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Saturday, 21 December, 2024
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आरएसएस आर्थिक नीतियों का दाएं हाथ से समर्थन और बाएं हाथ से विरोध कर रहा है

आरएसएस के संगठन कई बार रणनीतिक जरूरतों को देखते हुए अलग-अलग स्वर में बात करते हैं. आरएसएस का संगठन बीएमएस इस समय सरकार की आर्थिक नीतियों का विरोध कर रहा है.

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से कई संगठनों की गर्भनाल जुड़ी है. ये संगठन आरएसएस से सिर्फ प्रेरणा नहीं लेते हैं, बल्कि आरएसएस अपने स्वयंसेवकों को इन संगठनों में भेजता है और वे लोग उन संगठन के अंदर आरएसएस के एजेंडे को लागू करते हैं. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) आरएसएस का राजनीतिक संगठन है. उसी तरह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद आरएसएस का छात्र संगठन है. इसी तर्ज पर भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) आरएसएस का मजदूर संगठन है. इसे आरएसएस ने बनाया है और इसके शिखर नेतृत्व पर आरएसएस के लोग ही होते हैं.

आरएसएस के सभी संगठन आम तौर पर एक सुर में बोलते हैं और तालमेल के साथ काम करते हैं. लेकिन, कई बार रणनीतिक जरूरतों को देखते हुए ये संगठन अलग-अलग स्वर में बात करते हैं. बाहर से देखने से ऐसा लगता है कि वे अलग-अलग दिशाओं में जा रहे हैं. दरअसल वे ऑर्केस्ट्रा के अलग-अलग वाद्य यंत्रों की तरह काम करते हैं, जिनसे अलग तरह की आवाजें निकलती हैं, लेकिन मिलकर संगीत सज जाता है. इसलिए आरएसएस पर अक्सर आरोप लगते हैं कि वह कई मुंह से बोलता है.

भारतीय मजदूर संघ और सरकार की आर्थिक नीतियां

आरएसएस का संगठन होने के बावजूद, बीएमएस इस समय कई मुद्दों पर सरकार से अलग दिशा में चलता दिख रहा हैं. सरकारी बैंकों का विलय, रेलवे का निजीकरण, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में हिस्सेदारी बेचने समेत तमाम ऐसे मसले हैं, जिन्हें लेकर बीएमएस सरकार का विरोध कर रहा है. हालांकि, देश के अन्य केंद्रीय मजदूर संगठन यह कहते हैं कि बीएमएस विरोध का ढोंग कर रही है, जिससे सरकार की नीतियों से तबाह श्रमिकों को दूसरे संगठनों में जाने से रोका जा सके.

बीएमएस का विरोध एक नियंत्रित पद्धति से होता है, जिसमें मजदूरों के दुश्मन के तौर पर बीजेपी सरकार नजर नहीं आती. किसी नीतिगत सवाल पर सरकार को जब पीछे हटना होता है, तो वह बीएमएस के साथ समझौता करती है, ताकि मजदूरों के बीच आरएसएस की साख बनी रहे.

ये वे प्रमुख मुद्दे हैं, जिन पर बीएमएस इन दिनों विरोध पक्ष में खड़ी है.

कोयला क्षेत्र में विदेशी निवेश

केंद्र सरकार ने कोयला क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए पूरी तरह से खोल दिया. सरकार का तर्क है कि बीएचपी, पेबॉडी एनर्जी और ग्लेनकोर जैसी ग्लोबल कंपनियां भारत में कोयला खदान की मालिक बनेंगी तो अत्याधुनिक तकनीक यहां आएगी. इससे उत्पादन बढ़ेगा और ईंधन की कमी दूर होगी. लेकिन मजदूर संगठन इसका विरोध कर रहे हैं.

अभी सरकार की कंपनी कोल इंडिया और कुछ निजी कंपनियों का इस क्षेत्र पर एकाधिकार है. मजदूर संगठनों का तर्क है कि अगर विदेशी कंपनियां आती हैं तो खनन में कोल इंडिया की हिस्सेदारी घटेगी और बड़े पैमाने पर मजदूरों की छंटनी होगी. तकनीक के इस्तेमाल से कम श्रमिकों की जरूरत होगी और रोजगार में भी कमी आ सकती है.


