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Saturday, 21 December, 2024
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राष्ट्रीय सुरक्षा के बहाने सेना को RTI एक्ट से बाहर रखने से सैनिकों का नुकसान ही होगा

भारत के कुल वार्षिक खर्च में 15 फीसदी हिस्सा सेनाओं पर होने वाले खर्च का होता है. आरटीआई एक्ट सेनाओं के लिए होने वाली ख़रीदारियों, निर्माण, और रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में काफी मददगार साबित हो सकता है.

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इस साल मार्च में भारतीय सेना ने एक बार फिर दावा किया की उसे सूचना के अधिकार अधिनियम (आरटीआई एक्ट ) के दायरे से एकदम बाहर रखा जाए. सेनाओं की ओर से रक्षा मंत्रालय ने सुरक्षा का हवाल देते हुए यह प्रस्ताव आगे बढ़ाया लेकिन इस मसले से जुड़े दूसरे मंत्रालयों ने इसका विरोध किया क्योंकि ऐसा करने से पेंशन और दूसरी सेवा शर्तों के मामलों में सैनिकों की शिकायतों पर उलटा असर पड़ेगा. पिछले साल भी तत्कालीन चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत के अधीन सैन्य मामलों के विभाग ने राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए इसी तरह का प्रस्ताव रखा था.

आरटीआई एक्ट के विचार और क्रियान्वयन के ठीक बाद सेना ने सुरक्षा के नाम पर खुद को इससे अलग रखे जाने और इसे धारा 24 की अनुसूची 2 में शामिल किए जाने की जोरदार अवकालत की थी. लेकिन उसे खारिज कर दिया गया था. सेवानिवृत्त सैनिकों ने इस एक्ट से छूट दिए जाने का जोरदार विरोध किया था क्योंकि सुरक्षा के मामले में बेहद सजग इस संगठन से शिकायत के समाधान के लिए जरूरी सूचना का प्राथमिक स्रोत यह एक्ट ही हो सकता है.

वास्तविकता क्या है? क्या आरटीआई एक्ट के कारण सेनाओं की सुरक्षा के मामले में समझौता हो सकता है ? जब धारा 8 के तहत पर्याप्त बचाव उपलब्ध है तब सेना धारा 24(2) की पूर्ण सुरक्षा की मांग क्यों कर रही है?

सैनिकों का हथियार

सेना में दस्तावेजों और सूचनाओं को कई वर्गों में बांटने की व्यवस्था है—निषिद्ध, गोपनीय, सीक्रेट, टॉप सीक्रेट. लगभग सभी व्यक्तिगत सूचनाओं को ‘गोपनीय’ वर्ग में रखा जाता है. सेवा में रहते हुए कोई भी व्यक्ति न्याय पाने के लिए अधिकतर दस्तावेजों को देख सकता है. लेकिन सेवानिवृत्त सैनिक जब उन दस्तावेजों की मांग करता है तब सुरक्षा का बहाना बनाने की प्रवृत्ति उभर आती है. आरटीआई एक्ट लागू होने के कारण सभी सैनिकों को स्पष्टीकरण या न्याय पाने के लिए ‘आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिबुनल’ के जरिए दस्तावेज़ उपलब्ध होते हैं. इससे पहले केवल सिविल कोर्ट के जरिए ही समाधान हासिल करने का रास्ता उपलब्ध था, जो लंबी मुक़दमेबाज़ी में बदल जाता था.

सुरक्षा को लेकर अति सजगता के अलावा सेना की सांगठनिक संस्कृति भी सूचना के अधिकार में बाधा बनती है. वेतन, पेंशन, अपंगता, प्रोमोशन, और अन्य कानूनी मसलों से संबंधित अधिकतर मामलों में जरूरी दस्तावेज़ हासिल करने का एकमात्र सहारा आरटीआई एक्ट ही है. इस वजह से सिविल अदालतों में मुकदमों में उल्लेखनीय कमी आई है और भ्रांतियां भी दूर हुई हैं. इसके कारण ‘आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिबुनल’ में भी मामलों को ले जाने से बचा जा रहा है. एक उल्लेखनीय उदाहरण यह है कि ‘गोपनीय’ घोषित मेडिकल दस्तावेज़ सैनिकों को नहीं उपलब्ध कराए जाते थे. आरटीआई एक्ट की वजह से अब उनकी उपलब्धता के कारण हजारों सैनिक अपंगता पेंशन और स्वास्थ्य सेवाएं पा रहे हैं. विरोधाभास यह है कि यह सब आरटीआई एक्ट के परोक्ष लाभ हैं जबकि उसका मकसद मुख्यतः ‘पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा’ देना बताया गया था, न कि शिकायत निबटारा. बहरहाल, सूचना उपलब्ध कराने का वैधानिक प्रावधान लोगों का कल्याण भी कर रहा है.

