क्या आस्था इतनी अंधी बना देती है कि सामान्य विज्ञान के बातें भी उनके गले के नीचे नहीं उतरती? शिवपुत्र अयप्पा के जन्म की कथा भी बड़ी सनसनीखेज और विवादास्पद है. किसी को दिलचस्पी हो तो गूगल में सर्च करके उनके जन्म की कथा पढ़ सकते हैं. उनके जन्मकथा पर जब कोई पवित्रता–अपवित्रता का बोझ नहीं है तो उनको माहवारी वाली स्त्रियां छू लें तो क्या दिक्कत है? अयप्पा को कोई दिक्कत नहीं होगी. उनके एजेंट, सारे के सारे किसी न किसी स्त्री के कोख से पैदा हुए हैं, उन्हें बड़ी दिक्कतें हैं.

सन 2006 में मंदिर के एक पुजारी परप्पनगडी ने कहा था- मंदिर में स्थापित अयप्पा अपनी ताकत खो रहे हैं, वे नाराज़ हैं, क्योंकि मंदिर में किसी युवा महिला ने प्रवेश किया था.

इस बात की पुष्टि कर दी, कन्नड़ अभिनेत्री जयमाला ने कि 1987 में वे अपने पति के साथ मंदिर गई थीं, भीड़ की वजह से वे गर्भगृह पहुंच गईं, जहां पुजारी ने उन्हें फूल भी भेंट किया था. वे इसका प्रायश्चित करने को तैयार हैं.

पहले इतिहास में झांकते हैं. मामला सुप्रीम कोर्ट में गया. इसको राजनीतिक रंग भी दिया गया. सभी दल अपनी राजनीति के अनुसार इस मामले में दखल दे रहे हैं. एक्टिविस्ट निवेदिता झा खुल कर बोलती हैं- ‘सबरीमाला पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला 2018 की सबसे बड़ी उपलब्धि है. कोर्ट ने धार्मिक आधार पर भेदभाव की बहस को ही खत्म कर दिया. लेकिन दोहरे मापदंड उनके हैं जो संविधान की बात तो करते हैं लेकिन संविधान की रक्षा नहीं करते. जहां संविधान की रक्षा और महिलाओं समानता की बात हो वहां उसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं.’

यह सच है कि सुप्रीम कोर्ट पर भी भयानक दबाव है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने ऐतिहासिक फैसला दिया था. फैसला महिलाओं के पक्ष में था. यहां गौर तलब है कि पांच जजों में से चार पुरुष जजों ने महिलाओं के पक्ष में फैसला दिया जबकि एक महिला जज ने सबरीमाला मंदिर के पक्ष में फैसला सुनाया था. महिलाओं के पक्ष में फैसला देते हुए चीफ जस्टिस ने कहा था– आस्था ने नाम पर लिंगभेद नहीं किया जा सकता है. कानून और समाज का काम सभी को बराबरी से देखने का है. महिलाओं के लिए दोहरा मापदंड उनके सम्मान को कम करता है. भगवान अयप्पा के भक्तों को अलग अलग धर्मं में नहीं बांट सकते. अनुच्छेद-25 के मुताबिक सभी बराबर हैं, समाज में बदलाव दिखाना ज़रूरी है. पहले महिलाओं पर पांबदी उनको कमजोर मान कर लगाई गई थी. महिलाओं को किसी भी स्तर से कमतर आंकना, संविधान का उल्लघंन करना है.

सबरीमाला के पक्ष में फैसला देते हुए कहा गया कि आस्था से जुड़े मामले को समाज को ही तय करना चाहिए. ना कि कोर्ट को. यहीं से फिर एक नया विवाद शुरू हुआ कि कोर्ट आस्था के मामले में दखल दे या न दे.

मंदिर प्रशासन का कितना वाहियात तर्क है, रोक को लेकर. क्योंकि एक खास आयु वर्ग की महिलाएं माहवारी के दौरान शुद्धता बनाए नहीं रख सकतीं, वे उस दौरान अपवित्र होती हैं, इसलिए उन पर रोक लगाया जाना उचित है.

यहां महिलाओं के पक्ष में कई ठोस तर्क हैं. पहली बात तो ये कि अनुच्छेद-25 के मुताबिक आस्था के नाम पर लिंगभेद नहीं हो सकता, सभी बराबर हैं.

महिलाओं को ही समझना होगा कि संविधान ने उन्हें कितना अधिकार दे रखे हैं. अब तक वे क्यों मानती चली आईं कि माहवारी के दौरान वे अपवित्र होती हैं. माहवारी एक जैविक प्रक्रिया है, एक स्वभाविक क्रिया, जो उसकी देह के साथ घटित होती है. इसमें पवित्रता-अपवित्रता का अवधारणा कहां से आती है. एक सहज जैविक प्रक्रिया को लेकर इतना अंधविश्वास कहां से आता है. धर्म का इससे क्या लेना देना.


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सारी दिक्कतें महिलाओं की तरफ से हैं कि वे माहवारी के बारे में खुल कर बात करने से हिचकती रही हैं. खुद ही उसे अशुद्धि की तरह देखती हैं. पितृसत्ता के स्त्रीविरोधी विचारों को खाद-पानी यहीं से मिलता रहा है. औरतें माहवारी होते ही बहुत-सी भ्रांतियों से घिर जाती हैं कि इस दौरान पूजा करना महापाप है, भगवान जी अपवित्र हो जाते हैं, इस दौरान खट्टा नहीं खाना चाहिए, अचार नहीं छूना चाहिए, फफूंद लग जाता है, सड़ जाता है इत्यादि इत्यादि… एक सामान्य-सी जैविक प्रक्रिया अपराधबोध में बदल जाती है और जिसका सिरा आस्थाओं के अंधलोक से जाकर जुड़ता है.

अब महिलाओं का एक बड़ा वर्ग माहवारी पर खुलकर बोलने लगा है, धार्मिक मान्यताओं पर चोट करने लगा है, महाराष्ट्र से क्रांति की शुरुआत हो चुकी है. यह लड़ाई नहीं थमेगी. अगर मंदिर में प्रवेश का मामला समाज को तय करना चाहिए, कोर्ट को नहीं, तो समाज का आधा हिस्सा तो महिलाओ का है. स्त्रियां तय करेंगी, लेकिन यहां खतरे हैं कि स्त्रियों को राजनीतिक दल आसानी से मैनेज कर लेते हैं.

ऐसा नहीं होता तो बनारस में ‘वाटर’ (निर्देशक-दीपा मेहता) फिल्म की शूटिंग के दौरान धरने पर बैठी हुई स्त्रियां पूछे जाने पर ये न कहतीं कि हमने फिल्म की स्क्रिप्ट नहीं पढ़ी, हमें तो पार्टी ने कहा कि धरने पर बैठना है, क्योंकि फिल्म में धर्म के खिलाफ कुछ दिखाया जा रहा है.

कम से कम मंदिर में प्रवेश की लड़ाई लड़ने वाली महिलाएं अपने अधिकारों को लेकर सचेत तो हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं. गीताश्री स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक हैं.)

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