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Monday, 21 October, 2024
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बांग्लादेशियों का भरोसा जीत कर ही भारत अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लक्ष्य हासिल कर सकता है

बांग्लादेश में प्रतिकूल सरकार ‘बिम्स्टेक’ प्रोग्राम को ही नहीं, एक क्षेत्रीय तथा वैश्विक शक्ति के रूप में भारत की हैसियत को भी कमज़ोर कर सकती है.

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बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना की अवामी लीग के 15 साल (2009-24) के शासन में भारत-बांग्लादेश संबंध ऐसे थे कि दोनों की गाड़ी अच्छी चल रही थी. राष्ट्रीय सुरक्षा के सभी मामलों में दोनों देशों के बीच पूरे आपसी सहयोग का माहौल था. ‘बिम्स्टेक’ यानी ‘बे ऑफ बंगाल इनीशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टरल टेक्निकल ऐंड इकोनॉमिक को-ऑपरशन’ के तहत भारत की ‘लुक ईस्ट’ (पूरब पर नज़र रखो) नीति में बांग्लादेश सक्रिय सहयोग दे रहा था. चीन के साथ बांग्लादेश के आर्थिक तथा सैन्य संबंधों (बांग्लादेश की सेना मुख्यतः चीनी हथियारों से लैस है) के बावजूद हसीना ने भारत के हितों को कभी नुकसान नहीं पहुंचाया. भारत-बांग्लादेश आर्थिक सहयोग ने नई ऊंचाइयां छुईं. तीस्ता नदी के पानी के बंटवारे में समस्या के सिवा दूसरे सभी आपसी विवादों को सौहार्द्र के साथ सुलझाया गया, जिसमें ज़मीनी और समुद्री सीमाओं का निर्धारण भी शामिल है.

लेकिन इस कामयाबी के जोश में भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र ने बदकिस्मती से वही गलती कर डाली जो अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में प्रायः किया जाता रहा है. भारत बांग्लादेश की जन भावना से कट गया और वहां के राजनीतिक विपक्ष से अपना रिश्ता तोड़ लिया. इसका नतीज यह हुआ कि जब वहां सरकार का तख्ता पलट दिया गया और हसीना 5 अगस्त को भागकर भारत चली आईं तो भारत सरकार को रणनीतिक झटका लग गया.

हसीना की क्रूर तानाशाही, 2024 के चुनाव में कथित धांधली, लगभग एक दलीय शासन, बढ़ती बेरोज़गारी और ‘दूसरी आज़ादी’ के संघर्ष में तब्दील हुए आरक्षण विरोधी आंदोलनों के बर्बर दमन के खिलाफ बांग्लादेशियों में तीखे असंतोष का अंदाज़ा लगाने में भारत नाकाम रहा. लोग भारत में नव-राष्ट्रवादी तत्वों द्वारा मुसलमानों की लानत-मलामत और भारत के राजनीतिक तथा सैन्य नेतृत्व के उन बयानों से भी नाराज़ थे जिनमें कथित अवैध मुसलमानों को ‘दीमक’, ‘घुसपैठिए’ कहा गया, लेकिन जिसे बांग्लादेशियों ने अपना राष्ट्रीय अपमान माना.

हसीना के साथ-साथ भारत भी अस्थायी तौर पर उनकी नफरत का प्रतीक बन गया. मैंने ‘अस्थायी तौर पर’ इसलिए कहा क्योंकि बांग्लादेश में कोई भी हुकूमत भौगोलिक और आर्थिक मजबूरियों और सत्ता संतुलन की वजह से भारत को प्रतिद्वंद्वी बनाने का जोखिम नहीं मोल ले सकती. अब यह भारत की जिम्मेवारी है कि वह अंतरिम तथा भावी सरकारों के साथ संबंध ठीक रखे और अपने रणनीतिक हितों की रक्षा करे.


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इस्लामी और सांस्कृतिक राजनीति का घातक मेल

बांग्लादेश में धार्मिक और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बीच निरंतर द्वंद्व चलता रहा है. अलग-अलग समय पर सेना तख्तापलट करके सत्ता हथियाती रही है, और सत्ता के दलाल वाली स्थायी भूमिका में रही है. देश का संविधान भी अनूठा ही है, उसका अनुच्छेद 12 धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करने का संकल्प लेता है तो अनुच्छेद 2ए इस्लाम को मुल्क का मजहब घोषित करता है.