भारत के वार्षिक खर्चों में से 15 फीसदी हिस्सा सेना के ऊपर होने वाले खर्चों का है. आरटीआई एक्ट सेना द्वारा खरीदारियों, निर्माण, और रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का कीमती हथियार नागरिकों के हाथों में सौंपता है. इस एक्ट के प्रावधानों से पूरी छूट सैनिकों के कल्याण के लिए नुकसानदायक होगी और रक्षा बजट के मामले में सेना को गैरजवाबदेह बना देगी.


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सुरक्षा का बहाना

सेनाओं को आरटीआई एक्ट की धारा 8(1) के तहत पहले ही सुरक्षा हासिल है— ‘उस सूचना का खुलासा नहीं किया जाएगा जिसके कारण भारत की संप्रभुता और अखंडता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो; जिसके कारण देश की सुरक्षा, रणनीति, विज्ञान, या अर्थव्यवस्था से जुड़े हित और दूसरे देश के साथ रिश्ते प्रभावित होते हों या किसी अपराध को उकसावा मिलता हो.’ धारा 10 आगे स्पष्ट करती है कि जिस सूचना को खुलासा करने के प्रावधान से छूट मिली हुई हो उसके केवल उस हिस्से को उपलब्ध कराया जा सकता है जिसे इस प्रावधान से छूट नहीं मिली हो.’

सेना ने छूट की मांग इस आधार पर करने की कोशिश की है कि निहित स्वार्थ आरटीआई एक्ट के जरिए सूचना का परोक्ष खुलासा करने की मांग कर सकते हैं. पिछले साल जनरल रावत ने कहा था, ‘दुशमन तत्वों की शह पर अंदर की सूचनाएं हासिल करने के लिए आरटीआई एक्ट के दुरुपयोग के उदाहरण मिले हैं. हम आरटीआई के तहत पूछे गए ऐसे सवाल का जवाब देने से मना कर सकते हैं कि किस सेक्टर में हमारे कितने सैनिक तैनात हैं. हमसे राशन, ईंधन, वाहन आदि की संख्या आदि के बारे में पूछा जाता है. ऐसे सवालों के जवाब से वे तत्व कुछ उलटा हिसाब लगा सकते हैं.’ बताया जाता है कि इस साल सेना ने ऐसे मामलों के उदाहरण दिए हैं जब आरटीआई की अर्ज़ियां एक साथ विभिन्न सैन्य अड्डों/ एजेंसियों में दायर की गईं, जिन्हें खुफिया सूचनाएं हासिल करने की कोशिशों में शुमार किया गया.’

लेकिन सेना के ये तर्क जांच की कसौटी पर खरे नहीं उतरते. विभिन्न तरह के विषयों पर हजारों अर्जियों के बावजूद सेना अगर इन अवैध कार्यों का पता लगा सकती है तो यह पूरी छूट की उसकी मांग को खारिज करता है. उसके अपने आंकड़ों के मुताबिक, ‘2017 से 22020 के बीच प्राप्त आरटीआई की 57,000 अर्जियों में से 986 को खारिज कर दिया गया जिनमें ऑपरेशनों में इस्तेमाल होने वाले हथियारों, सीमा पर मुठभेड़ों, सेना की तैनाती, और आंतरिक सुरक्षा को लेकर ऑपरेशन के ब्योरों आदि के बारे में जानकारियां मांगी गई थीं.’ कुल अर्जियों में खारिज की गईं अर्जियों का प्रतिशत मात्र 1.7 प्रतिशत था.

