अंग्रेजी की कहावत है: किंग इज डेड, लॉन्ग लिव द किंग” (`राजन नहीं रहे, राजन जिन्दाबाद`). इसी तर्ज पर 26 जनवरी को हमारा राष्ट्रीय उद्घोष होना चाहिए: गणतंत्र न रहा आबाद , गणतंत्र जिन्दाबाद!
भारत नामक जो गणराज्य 26 जनवरी 1950 को बना था वह बीते 22 जनवरी 2024 को ध्वस्त हो गया. यह प्रक्रिया लंबे समय से जारी थी. मैं कुछ सालों से ‘गणतंत्र के अंत’ की बात कहता आ रहा था. लेकिन अब हम गणतंत्र के खात्मे की एक निश्चित तारीख भी बता सकते हैं. अब हम एक नई राजनीतिक व्यवस्था में जी रहे हैं. जो लोग इस नई व्यवस्था में अवसर ढूंढ़ रहे हैं उन्होंने नये खेल के नियमों को अगर अब तक न अपनाया होगा तो आगे के दिनों में तेजी से अपना लेंगे. हम जैसे लोगों के पास जो अपने पहले गणतंत्र पर दावा जताने को प्रतिबद्ध हैं सिवाय इसके कोई और विकल्प नहीं कि हम अपनी राजनीति पर मूलगामी अर्थों में पुनर्विचार करें. हमारी जरूरत सियासत की एक नई भाषा गढ़ने की है—एक ऐसी भाषा जिसके सहारे हम अपने गणतांत्रिक मूल्यों की ज्यादा मजबूती और धारदार तरीके से हिफाजत और हिमायत कर सकें. हमें अपनी राजनीतिक रणनीति को हर हाल में बदलना और अपने सियासी रिश्तों की चिनाई-बिनाई पर नये सिरे से काम करना होगा— पुराने तर्ज के संसदीय विरोध की जगह सड़क के प्रतिरोध की राजनीति की राह अपनानी होगी.
इसे लेकर कोई गफलत में रहने की जरूरत नहीं. प्राण-प्रतिष्ठा समारोह का रिश्ता किसी मूर्ति, भगवान राम या फिर राम मंदिर से कत्तई नहीं था. उस समारोह का रिश्ता किसी मर्यादा, आस्था या धर्म से भी नहीं था. वह समारोह दरअसल कई सांवैधानिक, राजनीतिक और धार्मिक मर्यादाओं के उल्लंघन का समारोह था. इस प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के साथ जुड़ी करोड़ों लोगों की आस्था के अपहरण का आयोजन था. धर्म और राजसत्ता के रिश्ते की धुरी पलटने का अवसर था, चूंकि इस समारोह ने हिन्दू धर्म को राजनीति का खिलौना बना दिया. अपनी पृष्ठभूमि, अपनी बनावट, लामबंदी के अपने मिज़ाज और असर के एतबार से 22 जनवरी का समारोह एक सियासी समारोह था जिसका मकसद राजनीतिक जीत के मंसूबे बांधना, उसके लिए हड़बोंग मचाना और सियासी जीत की राह साफ करना था. दरअसल यह उस`हिन्दू राष्ट्र` की प्राण-प्रतिष्ठा का समारोह था जहां न परंपरा-सम्मत हिन्दू धर्म ही मौजूद है और न ही वह ‘राष्ट्र’ जो भारतीय राष्ट्रवाद की वैचारिक चौहद्दी में परिभाषित होता है.
