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Friday, 22 November, 2024
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समलैंगिक विवाह का मामला कानूनी दांव-पेंच में फंसा, हिन्दू विवाह कानून पंजीकरण के विचार का विरोध शुरू

आज भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में समलैंगिक जीवन को तेजी से मान्यता मिलती जा रही है. विश्व के अनेक देशों में समलैंगिकता को हेय नज़रिये से नहीं देखा जाता है.

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समलैंगिक संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर करने की न्यायिक व्यवस्था के बाद अब ऐसे जोड़ों के विवाहों के पंजीकरण का मसला न्यायिक समीक्षा के दायरे में पहुंच गया है. समलैंगिक जोड़े चाहते हैं कि उनके विवाह को मौलिक अधिकार के रूप में कानूनी मान्यता प्रदान की जाए और इसके लिए हिन्दू विवाह कानून, विशेष विवाह कानून और विदेशी विवाह कानून में संशोधन के लिए उचित निर्देश दिये जाएं ताकि उनकी शादी का पंजीकरण हो सके.

आज भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में समलैंगिक जीवन को तेजी से मान्यता मिलती जा रही है. विश्व के अनेक देशों में समलैंगिकता को हेय नज़रिये से नहीं देखा जाता है और अब भारत में भी स्वेच्छा से स्थापित समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर किया जा चुका है.

सुप्रीम कोर्ट की तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने छह सितंबर, 2018 को NAVTEJ SINGH JOHAR & ORS. VS UNION OF INDIA प्रकरण में अपने 495 पेज के फैसले में कहा था कि एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्यों को भी संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के तहत गरिमा के साथ जीने का हक है. लेकिन इसमें समलैंगिक जोड़ों के विवाह होने पर उसे मान्यता देने या उसके पंजीकरण के बारे में स्थिति स्पष्ट नहीं थी.

पीठ ने अपनी व्यवस्था में अप्राकृतिक यौनाचार से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के एक हिस्से को निरस्त करते हुए कहा था कि यह समता और गरिमा के साथ जीने की आजादी प्रदान करने वाले संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन करता है. संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा शामिल थीं.

न्यायालय ने भी अपनी इस व्यवस्था में समाज और लोगों के नजरिये में बदलाव पर जोर देते हुए कहा था कि समलैंगिकता एक जैविक तथ्य है और इस तरह के लैंगिक रुझान रखने वाले समुदाय के सदस्यों के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव उनके मौलिक अधिकार का हनन है.

ऐसा नहीं है कि समलैंगिक यौन रिश्तों को अपराध के दायरे से बाहर रखने के फैसले के बाद उठने वाले मुद्दों के प्रति केन्द्र सरकार अनभिज्ञ थी. केन्द्र सरकार ने दो वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों के परिप्रेक्ष्य में धारा 377 की संवैधानिक वैधता का मामला शीर्ष अदालत के विवेक पर छोड़ दिया था.

केन्द्र की ओर उस समय तत्कालीन अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता (अब सॉलिसिटर जनरल) ने न्यायालय से यह स्पष्ट करने का अनुरोध किया था कि जीवन साथी के चयन का अधिकार किसी विकृति की ओर नहीं बढ़ना चाहिए. समलैंगिकता के लिए अपना साथी चुनने की आजादी के तहत व्यक्ति को अपनी बहन जैसे सगे संबंधी को ही साथी चुनने या उसके साथ यौनाचार का अधिकार नहीं मिलना चाहिए क्योंकि इस तरह का कृत्य हिन्दू कानून के सिद्धांतों के विपरीत होगा.


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समलैंगिक जोड़ों का विवाह, धर्म और कानून

संविधान पीठ की इस व्यवस्था के साथ ही आशंका व्यक्त की जा रही थी कि निकट भविष्य में समलैंगिक जीवन गुजार रहे जोड़ों की शादी, उनके द्वारा बच्चे गोद लेने की कवायद, ऐसे जोड़ों में उत्तराधिकारी का मुद्दा, घरेलू हिंसा और संबंध विच्छेद होने की स्थिति में गुजारा भत्ता जैसे मुद्दे भी उठेंगे तो क्या उनका होगा क्योंकि इनका संबंध दूसरे कानूनों से है.

चूंकि इस समय देश में विभिन्न धर्मों के कानूनों में समलैंगिक जोड़ों के विवाह का कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए ऐसे विवादों का समाधान खोजने की जिम्मेदारी भी न्यायपालिका पर ही आ गई है.

दो वयस्कों के बीच स्वेच्छा से समलैंगिक यौनाचार को अपराध के दायरे से बाहर करने के फैसले के बाद वैसा ही हुआ जिसकी आशंका व्यक्त की जा रही थी. समलैंगिक विवाह करने वाले कम से कम आठ जोड़ों ने अपनी शादी के पंजीकरण की समस्या को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिकाएं दायर कर रखी हैं. इन याचिकाओं में उठाये गए सवालों का समाधान खोजना निश्चित ही न्यायपालिका के भी एक चुनौतीपूर्ण काम है.