24 साल तक राज कर चुकी अवामी लीग के साथ आज़ादी की जंग लड़ने का श्रेय जुड़ा है और वह धर्मनिरपेक्ष सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की झंडाबरदार है. वह पाकिस्तान का और कट्टरपंथ का विरोधी है. उसने कट्टरपंथियों पर हमला बोला था और भारत विरोधी अलगाववादियों के अड्डों को भी उखाड़ फेंका था.

दूसरी ओर, बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) विचारधारा से इस्लामी राजनीतिक पार्टी है. हालांकि, वह खुद धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करती है. वह कट्टरपंथी पार्टी नहीं है, लेकिन कट्टरपंथियों के प्रति उदार रही है. वह आईएसआई की शह पाए कट्टरपंथियों और भारत विरोधी अलगाववादियों को छूट देने की हद तक पाकिस्तान समर्थक है.

पिछले 40 साल से अवामी लीग और बीएनपी बारी-बारी से सत्ता में आती रही हैं और ये दोनों राजनीतिक लाभ की खातिर तीसरे खिलाड़ी, फिलहाल प्रतिबंधित कट्टरपंथी पार्टी जमात-ए-इस्लामी से हाथ मिलाती रही हैं. जमात 2001-06 के बीच बीएनपी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार में शामिल थी और उसके तार अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी संगठनों तथा भारत में उनकी शाखाओं से जुड़े रहे हैं.

फौजी या अर्द्ध फौजी हुकूमतों ने बांग्लादेश पर 11 साल तक राज किया. अपनी सत्ता के शुरू के वर्षों में फौज ने मजहब को प्रमुखता दी और भारत विरोधी रुख भी रखा. बांग्लादेश की सियासत की एक खासियत यह भी है कि विजयी पार्टी न केवल सरकार बनाती है बल्कि पूरे शासन तंत्र और नौकरी बाज़ार समेत तमाम संस्थाओं पर भी कब्ज़ा जमा लेती है.

वहां की हर एक सरकार को कुशासन के कारण जनता के विरोध का सामना करना पड़ा है. हसीना का तख्ता छात्रों के नेतृत्व और जनता के समर्थन से चले आंदोलन ने पलट दिया. अब बनी अंतरिम सरकार का नेतृत्व नोबल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस कर रहे हैं, जिसमें छात्र नेताओं को भी अच्छा प्रतिनिधित्व दिया गया है जिन्होंने बेहतर शासन के लिए एक नयी राजनीतिक पार्टी बनाने की मंशा जताई है.

इस संकट में अमेरिका, चीन, पाकिस्तान जैसे ‘विदेशी हाथ’ को लेकर भी अंतहीन अटकलें लगाई जाती रही हैं, लेकिन छात्रों के नेतृत्व में और जनता के व्यापक समर्थन से चले जनांदोलनों में विदेशी खुफिया एजेंसियां फंड देने के सिवा कोई भूमिका नहीं निभा सकती हैं. असली मुद्दा यह है कि भावी राजनीतिक व्यवस्था क्या स्वरूप लेती है.

राजनीतिक स्थिति अभी भी स्वरूप ले रही है. क्या बांग्लादेश में जब बीएनपी की इस्लामी सरकार बनेगी तब उसकी राजनीति पिछले ढर्रे पर चलेगी, जिसका ऊपर ज़िक्र किया जा चुका है? या एक नई अर्थव्यवस्था और शासन-केंद्रित राजनीतिक व्यवस्था उभरेगी? इन सवालों का जवाब भविष्य ही देगा. भारत की सुरक्षा संबंधी चिंताओं का समाधान बांग्लादेश में उभरने वाली भावी राजनीति पर निर्भर होगा.