एक नई राज-व्यवस्था
हमारे पास अब एक नया संविधान है— एक नये दस्तावेज की शक्ल में नहीं बल्कि राजनीतिक सत्ता के एक नये व्याकरण के रूप में जिसमें बीते एक दशक के दौरान हुए बदलावों को सूत्रबद्ध कर दिया गया है. मूल संविधान में तो अल्पसंख्यकों के अधिकार को एक सीमा-रेखा के रूप में स्वीकार किया गया है जो यह तय करती है कि लोकतांत्रिक रीति से चुनी गई कोई सरकार क्या नहीं कर सकती. लेकिन नये संविधान में बहुसंख्यक समुदाय की मर्जी वह लक्ष्मण-रेखा है जिसका उल्लंघन राज्य की कोई भी संस्था नहीं कर सकती, चाहे मूल संविधान में कुछ भी लिखा हो. अब हमारे देश में दु-छत्ती नागरिकता की व्यवस्था होगी जिसमें हिन्दू और हिन्दुओं के सहवर्ती मकान मालिक हैं जबकि मुसलमान और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक किरायेदार की तरह. देश के असली संविधान में भारत को ‘राज्यों का संघ’ बताया गया है लेकिन इसकी जगह अब एकल सरकार स्थापित हो गई है जो अब प्रांतों को कुछ छोटे मोटे शासकीय काम सौंपा करेगी. कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच ताकत के बंटवारे की जगह शासन की बागडोर कार्यपालिका को थमा दी गई है. यही अधिशासी अब विधायिका के कर्मकांड तय करते हैं और वह चौहद्दी खिंचा करते हैं जिसके भीतर रहकर न्यायपालिका को निर्णय देना है. संसदीय लोकतंत्र का स्थान शासन की राष्ट्रपति-केंद्रित प्रणाली ने नहीं बल्कि एक व्यक्ति के शासन ने ले लिया है, एक ऐसा राजा जिसे जनता ने चुना है— हम एक ऐसी नई राजनीतिक व्यवस्था में रह रहे हैं जिसमें जनता अपने सर्वोच्च नेता को चुनती है और ऐसे चुनाव के बाद सबकुछ उसी नेता पर छोड़ देती है.
इस नये संविधान की अमलदारी को अभी संविधान-सभा का अनुमोदन हासिल नहीं हुआ है. कैबिनेट का प्रस्ताव भले ही इसे भारत की आत्मा की स्वाधीनता का दिवस कहे, हम अब भी 22 जनवरी 2024 को दूसरे गणतंत्र की स्थापना का दिवस नहीं कह सकते. मूल संविधान को औपचारिक रूप से निरस्त करने को रोकने की लड़ाई अभी भी बाकी है. आने वाला लोकसभा चुनाव इस लड़ाई का पहला मोर्चा होगा. लेकिन चुनाव का नतीजा चाहे जो भी निकले, हम इस नई राजनीतिक व्यवस्था की सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते. हम मूलगामी पुनर्विचार की चुनौती को अब आगे के दिनों पर और नहीं टाल सकते.
हमें शुरूआत इस कड़वे सच को मान कर करनी होगी कि हम स्वयं भारत के प्रथम गणतंत्र की मौत के अपराधी हैं. आरएसएस और बीजेपी को उस बात के लिए दोष देना बेकार है जो उनका मूल मकसद रहता आया है. जिम्मेवारी तो उनकी है जिन्होंने भारत के प्रथम गणतंत्र के प्रति निष्ठा रखने की सौगंध उठायी थी. सेक्युलरवाद का प्रतिबद्धता की राजनीति से धीरे-धीरे ढहकर सुविधा की राजनीति में बदलते जाना हमारे प्रथम गणतंत्र को मटियामेट करने का दोषी है. सेक्युलर राजनीति का औद्धत्य, जनता-जनार्दन से इसका विलगाव, लोगों से उनकी बोली-बानी में बतियाने से उसका इनकार सेक्युलरवाद के विचार को अवैध बनाने का जिम्मेवार है. हम ये बात नहीं भूल सकते कि यह प्राणघाती अघात भरपूर चेतावनी की उस घटना के तीस साल बाद लगा है जिसे बाबरी मस्जिद का विध्वंस कहा जाता है. पूरे तीस साल तक सेक्युलर ढर्रे की राजनीति इस प्रमाद में टालमटोल करती रही कि यह रोग खुद ही गायब हो जायेगा या फिर जाति की राजनीति इसकी काट कर लेगी. यदि सेक्युलर राजनीति आज धूल चाट रही है तो इस दुरवस्था के लिए इसके अपने कर्म-अपकर्म के पाप ही जिम्मेदार हैं.
