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Sunday, 24 November, 2024
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रक्षा PRO’S का कदम अच्छा संकेत नहीं, सेना के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को दक्षिणपंथियों से बचाना जरूरी

जम्मू रक्षा पीआरओ की हरकत पर कोई कार्रवाई न करना सिर्फ कायरता नहीं, बल्कि यह भी जाहिर करता है कि सशस्त्र बलों का भी तेजी से राजनीतिकरण हो रहा है.

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जम्मू-कश्मीर पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे की वजह से फिर खबरों में था, जो 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के बाद पहली बार वहां पहुंचे थे. उन्होंने विकास और रोजगार की कई प्रमुख योजनाओं का ऐलान किया, जिसमें केंद्र सरकार की 20,000 करोड़ रु. की परियोजनाएं और 38,000 करोड़ रु. का निजी निवेश पाइपलाइन में है.

मोदी के दौरे से एक दिन पहले रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा, ‘हमारे रक्षा बल के तीनों अंगों की राय है कि जम्मू-कश्मीर से सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून (आफ्सपा) को जितना जल्दी हो, हटा लिया जाए.’ रक्षा मंत्री ने यह भी कहा कि आंतरिक सुरक्षा भारतय सेना की नहीं, पुलिस और केंद्रीय अद्र्धसैनिक बलों की जिम्मदारी है.

यह जानकर खुशी होती है कि मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर में अप्रैल के महीने में अचानक हिंसा में इजाफे के बावजूद आखिरकार वहां के लोगों का दिलोदिमाग जीतने के लिए कोई राजनैतिक हल निकालने के प्रति गंभीर है. लेकिन इन सकारात्मक संकेतों के बीच, रक्षा मंत्रालय के जम्मू में जन संपर्क अधिकारी (पीआरओ) ने दुर्भाग्यवश एक सेल्फ गोल कर दिया, जिससे खासकर जम्मू-कश्मीर में सेना के उग्रवाद विरोधी अभियान के अराजनैतिक और सेकूलर चरित्र पर सवाल खड़े हो गए.

ट्विटर पर दक्षिणपंथी हैंडलों के दबाव में उसने वह ट्वीट डिलीट कर दिया, जिससे सेना के सेकूलर परंपराओं और उसके ‘जनपक्षीय कार्रवाइयों’ का पता चलता है. उसकी हरकत से ऐसी आशंकाएं उभरीं कि सेना के पदाधिकारियों में भी नव-राष्ट्रवादियों और धार्मिक कट्टरतावादियों की घुसपैठ हो गई है.

बर्दाश्त के बाहर हरकत

जम्मू के पीआरओ ने 21 अप्रैल को शाम 4.35 बजे ट्वीट किया, ‘धर्मनिरपेक्ष परंपराओं के मुताबिक, भारतीय सेना ने डोडा जिले के अरनोरा में एक इफ्तार पार्टी का आयोजन किया.’ इसके साथ उसने वह फोटो भी डाली, जिसमें राष्ट्रीय रायफल्स के डेल्टा फोर्स के कामन अधिकारी स्थानीय मुसलमानों से बातचीत कर रहे हैं और फौजी पोशक में एक जवान आम लोगों के साथ नमाज पढ़ रहा है.

इसके सात घंटे बाद सुदर्शन न्यूज चैनल के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर तथा एडिटर इन चीफ उस ट्वीट का हवाला देकर ट्वीट किया, ‘अब ये बीमारी भारतीय सेना में भी घुस गई है? दुखद….’ उसके बाद उसके समर्थन में ट्विटर पर दक्षिणपंथी हैंडलों की बाढ़ आ गई. लेकिन उन्हें अनदेखा करने या बेतुके ट्वीटों का जवाब देने के बदले पीआरओ ने अपना मूल मूल ट्वीट ही डिलिट कर दिया. इससे ऐसे आयोजन गर्व से करने के सेना के इरादे पर सवालिया निशान लग गए और सेना की अराजनैतिक तथा सेकूलर छवि को धक्का लगा.