उच्च न्यायालय ने समलैंगिक विवाहों को मान्यता देने के सवाल पर Zainab Patel v UOI and Ors & Nibedita Dutta v UOI and Ors प्रकरण् में केन्द्र सरकार से जवाब मांगा था. केंद्र सरकार ने शुरू में उच्च न्यायालय से कहा था कि भारत में कानून समलैंगिक विवाह की अनुमति नहीं देता है. भारतीय कानून व्यवस्था में सिर्फ जैविक पुरुष और जैविक महिला के बीच ही विवाह हो सकता है.

इसी तरह की एक अन्य याचिका Abhijit Iyer Mitra & ors vs UOI मामले में इस साल फरवरी में केन्द्र सरकार ने उच्च न्यायालय में दाखिल हलफनामे में कहा था कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किये जाने के बावजूद समलैंगिक विवाह का कोई मौलिक अधिकार नहीं है.

इन याचिकाओं में जहां समलैंगिक विवाहों को मौलिक अधिकार के रूप में कानूनी मान्यता देने और भारत में हिन्दू विवाह कानून, विशेष विवाह कानून और विदेशी विवाह कानून में ऐसे विवाहों के लिए कानून बनाने का निर्देश देने का भी अनुरोध किया गया है. समलैंगिक विवाह करने वाले इन जोड़ों ने उच्च न्यायालय से अनुरोध किया है कि उनकी शादी को मान्यता देने के साथ ही समलैंगिक जीवन बिताने वाले जोड़ों को शादी करने का मौलिक अधिकार प्रदान किया जाए.

इन याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान ही गैर सरकारी संगठन सेवा न्याय उत्थान फाउंडेशन ने एक आवेदन दायर कर इसमें हस्तक्षेप की अनुमति मांगी है। इस संगठन का कहना है कि हिन्दू विवाद कानून के अंतर्गत इस तरह के समलैंगिक विवाहों को अनुमति नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि ऐसा करना हिन्दू समाज के धार्मिक अधिकारों में पंथनिरपेक्ष शासन का हस्तक्षेप होगा.

संगठन का कहना है कि विवाह की प्रक्रिया में किसी भी प्रकार का बदलाव किसी आस्था विशेष से इतर देश के सभी नागरिकों के लिये होना चाहिए या फिर इस तरह के विवाह को उस दायरे तक सीमित रखना चाहिए जिसे ‘धार्मिक क्रिया’ नहीं बल्कि ‘दीवानी करार’ समझा जाता है.

यही नहीं, संगठन का यह भी तर्क है कि हिन्दू परंपराओं के अंतर्गत विपरीत सेक्स के दो व्यक्ति परिवार व्यवस्था को ‘पवित्रता’ प्रदान करने और वैध संतान के उद्देश्य के लिए विवाह कर सकते हैं.

समलैंगिक विवाह को मान्यता और ऐसी शादियों के पंजीकरण का मामला इस समय उच्च न्यायालय के विचाराधीन है जिस पर तीन फरवरी को आगे सुनवाई होगी. उसी दिन इस मामले में गैर सरकारी हिन्दू संगठन के आवेदन पर भी विचार होने की संभावना है.

इस संवेदनशील विषय पर न्यायपालिका की व्यवस्था चाहे जो आए लेकिन इतना निश्चित है कि समलैंगिक विवाहों को किसी भी समुदाय के धार्मिक रीति रिवाज और कानून के तहत मान्यता देने पर नए विवाद खड़े हो सकते हैं.

इसलिए उच्चतम न्यायालय द्वारा सितंबर, 2018 में स्वेच्छा से दो वयस्क समलैंगिकों के बीच यौन संबंध बनाने को अपराध की श्रेणी से बाहर रखने जैसा कोई निर्णय सुनाने के लिए अत्यधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता है. यही नहीं, इस मुद्दे का समाधान खोजते समय सामाजिक सोच मे आ रहे बदलाव के मद्देनजर विभिन्न धर्मो के विवाह से संबंधित रीति रिवाजों और नये तरह का जीवन गुजारने की दिशा में आगे बढ़ रहे समुदाय के अधिकारों के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता है.

अब देखना यह है कि समलैंगिक विवाहों को मान्यता देने के मसले का न्यायपालिका किस तरह समाधान करेगी। क्या न्यायालय से ऐसे विवाहों को हिन्दू विवाह कानून के तहत मान्यता मिलेगी या फिर वह विशेष विवाह कानून के प्रावधानों के तहत ऐसे विवाहों के पंजीकरण के बारे में कोई दिशा निर्देश देगा क्योंकि निकट भविष्य में इस तरह के और मामले सामने आ सकते हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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