उत्तर प्रदेश में कुछ बड़ा बदलाव होने जा रहा है, ऐसी चर्चाएं पिछले कुछ दिनों से चल रही हैं. इसे दो घटनाओं से जोड़ा जा रहा है. पहली घटना वह तथाकथित बैठक है जिसमें भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह व भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से उसके सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले की उपस्थिति बताई जा रही है. दूसरी घटना है संघ के सरकार्यवाह का इस तथाकथित बैठक के बाद का लखनउ प्रवास.
राजनीति में घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं और कोई कयास लगाना खतरे से खाली नहीं होता. उत्तर प्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं और भाजपा सहित सभी पार्टियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण राज्य है क्योंकि यहां लोकसभा की 80 सीटें हैं जो बहुत हद तक 2024 में भाजपा की वापसी को तय करने में निर्णायक साबित होंगी. कई लोग इसे 2024 के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल करार दे रहे हैं तो कुछ का मानना है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के परिणाम मोदी सरकार द्वारा कोरोना महामारी से किए गए प्रबंधन पर देश के जनमानस की स्वीकार्यता अथवा अस्वीकार्यता का संकेत देगी.
बहरहाल अभी बात करते हैं ताजा घटनाक्रम के बारे में. योगी आदित्यनाथ की सरकार में कोई बदलाव होगा या नहीं, यह कम से कम इन दो घटनाओं पर तो निर्भर नहीं करेगा. क्यों? तो इसका जवाब ये है कि इसके दो कारण हैं— पहला, जिस उच्चस्तरीय बैठक की बात की जा रही है वैसी कोई बैठक हुई ही नहीं और दूसरा संघ के सरकार्यवाह का प्रवास कई महीने पहले तय हो जाता है उसका किसी फौरी राजनीतिक घटनाक्रम से कोई लेना देना नहीं होता है.
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‘दो और दो— चार’
सरकार्यवाह या संघ के वरिष्ठ अधिकारी सतत प्रवास पर रहते हैं. जब वे कहीं भी प्रवास पर जाते हैं तो वे सम विचारी संगठनों के सभी लोगों से मिलते हैं कई बैठकें होती हैं. इनमें कई बार भाजपा के लोग भी होते हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि संघ के अधिकारी किसी राजनीतिक प्रबंधन की दृष्टि से वहां गए हैं. संघ की कार्यपद्धति का यह मूलमंत्र है कि समाज के सभी वर्गों के साथ सतत संपर्क रखना, संपर्क का दायरा बढ़ाना और समाज के संगठन में तेजी लाने के लिए संगठनात्मक गतिविधयों को गति और मजबूती देना.
कभी—कभी ऐसा संयोग बन जाता है कि संघ के अधिकारी किसी प्रदेश में जाते हैं तो वहां कोई चुनावी गतिविधि चल रही होती है या भाजपा में कोई राजनीतिक घटनाक्रम चल रहा होता है. ऐसे में कुछ विश्लेषक ‘दो और दो— चार’ का फार्मूला लगाकर सीधा निष्कर्ष रख देते हैं कि संघ का फलां अधिकारी इसलिए आया है क्योंकि अब संघ भाजपा के इस मसले को सुलझाने के लिए हस्तक्षेप कर रहा है या फिर संघ चुनाव की कमान हाथ में ले रहा है.
ये सब निष्कर्ष एक बड़ी गलतफहमी के कारण है. गलतफहमी यह है कि संघ के पास भाजपा को मजबूत करने, उसे चुनाव जितवाने के अलावा कोई और महत्वपूर्ण काम नहीं है.
इस गलतफहमी के उपजने का कारण यह है कि अधिकतर विश्लेषक संघ को भाजपा के नजरिए से देखते हैं.जो संघ का विस्तार जानते हैं, उन्हें पता है कि भाजपा उन तीन दर्जन से ज्यादा समविचारी संगठनों में से एक है जो संघ की प्रेरणा से चल रहे हैं. इन सभी संगठनों के कार्यकर्ताओं को वैचारिक दिशा देने का काम संघ का है. इन सभी संगठनों में स्वयंसेवक स्वायत्ता के साथ काम करते हैं. उन्हें जब किसी परामर्श, मार्गदर्शन या मदद की आवश्यकता होती है तो वे संघ से संपर्क करते हैं. संघ अपनी ओर से यथाशक्ति उनके लिए प्रयास करता है और इस प्रक्रिया में अक्सर अपने कुछ कार्यकर्ताओं को भी इन संगठनों को काम करने के लिए देता है. भाजपा के साथ कोई विशेष व्यवहार नहीं किया जाता है.
भाजपा और संघ के संबंधों को बिना ठीक से समझे केवल विशुद्ध राजनीति या सत्ता के नजरिए से देखने से गलतफहमियां भी होती हैं और उसी के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष हास्यास्पद भी हो जाते हैं. भाजपा और संघ के संबंध दो धरातल पर हैं—पहला औपचारिक और दूसरा अनौपचारिक.
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राजनीति संघ की प्राथमिकताओं में नहीं
संघ के कुछ कार्यकर्ता एक औपचारिक व्यवस्था के अंतर्गत भाजपा में संगठन मंत्री व सह संगठन मंत्री के रूप में अपना योगदान भाजपा के संगठन को मजबूत करने के लिए देते हैं. अनौपचारिक स्तर पर संबंधों की बात करें तो संघ के कई स्वयंसेवक भाजपा व भाजपा नीत सरकारों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं. भाजपा के अब तक के दोनो प्रधानमंत्री—अटल बिहारी वाजपेयी व नरेंद्र मोदी—संघ के प्रचारक रहे हैं. केंद्र व राज्य सरकारों में कई मंत्री, मुख्यमंत्री आदि संघ के स्वयंसेवक हैं. ऐसे में उन्हें संघ की ओर से कोई एजेंडा नहीं दिया जाता है. वे स्वयं सेवक के रूप में संघ में मिले संस्कारों के अनुरूप समाज के रूपांतरण व देश के विकास के लिए जो होना चाहिए वे करने का प्रयास करते हैं.वे ठीक कर रहे हैं या गलत, ये अलग बहस का मुद्दा है. इस पर वैचारिक मतभेद हो सकते हैं. पर मुद्दे की बात यह है कि भाजपा के राजनीतिक प्रबंधन में संघ की कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका नहीं है.
अगर आप संघ को भाजपा के नजरिए से देखना बंद कर संघ को उसी के परिप्रेक्ष्य से देखेंगे तो यह स्पष्ट होगा कि सत्ता व राजनीति संघ की प्राथमिकताओं में कभी नहीं रही. भाजपा व उसकी सरकारें जो फैंसले करना चाहें वे अपने हिसाब से करती हैं, ऐसा नहीं कि है कि संघ एक स्कूल प्रिंसिपल है जो भाजपा नेताओं रूपी छात्रों को ठोक—पीट कर अनुशासन में रखता है.
(लेखक दिल्ली स्थित थिंक टैंक विचार विनिमय केंद्र में शोध निदेशक हैं. उन्होंने आरएसएस पर दो पुस्तकें लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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