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कोल इंडिया सरकारी क्षेत्र की बड़ी नियोक्ता है, जिसमें 5 लाख से ज्यादा कर्मचारी काम करते हैं. मजदूर संगठनों ने 100 प्रतिशत एफडीआई के सरकार के फैसले के विरोध में हड़ताल आयोजित की. शुरुआत में बीएमएस ने भी हड़ताल में शामिल होने का दावा किया और कहा कि देश का सबसे बड़ा मजदूर संगठन होने के कारण वह इस विरोध का नेतृत्व करेगा. हालांकि, मंत्री से मुलाकात के बाद मजदूर संगठनों की हड़ताल को बीएमएस ने पोलिटिकली मोटीवेटेड करार देकर हड़ताल से खुद को अलग कर लिया.

बैंकों के विलय का मसला

सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के 10 बैंकों को मिलाकर 4 बड़े बैंक बनाने का फैसला किया. इसकी वजह से देश में सरकारी बैंकों की कुल संख्या 27 से घटकर 12 रह जाएगी. पंजाब नेशनल बैंक, ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स, यूनाइटेड बैंक, केनरा बैंक, सिंडिकेट बैंक, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, आंध्र बैंक, कार्पोरेशन बैंक, इंडियन बैंक और इलाहाबाद बैंक की जगह 4 बैंक बनाए जा रहे हैं. बैंक कर्मचारियों का कहना है कि जहां सरकार बड़े पैमाने पर निजी बैंकों को आने दे रही है, वहीं सरकारी बैंकों की संख्या घटाई जा रही है. सरकारी बैंकों की संख्या कम करके बड़े बैंक बनाने का तर्क कर्मचारियों के गले नहीं उतर रहा है. उनका मानना है कि सरकार बैंकिंग क्षेत्र में नौकरियां घटाने में जुटी है और निजी क्षेत्र को लाकर वह गरीब खाताधारकों की सुविधाओं को दांव पर लगा रही है.

सरकार के इस फैसले का विरोध करते हुए बीएमएस ने कहा  कि यह बैंकों के निजीकरण की तरफ बढ़ाया गया कदम है. फिलहाल बीएमएस सरकार के फैसले के साथ रहेगा या कर्मचारियों के आंदोलन में शरीक होगा, यह तय नहीं है. वहीं अन्य मजदूर संगठनों ने इस फैसले के खिलाफ 22 अक्टूबर 2019 को हड़ताल की घोषणा की है. अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ और भारतीय बैंक कर्मचारी परिसंघ की ओर से बुलाई गई हड़ताल को भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) ने भी समर्थन दिया है.

भविष्य निधि (पीएफ) का मामला

सरकार ने एक मसौदा तैयार किया है, जिसमें कर्मचारी भविष्य निधि (ईपीएफ) और कर्मचारी पेंशन स्कीम (ईपीएस) में बड़े संशोधन का प्रस्ताव है. मसौदा विधेयक के मुताबिक ईपीएफ के सदस्यों को विकल्प होगा कि वे अपना धन ईपीएफ से नेशनल पेंशन फंड (एनपीएस) में ट्रांसफर कर सकते हैं. इसमें ‘मजदूरी’ की मौजूदा परिभाषा बदलने का भी प्रस्ताव है. इस बदलाव से उन कर्मचारियों के ईपीएफ में अंशदान पर असर पड़ सकता है, जिनकी बेसिक सेलरी इस समय 15,000 रुपये से कम है.

बीएमएस ने सरकार के इस मसौदा विधेयक को खारिज कर दिया है. उसने कहा है कि एनपीएस जोखिम भरा और बाजार से जुड़ा है और इसमें मुनाफे को लेकर कोई निश्चितता नहीं है.

सरकारी कंपनियों के विनिवेश की नीति

सरकार ने इस साल सरकारी कंपनियों को बेचकर या उनमें हिस्सेदारी घटाकर 1.05 लाख करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य  रखा है. इस योजना के तहत सरकार अपनी हिस्सेदारी कुछ सरकारी कंपनियों में 51 प्रतिशत से कम करेगी, जिससे कंपनी का प्रबंधन उसके हाथ से निकल जाएगा. केंद्र सरकार लगातार सरकारी कंपनियां बेचने व उनमें हिस्सेदारी घटाने पर काम कर रही है. बीएमएस सरकार के इस फैसले के भी खिलाफ है. सरकार की इस नीति के खिलाफ रणनीति बनाने के लिए उसने 15 नवंबर को सभी सरकारी कंपनियों के मजदूर संगठनों की बैठक दिल्ली में बुलाई है.