दिलचस्प यह है कि शायद पहली बार किसी बड़े नव-राष्ट्रवादी/दक्षिणपंथी कट्टरतावादी गुट ने सशस्त्र बलों की आलोचना की है. अब तक तो ये उन लोगों की लानत-मलामत और ‘पाकिस्तान चले जाओ’ का फरमान जारी करते रहे हैं, जो सशस्त्र बलों की जवाबदेही तय करने और उनमें सुधार, उनकी कमियों, कथित मानावधिकार उल्लंघनों और दूसरी गड़बडिय़ों वगैरह की बात करते रहे हैं. अपने चरित्र के विपरीत सशस्त्र बलों ने अपने ‘मानव कवच जैसी घटनाओं’ या हताहतों को कार्टून में बंदकर ढुलाई जैसी बेतुकी, बर्दाश्त के बाहर करतूतों के लिए उन्हें ढाल की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं. शायद इस बार अपने परंपरागत और वाजिब कार्रवाई की अप्रत्याशित आलोचना से घबराकर पीआरओ ने खुद ही या अपने समर्थकों की सलाह पर फौरन अपने ट्वीट को डिलीट कर दिया.


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अशुभ संकेत

पीआरओ की हरकत सशस्त्र बलों के अराजनैतिक और सेकूलर चरित्र के लिए अशुभ संकेत है. जिस सेना का राजनीतिकरण हो जाता है, वह अपने को एक खास विचारधारा से जुड़ा पाती है और आखिरकार सत्ता हड़पने में राजनैतिक हिस्सेदार बन जाती है. राष्ट्र के संस्थापकों और सैन्य नेतृत्व का इस मुद्दे पर एकदम साफ नजरिया रहा है. हमारा संविधान सशस्त्र बलों पर नागरिक नियंत्रण की बात करता है और सशस्त्र बल उसकी शपथ लेते हैं.

पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तीनमूर्ति भवन को अपना सरकारी निवास बनाकर इसका प्रतिकात्मक संदेश दिया था, जो फ्लैग स्टॉफ हाउस कहलाता था और सेना ब्रिटिश कमांडर इन चीफ का निवास था. देश के पहले कमांडर इन चीफ और बाद में सेना प्रमुख बने फिल्ड मार्शल के.एम. करियप्पा ने सेना का ‘भारतीयकरण’ किया और उसके अराजनैतिक चरित्र की नींव रखी.

कमांडर इन चीफ का पद संभालने के बाद उन्होंने सभी अफसरों को लिखा, ‘सेना में राजनीति जहर जैसी है. उससे दूर रहो.’ जबकि उन्होंने खुद सावर्जनिक रूप से भारत के आर्थिक मॉडल को लेकर अपने विचार व्यक्त करने का लापरवाहीपूर्ण रवैया अपनाया था खास कर तब जब नेहरू ने लिखित रूप से 1952 में उन्हें कम से कम प्रेस कॉन्फ्रेंस करने और सुरक्षित विषयों पर ही बातचीत करने की सलाह दी थी. अराजनैतिक सेना अपने नेतृत्व के जरिए नागरिक सरकार को निष्पक्ष राय दे सकती है, चाहे जिस विचारधारा की सत्ता हो.

उसका अराजनैतिक और सेकूलर चरित्र उग्रवाद विरोधी कार्रवाइयों मेंं निष्पक्ष बर्ताव को आश्वस्त करता है. यही नहीं, दंगों के दौरान भी जब उसे मदद के लिए बुलाया जाता है तो उसका व्यवहार निष्पक्ष रहता है. देश में ज्यादातर अलगाववाद स्थानीय/भाषई/धार्मिक/सांस्कृति पहचानों के इलाकों में होता है, जो बहुसंख्यक समाज से भिन्न होते हैं.