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भारत के लिए सुरक्षा संबंधी खतरे

बांग्लादेश तीन तरफ से भारत से घिरा है और बंगाल की खाड़ी तक उसकी पहुंच अब तक भारतीय नौसेना पर निर्भर रही. बाकी दुनिया से उसके सड़क और रेल मार्ग भारत से होकर गुज़रते हैं. दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाएं भी एक-दूसरे के साथ जुड़ी हैं. भारत आर्थिक और सैन्य दृष्टि से कहीं बड़ी ताकत है और बांग्लादेश इस क्षेत्र में उसकी अहम स्थिति से वाकिफ है. यह अंतरिम सरकार, बीएनपी और जमात तक के रुख से स्पष्ट है.

अमेरिका और चीन के बीच जो शक्ति संतुलन का खेल चल रहा है उसमें ये दोनों देश चाहते हैं कि बांग्लादेश उनके प्रभाव में रहे जबकि भारत इसका स्वाभाविक दावेदार है. चीन बांग्लादेश में अपना नौसैनिक अड्डा बनाने की लंबे समय से ख्वाहिश पाले हुए है और इस बात के भी पर्याप्त संकेत हैं कि अमेरिका भी यही चाहता है, लेकिन कोई भी आज़ाद देश अपनी रणनीतिक स्वायत्तता खोना नहीं चाहता और बांग्लादेश की भी ऐसी कोई सुरक्षा संबंधी या आर्थिक मजबूरी नहीं है कि वो यह स्वायत्तता के मामले में कोई समझौता करे. बांग्लादेश में चीन की मौजूदगी भारत की घेराबंदी पूरी कर देगी और दोस्ताना अमेरिका की मौजूदगी भी भारत के राष्ट्रीय हितों को कमज़ोर करेगी.

पाकिस्तान के मन में 1971 में मिली हार और मुल्क के टूटने का मलाल बना हुआ है. वो भी पिछले दरवाजे से वहां घुसने के लिए उसकी नयी दोस्ताना इस्लामी सरकार का फायदा उठाने की कोशिश कर सकता है ताकि उससे सटे भारतीय राज्यों असम और पश्चिम बंगाल में, जहां पुराने और अवैध मुस्लिम प्रवासियों की अच्छी-खासी आबादी है, छद्म युद्ध शुरू करने के लिए जमात तथा दूसरे कट्टरपंथी संगठनों को शह दे सके. भारत के लिए यह प्रत्यक्ष खतरा मौजूद है.

बांग्लादेश में जब भी इस्लाम समर्थक पार्टियां सत्ता में आती हैं और संस्कृति पर धर्म हावी होने लगता है तब-तब कट्टरपंथी तत्वों का हौसला बढ़ जाता है और वे वहां की 8 फीसदी हिंदू आबादी को निशाना बनाने लगते हैं. ऐसा तब भी होता है जब भारत विरोधी भावनाएं हावी होने लगती हैं, लेकिन बांग्लादेश की स्थापना के बाद से कभी ऐसा नहीं हुआ है कि हिंदुओं को निशाना बनाने वालों को सरकार की ओर से व्यवस्थित समर्थन मिला हो. मेरा मानना है कि पिछले दो सप्ताह से वहां भारत विरोधी भावनाएं अपने चरम पर रहीं इसके बावजूद हिंदुओं को संगठित रूप से निशाना नहीं बनाया गया है. खबरों के मुताबिक, पांच हिंदू मारे गए हैं और करीब 200 घरों आदि पर हमले किए गए हैं, जो मुख्यतः अवामी लीग के समर्थकों के थे. फिर भी, हिंदू आबादी की सुरक्षा भारत के लिए चिंता का विषय है.

अतीत में सेना समर्थित कुछ सरकारों और बीएनपी ने भारत विरोधी आलगाववादियों को बांग्लादेश में अड्डा बनाने की छूट दी थी, लेकिन 2017 तक अवामी लीग सरकार ने इन सारे तत्वों को या तो नष्ट कर दिया दिया था या वहां से भागने पर मजबूर कर दिया था. हालांकि, अलगाववादियों का मरियल-सा टुकड़ा ही उत्तर-पूर्व में अभी भी मौजूद है, लेकिन भारत को उन्हें फिर से अपने अड्डे बनाने से रोकना होगा.

बांग्लादेश में प्रतिकूल सरकार भारत की ‘लुक ईस्ट’ नीति को, जिसने इस क्षेत्र में चीन की ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ (बीआरआई) को लगभग बेअसर कर दिया था, निष्फल कर सकती है. ‘सार्क’ जबकि निष्क्रिय पड़ा है, ‘बिम्स्टेक’ प्रोग्राम अगर कमज़ोर पड़ा तो एक क्षेत्रीय तथा वैश्विक ताकत के रूप में भारत की हैसियत भी कमजोर पड़ेगी.