रेलवे के कामकाज का निजीकरण

सरकार इस समय रेलवे में निजीकरण को बढ़ावा देने पर जोर दे रही है. निजी क्षेत्र को प्रवेश देने का काम रेलवे स्टेशनों पर निजी फूड चेन की दुकानों को अनुमति देने से शुरू हुआ. उसके बाद स्टेशनों पर वाई-फाई की सुविधा देने तक मामला बढ़ा. फिर रेलवे स्टेशनों के पुनर्विकास में निजी कंपनियों को लगाने की कवायद शुरू हुई. सरकार ने अब दिल्ली से लखनऊ के बीच तेजस एक्सप्रेस चलाई है. फिलहाल इसे सरकारी कंपनी आईआरसीटीसी चला रही है, लेकिन इसे रेल परिचालन के निजीकरण के एक प्रायोगिक कदम के रूप में देखा जा रहा है. साथ ही सरकार ने 150 ट्रेनों व 50 रेलवे स्टेशनों का परिचालन निजी क्षेत्र  को देने की कवायद तेज कर दी है.

मजदूर संगठन सरकार के इस फैसले का विरोध कर रहे हैं. सरकार के इस बड़े फैसले पर अनिश्चितकालीन हड़ताल की भी सुगबुगाहट चल रही है, जो रेलवे में 1974 के बाद कभी नहीं हुई है. बीएमएस भी सरकार के इस फैसले के खिलाफ कूद पड़ा है. आरएसएस के इस संगठन ने कहा है कि नीति आयोग के लोग देश की जमीनी हकीकत नहीं समझ रहे हैं.

बीएसएनएल और एमटीएनएल का मामला

सरकार के दूरसंचार के दो उपक्रम भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) और महानगर टेलीफोन लिमिटेड (एमटीएनएल) घाटे में चल रहे हैं. सरकार ने लोकसभा चुनाव के दौरान घोषणा की थी कि इन सरकारी उपक्रमों को मदद करके उबारा जाएगा, लेकिन अब सरकार पलटती नजर आ रही है. खबरों के मुताबिक वित्त मंत्रालय इन कंपनियों को कोई आर्थिक मदद नहीं करना चाहता और वह इन्हें बेच देने के पक्ष में है. इन दोनों कंपनियों में करीब 2 लाख कर्मचारी काम करते हैं. सरकार यह देख रही है कि जिन देशों में सरकारी टेलीकॉम कंपनियां नहीं हैं, वहां रणनीतिक महत्त्व के मसलों से कैसे निपटा जाता है. संभवतः उसके बाद सरकार इन कंपनियों का निजीकरण करने के बारे में फैसला करेगी. यह भी कवायद की जा सकती है कि रक्षा व सरकारी सेवाओं में इस दूरसंचार कंपनी की मदद ली जाए और जनता की दूरसंचार सेवा पूरी तरह से निजी हाथों को सौंप दी जाए. बीएमएस सरकार के इस फैसले का भी विरोध  कर रहा है.


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दरअसल भाजपा इस समय दोहरी चाल चल रही है. बढ़ती बेरोजगारी और घटती सरकारी नौकरियों के बीच सरकारी कंपनियों में संभावनाएं कम हो रही हैं. सरकार विनिर्माण और सेवा क्षेत्र से दूर जा रही है. इससे उत्पन्न हो रहे श्रमिक असंतोष का अंदाजा सरकार को है. बीएमएस की भूमिका यहां महत्वपूर्ण हो जाती है. बीएमएस की ताकत और सरकार से नजदीकियों का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि बीजेपी अध्यक्ष और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और रेल मंत्री पीयूष गोयल बीएमएस के दिल्ली स्थित मुख्यालय गए और मजदूर संगठन के नेताओं से बात की.

कंपनियों के निजीकरण से वहां काम करने वाले कर्मचारियों में व्यापक रोष पैदा हो रहा है. जानकारों का कहना है कि सरकार इस नाराजगी के स्वरूप को बीएमएस के माध्यम से समझना चाहती है. अगर कर्मचारियों में नाराजगी ज्यादा है तो निजीकरण की रफ्तार कुछ कम करके व मजदूरों की कुछ मांगें मानकर सरकार उन्हें संतुष्ट करने की कवायद कर सकती है, जिससे उसकी चुनावी संभावनाओं पर असर न पड़े.

बहरहाल आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों का जनता के साथ दोहरा खेल जारी है.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)

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