भारतीय सेना का अलगाववाद विरोधी अभियान का जनपक्षीय कार्रवाई का मॉडल दुनिया भर में सबसे कामयाब रहा है. वह है ‘मखमली दस्ताने में फौलादी मुक्का’ यानी फौलादी मुक् का आतंकवादियों के लिए और मखमली दस्ताना आम लोगों के लिए. उसकी प्रमुख नीति भ्रम के शिकार लोगों का दिल जीतना रही है. दूरदराज के इलाकों में प्रशासकीय सुविधाएं देने के लिए ‘सदभावना अभियान’ चलाया जाता है. धार्मिक और सांस्कृतिक जुड़ाव के लिए विशेष अभियान चलाना इस नीति का विशेष पहलू रहा है. भारतीय सेना में बहुधर्मी/स्थानीय/सांस्कृतिक संस्थाएं हमारे संविधान की भावना को जाहिर करती हैं. उसके अभियान में लोगों से जुड़ाव खास पहलू है. हमारी ज्यादातर खुफिया सूचनाएं लोगों से ही मिलती हैं.

रक्षा मंत्रालय या उत्तरी कमान या 16वीं कॉर्प की ओर से जम्मू के पीआरओ के बर्ताव के बारे में कोई आधिकारिक स्पष्टीकरण जारी नहीं किया गया है. उनकी चुप्पी चाहे बेमन से ही इसमें उनकी मिलीभगत जाहिर करती है. हालांकि सेना को यह श्रेय जरूर दिया जाना चाहिए कि अलग-अलग धर्मों के लोगों से उसका संपर्क अभियान रुका नहीं है.

सुधार के कदम जरूरी

सुधार कार्रवाई की फौरन दरकार है. रक्षा मंत्रालय को लोगों की खाख बनाए रखने के लिए जरूर क्षमा याचना जारी करनी चाहिए. डिलिठ किए गए पोस्ट को ट्विटर पर डाला जाना चाहिए और उसे डिलिट करने के लिए खेद जताना चाहिए. रक्षा मंत्री और सेना के नेतृत्व को सशस्त्र बलों की सेकूलर मान्यताओं और आचार-व्यवहार पर नए सिरे से जोर डालना चाहिए.

यह रक्षा मंत्रालय और सेना को अपने जन संपर्क तंत्र को नए सिरे से व्यवस्थित करने का वक्त भी है. फिलहाल पीआरओ तथा सार्वजनिक सूचना अतिरिक्त महानिदेशालय और नौसेना तथा वायु सेना में ऐसे ही हलकों में पारदर्शिता और साख का अभाव है. ये अमूमन परेशान करने वाली खबरों/घटनाओं पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देते या फिर सुस्त रवैया अपनाते हैं. अभियान संबंधी सूचनाओं को हमेशा तोड़मरोडक़र पेश करने की कोशिश होती है, जो सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से दिखती हैं और उनका विद्रुप बनाया जाता है. मीडिया के लिए कोई औपचारिक ब्रिफिंग नहीं की जाती है. जन संपर्क मुहिम खास मकसद से घुमाफिराकर लीक की गई खबरों के आधार पर नहीं चल सकती, जिन्हें अक्सर ‘भरोसेमंद सूत्रों के आधार पर खबर’ कहकर पेश किया जाता है. पूर्वी लद्दाख में टकराव की कवरेज शायद हाल के सेना के इतिहास में सबसे बदतर थी. हम चीन से अवधारणा की लड़ाई हार गए.

सेना के जन संपर्क विभाग की नाकामियां अनजाने में ही उसकी असहनीय करतूतों का बचाव के लिए नव-राष्ट्रवादियों और धार्मिक कट्टरतावादियों को मौका दे देती है, जिससे ऐसा लगा है कि वे उसके हमदर्द हैं. मौजूदा मामले में भी नव-राष्ट्रवादी ही ट्वीट को डिलिट करने की हरकत का बचाव कर रहे हैं और सशस्त्र बलों के सेकूलर चरित्र पर चोट कर रहे हैं. बस उस ट्वीट को दोबार पोस्ट कर देने से नुक्सान की भरपाई हो सकती है. कोई कार्रवाई न करना नैतिक कायरता कहलाएगी और इस धारणा को पुष्ट करेगी कि सशस्त्र बलों के राजनीतिकरण की ओर एक कदम और बढ़ा दिया गया है.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड में जीओसी-इन-सी रहे हैं. रिटायर होने के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. उनका ट्विटर हैंडल @rwac48 है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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