आगे का रास्ता

बांग्लादेश की ताज़ा घटनाओं से सदमे में आए भारत को अपनी जड़ता तुरंत तोड़नी होगी. हिंदुओं तथा दूसरे अल्पसंख्यक समूहों की सुरक्षा के मसले को कूटनीतिक और सार्वजनिक तरीके से उच्च स्तर पर उठाया गया है. बांग्लादेश में हालात तेज़ी से सामान्य हो रहे हैं. भारत को शासन के कूटनीतिक, आर्थिक और सॉफ्ट/हार्ड शक्ति जैसे सभी उपायों का प्रयोग करके इस बात की पूरी कोशिश करनी चाहिए कि बांग्लादेश एक दोस्ता एवं सहयोगी पड़ोसी बना रहे और भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पर दबाव न बने.

वहां चुनाव होने और नयी सरकार को सत्ता में आने में कम-से-कम छह महीने लगेंगे. इस बीच की अवधि का इस्तेमाल बांग्लादेशियों का विश्वास हासिल करने में किया जाए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संसद में अपनी वाक कला और संदेश देने के दूसरे माध्यमों का इस्तेमाल उनकी आहत भावनाओं और गुस्से को शांत करने में कर सकते हैं.

थाईलैंड में 4 सितंबर को ‘बिम्स्टेक’ का जो शिखर सम्मेलन होने वाला है उसका इस्तेमाल करके बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस के साथ बैठक की जाए. इस बात की पूरी कोशिश की जाए कि यूनुस अपना पहला विदेश दौरा भारत का ही करें. इसके बाद भारत के प्रधानमंत्री बांग्लादेश के लोगों का दिल और दिमाग जीतने के लिए वहां का जवाबी दौरा करने पर विचार करें.

इन दौरों में एक उदार आर्थिक पैकेज की घोषणा की जा सकती है. तीस्ता जल बंटवारा समझौते को अंतिम रूप देने की तत्काल कोशिश की जाए. जनता का विश्वास जीतने के बाद ही नवनिर्वाचित सरकार के साथ संबंध बनाना आसान होगा. बांग्लादेश सेना की अहमियत के मद्देनज़र सैन्य कूटनीति और सहयोग को और बढ़ावा दिया जाना चाहिए.

अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को बांग्लादेश के लिए लक्ष्मण रेखा बना देना चाहिए. हम अपनी तरफ से, विचारधारा को राष्ट्रीय हितों से ज्यादा महत्व देने की कोशिश न करें. अगर भारत अपनी मिसाल नहीं पेश कर सकता तो वह इस्लामी बहुमत वाले किसी देश से यह कैसे अपेक्षा कर सकता है कि वह धर्मनिरपेक्षता का पालन करे? बांग्लादेश को साफ संदेश दे दिया जाए कि भारत इस बात की कतई इजाजत नहीं दे सकता कि कट्टरपंथी तत्व उसकी जमीन से भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियां चलाएं या वह भारत विरोधी अलगावादियों को अपने यहां पनाह दे.

भारत अमेरिका को भी स्पष्ट कर दे कि बांग्लादेश पर चीन के प्रभाव को बेअसर करने का रास्ता भारत से होकर ही गुजरता है. ‘बिम्स्टेक’ की परियोजनाओं में अमेरिकी निवेश से यह लक्ष्य स्वतः हासिल हो सकता है.

संकट का समय नयी शुरुआत करने का भी अवसर भी देता है. बांग्लादेश की कोई भी सरकार अपनी सुरक्षा और आर्थिक प्रगति में भारत की भूमिका के महत्व की अनदेखी नहीं कर सकती और न पिछले 15 सालों में हासिल उपलब्धियों को गंवाना चाह सकती है. भारत के लिए बांग्लादेश की जनता का भरोसा जीतना ही अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों की रक्षा करने की कुंजी है.

(लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर) ने भारतीय सेना में 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और मध्य कमान के जीओसी इन सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य रहे. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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