केंद्रीय सूचना आयोग (सीआइसी) द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, 2019-20 में रक्षा मंत्रालय को मिलीं आरटीआई की करीब 71,000 अर्जियों में से एक तिहाई से कुछ ज्यादा अर्जियां ही सेना से संबंधित थीं. उनमें से ज़्यादातर अर्जियां सेवारत या सेवानिवृत्त सैनिकों की नियुक्ति, प्रोमोशन, तबादला, अनुशासनात्मक कार्रवाई और सेवा से जुड़े मामलों को लेकर थीं. इस अवधि में निबटाई गईं अर्जियों में केवल 0.22 फीसदी के मामले में ही राष्ट्रीय सुरक्षा या सेना के हितों की रक्षा से संबंधित छूट का उपयोग किया गया.

सुरक्षा को लेकर छूट का उपयोग जिन अर्जियों में किया गया उनके मामूली अनुपात से स्पष्ट है कि सेना को आरटीआई एक्ट के दायरे में रखा जाए ताकि सैनिकों का भला हो, उनके कामकाज और रक्षा मामलों पर खर्च की जवाबदेही तय हो. तो फिर सेना पूरी छूट क्यों मांग रही है?


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देखादेखी का मामला

मेरा मानना है कि सेना केवल खुफिया, सीआरपीएफ, और जांच एजेंसियों के उन कुल संगठनों की देखादेखी पूरी छूट की मांग कर रही है जिन्हें सरकार ने धारा 24(2) के तहत इसके लिए अधिसूचित कर दिया है. बावजूद इसके कि धारा 8 के तहत सुरक्षा संबंधी पर्याप्त बचाव हासिल है.

भारत में आरटीआई एक्ट 2005 में लागू किया गया, जबकि स्वीडन इसे 239 साल पहले कर चुका है. इस तरह भारत उन देशों में शुमार हो गया, जो हरेक सरकारी महकमे के कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने के लिए विभिन्न सरकारी विभागों से सूचनाएं मांगने का अधिकार दे चुके हैं. यह संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1948 में की गई मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुछेद 19 अनुरूप है. हमने घोषणा की है कि ‘हम, भारत के लोग…. इस संविधान को…आत्मार्पित करते हैं’, और हमें यह जानने का मौलिक अधिकार है कि सरकार हमारे नाम पर क्या कर रही है.

वास्तव में, धारा 8 के तहत, राष्ट्रीय सुरक्षा और दूसरे सार्वभौमिक मानकों के नाम पर दी गई छूट उचित है, लेकिन बड़ी संख्या में संगठनों को दी गई ‘पूर्ण छूट’ इस श्रेष्ठ कानून के लिए एक धब्बा है. मानवाधिकारों के उल्लंघन और भ्रष्टाचार के मामलों को बेशक अपवाद माना जा सकता है, हालांकि उन मामलों में भी मनमर्जी उल्लंघन किया जाता है. धारा 8(2) के मुताबिक, सूचना के खुलासे के मामले मैं जनहित को सुरक्षा के ऊपर तरजीह दी सकती है लेकिन धारा 24 में ऐसा कोई अपवाद नहीं शामिल किया गया है. अनुसूची 2 में दर्ज महकमे भी उन मामलों में सूचना न देने के लिए ‘पूर्ण छूट’ का लाभ उठाते हैं जो मामले सुरक्षा के दायरे में नहीं आते, और एक्ट के तहत उनमें सूचना दी जा सकती है.

यह एक शर्म की बात है कि सेना अपनी परंपराओं और नैतिक मानकों की पूर्ण अवहेलना करके और पारदर्शिता तथा सैनिकों के हितों की कीमत पर आरटीआइ एक्ट की ओट लेने की कोशिश कर रही है. धारा 8 के तहत सुरक्षा कारणों से जो सूचनाएं नहीं दी जा सकतीं उन्हें स्पष्ट कीजिए लेकिन सुरक्षा का बहाना बनाकर धारा 24 के तहत एक्ट से पूर्ण छूट लेने की कोशिश मत कीजिए. दरअसल, धारा 24 आरटीआइ एक्ट के लिए एक धब्बा है, जिसे संसद और सुप्रीम कोर्ट को मिटाने का यत्न करना चाहिए.

(अनुवाद अशोक कुमार द्वारा)

(इस लेख के अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहांं क्लिक करें)

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड में जीओसी-इन-सी रहे हैं. रिटायर होने के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. उनका ट्विटर हैंडल @rwac48 है. व्यक्त विचार निजी हैं)


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