जो चीज राजनीति के हाथों से गंवायी गई वह चीज राजनीति के हाथों से ही हासिल की जा सकती है. आज हमारे पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं. हम जो मूल संविधान के तरफदार हैं वे अब अपने ही देश में एक संकटग्रस्त विचारधाराई अल्पसंख्यक बनकर रह सकते हैं, जब-तब सांकेतिक विरोध जताकर जी बहला सकते हैं. या फिर हम एक निर्भीक और दमदार गणतांत्रिक राजनीति की प्राण प्रतिष्ठा करें.
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दोधारी राजनीति
ऐसी गणतांत्रिक राजनीति का दोधारी होना जरूरी है. एक तरफ इस राजनीति को सांस्कृतिक-वैचारिक लड़ाई का रूप लेना होगा. यह लड़ाई लंबी होगी— आगे दो-तीन दशकों तक चलने वाली. इस लड़ाई की शुरूआत भारतीय राष्ट्रवाद, अपनी सभ्यतागत विरासत, अपनी भाषाओं और हिन्दू-धर्म समेत अपनी तमाम परंपराओं पर दावेदारी जताने से होनी चाहिए. इस लड़ाई के पास भारत के लिए एक नया स्वप्न होना चाहिए, सामाजिक पिरामिड के निचले हिस्से के लोगों की आशाओं को मुखरित करती विचारधाराई धुरी होनी चाहिए. इसके लिए हमें बीसवीं सदी के वैचारिक द्वंद्व, मसलन साम्यवादी, समाजवादी और गांधीवादी के बीच का द्वंद्व, को पीछे छोड़ना होगा. हमें बीसवीं सदी के सभी उदार, समतामूलक और उपनिवेश विरोधी विचारों को जोड़कर उनसे एक स्वराज 2.0 जैसी नई विचारधारामें गूंथना होगा.
दूसरी तरफ, हमारे पास नये तर्ज की राजनीति होनी चाहिए. विरोध की राजनीति की जगह प्रतिरोध की राजनीति अपनानी होगी. सामान्य ढर्रे के चुनावी और संसदीय विपक्ष की राजनीति अब सबसे महत्वपूर्ण नहीं है. गणतांत्रिक राजनीति को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा. विभिन्न दलों को बांटने वाली पुरानी लकीर राजनीति की नई दुनिया के लिए प्रासंगिक नहीं. मौजूदा संकट के मद्देनजर सियासी जुड़ाव की जमीन में कुछ ऐसा बदलाव होना चाहिए मानो भू-चाल आया हो और सारा कुछ एक नये रूपाकार में गढ़ा जा रहा हो. जो लोग गणतंत्र की आत्मा के प्रति सच्चे हैं उन्हें आपस में घुल-मिल कर एक राजनीतिक धारा में बदलना होगा. चूंकि चुनाव अब पूर्व-निर्धारित नतीजों वाले जनमत-संग्रह में बदल गये हैं इसलिए संसद की चुनावी राजनीति की बजाय सड़क पर आंदोलन धर्मी प्रतिरोध नई स्थिति में कहीं ज्यादा कारगर है. लेकिन प्रतिरोध की ऐसी राजनीति पर भी दबाव होंगे क्योंकि लोकतांत्रिक रीति से विरोध जताने के जमीन सिकुड़ती जायेगी. प्रतिरोध की राजनीति को नई लेकिन लोकतांत्रिक और अहिंसक राह और नई तरकीब ढूंढ़नी होगी.
इन दिनों सोशल मीडिया पर एक मजाक चल रहा है कि चलो, इस गणतंत्र दिवस का जश्न धूमधाम से मनायें क्योंकि कहीं ऐसा ना हो कि यह आखिरी गणतंत्र दिवस साबित हो. लेकिन विडंबना यह है कि यह चुटकुला जिस लम्हे सोशल मीडिया पर घूमना शुरू हुआ उसी लम्हे यह पुराना भी पड़ चुका था. यह छब्बीस जनवरी अब हमारे लिए एक मृत गणतंत्र की बरसी मनाने का दिन हो सकता है, या फिर देश के प्रथम गणतंत्र पर अपनी दावेदारी पुनः जताने के राष्ट्रीय संकल्प का दिन!
गणतंत्र दिवस मुबारक हो !
(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से एक हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैं. उनका एक्स हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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