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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतजवाबदेही से बचने के लिए पिछली सरकारें औपचारिक रक्षा नीति बनाने से हिचकती रहीं

जवाबदेही से बचने के लिए पिछली सरकारें औपचारिक रक्षा नीति बनाने से हिचकती रहीं

मोदी-शाह की टीम ने पुलवामा और उरी में सर्जिकल और हवाई हमले करके भारतीय रक्षा नीति का उदाहरण तो पेश किया मगर औपचारिक रक्षा नीति अभी भी नहीं बनी है.

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गृहमंत्री अमित शाह ने हाल में कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से पहले तक भारत की प्रतिरक्षा नीति उसकी विदेश नीति की ‘छाया’ हुआ करती थी. इस पर सवाल उठाया जा सकता है. लेकिन केवल शाह ही नहीं, पूर्व चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस), जनरल बिपिन रावत ने भी ‘राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति’ के महत्व और उसे औपचारिक रूप देने की जरूरत की ओर संकेत किया था.

इसमें शक नहीं है कि कई सरकारें ‘राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति’ तथा विशिष्ट प्रतिरक्षा नीति को औपचारिक रूप देने और उसकी औपचारिक घोषणा करने से हिचकती रहीं, हालांकि पिछली सरकारें एलएसी के पार और म्यांमार में अघोषित गुप्त ऑपरेशन्स करती रहीं. राष्ट्रहित में प्रत्यक्ष रूप से भारत ने 1987 में श्रीलंका में अपनी शांति सेना भेजी थी, और 1988 में मालदीव में तख़्ता पलटने की कोशिश को नाकाम करने के लिए ऑपरेशन चलाया था. लेकिन ऐसा लगता है कि जवाबदेही से बचने की कोशिश ही एक सिद्धांत और प्रतिरक्षा नीति निश्चित करने से हिचक के पीछे वजह रही है.

अमेरिका, चीन, फ्रांस, ब्रिटेन जैसी बड़ी ताकतों, और अब पाकिस्तान के पास भी अपनी औपचारिक ‘राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति’ है. समय आ गया है कि भारत भी यह नीति बनाए और उसे सार्वजनिक करे.

शाह ने यह भी कहा कि ‘पहले, हम पर हमले करने के लिए आतंकवादी भेजे जाते थे, और उरी तथा पुलवामा में किए गए हमलों में भी यह कोशिश की गई. लेकिन सर्जिकाल स्ट्राइक और हवाई हमले करके हमने दिखा दिया कि रक्षा नीति का क्या अर्थ होता है.’ खुशी की बात यह है कि गृहमंत्री भारत की ‘नयी रक्षा नीति’ के बारे में सार्वजनिक जानकारी दे रहे हैं. लेकिन कुछ छूट भी गया है, ऐसा लगता है कि सेना को इसकी जानकारी नहीं है.

सीडीएस रावत ने कॉलेज ऑफ डिफेंस मैनेजमेंट में एक सेमिनार में कहा था कि ‘हमें कुछ अहम कदम उठाने हैं जिनमें ये भी शामिल हैं— ‘राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति’ को परिभाषित करना, उच्चस्तरीय रक्षा रणनीति निर्देश तैयार करना, रक्षा तथा ऑपरेशन वाले उच्चस्तरीय संगठनों में संरचनात्मक सुधार करना.’ राष्ट्रीय रक्षा नीति ‘राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति’ से तय होती है  और वह रक्षा संबंधी प्लानिंग, क्षमता विकास, फंड के आवंटन का आधार बनेगी. जनरल रावत के बयान के अनुसार, भारत के पास अपनी ‘राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति’ नहीं है.

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गृहमंत्री ने दरअसल वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) या अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखाओं के पार जाकर आतंकवाद विरोधी कार्रवाई करने के मामले में राजनीतिक दिशा-निर्देश को रेखांकित किया है. ऐसी कार्रवाई 9 जून 2015 को स्पेशल फ़ोर्सेस का उपयोग करते हुए म्यांमार में की गई, 28-29 सितंबर 2016 की रात एलएसी के पार कई स्थानों पर की गई, 25-26 फरवरी 2019 की रात बालाकोट पर हवाई हमले के रूप में की गई. अभी भी यह तय होना बाकी है कि इन कार्रवाइयों से आतंकवादियों या पाकिस्तान पर कितना दबाव बनाया या वे निरंतरता के बिना की गई अकेली जवाबी कार्रवाइयां ही बनकर रह गईं.


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राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति और रक्षा नीति

नेशनल सिक्योरिटी स्ट्रेटेजी (NSS) या नेशनल सिक्योरिटी पॉलिसी किसी देश के लिए एक व्यापक फ्रेमवर्क होता है जिसमें देश के विभिन्न उपकरणों— राजनयिक, सूचना केंद्रित, सैन्य और आर्थिक— का समावेश होता है ताकि उसके राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाया जा सके और बाहरी और आंतरिक खतरों से उनकी रक्षा की जा सके. देश अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों को हासिल करने के लिए कौन-सा रास्ता अपनाए उसका स्पष्ट खाका एनएसएस प्रस्तुत करता है. यह ऐसा दस्तावेज़ होता है जो शासन के सभी अंगों, खासकर सैन्य महकमे को दिशा-निर्देश देता है. यह एक औपचारिक दस्तावेज़ होता है जिसे सरकार तैयार करती है और लोकतांत्रिक देशों में जिसकी समीक्षा संसद करती है.

नेशनल डिफेंस पॉलिसी ‘NSS’ से निकलती है और इसके अंतर्गत राष्ट्रीय रक्षा लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए नियोजन और प्रबंधन की प्रक्रिया भी शामिल है. व्यवहार में यह दिशा-निर्देशों, सिद्धांतों और फ्रेमवर्क की एक सीरीज़ है जो सिद्धांत यानी एनएसएस को कार्य रूप यानी नियोजन, प्रबंधन और क्रियान्वयन की प्रक्रिया से जोड़ती है. इस सबके ऊपर, रक्षा नीति का मकसद सेना की क्षमताओं में वृद्धि के लिए रक्षा बजट का अधिकतम उपयोग करना है.

हकीकत क्या है

भारत की कोई औपचारिक एनएसएस या ‘एनडीपी’ नहीं है. वैसे तो राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर विदेश, रक्षा, गृह और वित्त मंत्रालयों द्वारा जारी कई नीति दस्तावेज़ या पत्र लागू हैं. लेकिन एनएसएस के अभाव में इस प्रक्रिया में तालमेल और जवाबदेही की कमी है. इसका असर सबसे ज्यादा सैन्य मामलों में दिखता है, जहां संभावित युद्ध के खतरों और उनके लिए विकसित की जाने वाली क्षमताओं को लेकर स्पष्टता का अभाव है.

राजनीतिक दिशा-निर्देश अगर दिया भी जाता है तो वह अनौपचारिक और संक्षिप्त होता है. कमियों को दूर करने का काम सेना पर छोड़ दिया जाता है. लेकिन बाहरी और आंतरिक खतरों के कारण बड़ी सेना रखने की मजबूरी ने कामचलाऊ व्यवस्था को जन्म दिया है.

रक्षा नियोजन के हर पहलू को समेटने वाले कई नीति दस्तावेज़ मौजूद हैं. रक्षा नियोजन रक्षामंत्री के निर्देश पर होता है और विडंबना यह है कि यह सेना द्वारा तैयार मसौदे पर आधारीत होता है. इस निर्देश के आधार पर सेना 15 वर्षीय ‘इंटीग्रेटेड पर्सपेक्टिव प्लान्स’ तैयार करती है जिसमें 5 वर्षीय ‘इंटीग्रेटेड डिफेंस प्लान्स’ पर ज़ोर दिया जाता है. ये रक्षा मंत्रालय द्वारा तैयार रक्षा अधिग्रहण योजनाओं से जुड़े होते हैं. भारत का रक्षा उद्योग आधार बड़ा है लेकिन समय से पीछे है. मोदी सरकार ने रक्षा उत्पादन में ‘आत्मनिर्भरता’ और रक्षा उद्योग के आधुनिकीकरण के लिए नीतियां तैयार की है. इनमें निजी क्षेत्र को भी शामिल किया गया है.

रक्षामंत्री के अधीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) के नेतृत्व में डिफेंस प्लानिंग कमिटी का गठन 2018 में किया गया. उसे रणनीतिक रक्षा समीक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति, और सेना के लिए प्राथमिकता के आधार पर क्षमता विकास की योजना का मसौदा तैयार करने के अधिकार सौंपे गए. यानी वह नेशनल सिक्योरिटी स्ट्रेटेजी और नेशनल डिफेंस पॉलिसी को औपचारिक रूप देने के लिए जिम्मेवार होगी लेकिन ऐसी कोई बात सार्वजनिक रूप से सामने नहीं आई है कि इस दिशा में कोई ठोस प्रगति हुई है.

आगे का रास्ता

राजनीतिक-सैन्य लक्ष्यों के बारे में स्पष्ट राजनीतिक निर्देश के अभाव के कारण एनएसएस में एकजुटता नहीं आती है जो सभी रक्षा योजना का आधार है. इसके अलावा, रक्षा योजनाओं, आर्थिक और औद्योगिक विकास में अपर्याप्त तालमेल के कारण अत्याधुनिक रक्षा औद्योगिक का निर्माण प्रभावित होता है.

NSS के अभाव के बावजूद विस्तृत NDP इस कमी को पूरा कर सकती थी. इसकी जगह, मौजूदा रक्षा नियोजन व्यवस्था विशालकाय सेना के आधुनिकीकरण की जद्दोजहद कर रही है और उलझ रही है. हमारी सेना को परिवर्तन की जरूरत है – सैन्य मामलों में क्रांति की- ताकि वह उच्च तकनीक से लड़े जाने वाले 21वीं सदी के युद्ध के लिए तैयार हो सके. यह कल्पनाशील NSS और NDP के बिना नहीं हो सकता.

राष्ट्रीय सुरक्षा औए सेनाओं में परिवर्तन को लेकर पूर्ण राजनीतिक स्पष्टता नज़र आती है. प्रधानमंत्री अपने विचार सर्वोच्च रक्षा मंच कंबाइंड कमांडर्स कॉन्फ्रेंस में कई बार रख चुके हैं. इसलिए यह एक विडंबना ही है कि ‘हमारा परिवर्तन’ अभी भी औपचारिक एनएसएस और एनडीपी के बिना दिशाहीन है. आज़ादी के बाद की सबसे ताकतवर मानी गई सरकार, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति वैचरीक रूप से भी प्रतिबद्ध है, अगर औपचारिक एनएसएस और एनडीपी का गठन नहीं करती तो कौन करेगा?

(इस लेख के अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहांं क्लिक करें)

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड में जीओसी-इन-सी रहे हैं. रिटायर होने के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. उनका ट्विटर हैंडल @rwac48 है. व्यक्त विचार निजी हैं)


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