सेना में भर्ती की नीति को जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर भेदभाव करने का आरोप लगाने वाली एक लोकहित याचिका सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में खारिज कर दिया था. सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषायी एकरूपता पर आधारित वर्गीकरण के आधार पर सेना में निर्मित कुछ रेजीमेंटों के अस्तित्व के पक्ष में सेना ने जो तर्क दिए थे उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने कबूल कर लिया था. तर्क यह था कि ऐसी एकरूपता सेना की ताकत बढ़ाने और लड़ाई जिताने में मददगार होती है. इन दावों को बिना बहस के कबूल कर लिया गया था. 2018 के बाद से, और अभी मार्च 2022 में दक्षिण हरियाणा के अहीर समुदाय के कुछ नेता सेना के इन तर्कों के आधार पर अहीर रेजीमेंट के गठन की मांग कर रहे हैं.
एकरूपता और युद्ध क्षमता
यह समुदाय अहीरों के युद्ध कौशल के उदाहरण देकर वैसी ही मान्यता दिए जाने की मांग कर रहा है जैसी सिख, गोरखा, जाट, गढ़वाल और राजपूत सरीखे समुदायों को दी गई है. इस तरह की मांगों का क्षेत्रीय महत्व हो सकता है या वे चुनाव में समर्थन जुटाने के लिए उठाई जाती हैं. लेकिन हमें इस बुनियादी तर्क की जांच करने से पीछे नहीं हटना चाहिए कि एकरूपता और युद्ध कौशल में क्या वाकई कोई संबंध है? ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के दौरान जब कुछ सिख यूनिटों ने बगावत कर दी थी तब इस तरह की संस्थागत जांच की गई थी. इसके बाद अखिल भारतीय वर्गीय ढांचे के आधार पर यूनिटों का गठन किया गया और सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषायी आधार पर एकरूपता के तर्क को खारिज कर दिया गया. यह बदलाव आंशिक हुआ और इसे सिगनल्स, इलेक्ट्रिकल, मेकेनिकल इंजीनियरों, आर्मी सर्विस कोर, और आर्मी ऑर्ड्नेंस कोर जैसे सपोर्ट एवं लॉजिस्टिक्स महकमों में आसानी से लागू कर दिया गया.
युद्ध से सीधे जुड़े इन्फैन्ट्री, मेकेनाइज्ड इन्फैन्ट्री, आर्मर्ड कोर, आर्टिलरी एवं इंजीनियर्स जैसे महकमों ने अखिल भारतीय वर्गीकरण के आधार पर गठन किए जाने का विरोध किया और सिंगल, फिक्स्ड, मिक्स्ड क्लास जैसे विविध वर्गीय मॉडलों से जुड़े रहने का फैसला किया जिनमें स्थानीयता, जाति, क्षेत्र को यूनिटों के गठन का आधार बनाया जाता है. लेकिन मेकेनाइज्ड इन्फैन्ट्री, आर्मर्ड कोर, आर्टिलरी में ज़्यादातर नयी यूनिटों का गठन अखिल भारतीय वर्गीकरण के आधार पर किया गया. जिन पुरानी इन्फैन्ट्री, आर्मर्ड कोर, आर्टिलरी रेजीमेंटों का गठन ब्रिटिश भारतीय सेना के आधार पर किया गया था उन्होंने बदलाव का विरोध किया और इसके लिए तर्क दिया कि वे ऑपरेशन चलाने में प्रभावी होते हैं और यह प्रशासनिक रूप से सुविधाजनक भी है.
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करिअप्पा का प्रयोग
1949 में, भारत के कमांडर-इन-चीफ जनरल के.एम. करिअप्पा ने सेना की सबसे पुरानी बटालियनों—पंजाब, ग्रेनेडियर्स, और राजपूत—को मिलाकर ‘द ब्रिगेड ऑफ द गार्ड्स’ नामक इन्फैन्ट्री रेजीमेंट का गठन किया था. इसके पीछे विचार राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने और यह प्रयोग करने का था कि इस तरह से एकजुट हुए लोग उसी जोश से फौजी फर्ज निभाते हैं या नहीं जिस जोश से वे अपने वर्ग के नाम पर निभाते हैं. आज़ादी के बाद भारत ने जो लड़ाइयां लड़ीं उनमें एकीकृत यूनिट के रूप में ‘द ब्रिगेड ऑफ द गार्ड्स’ का शानदार प्रदर्शन इस प्रयोग की सफलता का प्रमाण है. अपनी एकरूप वर्गीय पहचान से मुक्त होकर वे एक भारतीय होने के नाते लड़े. सामान्य नियम के मुताबिक भी, संगठनों के अंदर भारत की विविधता के एकीकरण से प्रतिभाओं का बड़ा दायरा उपलब्ध होता है, जो एकरूपता से हासिल होना संभव नहीं है.
इसलिए, बाकी रेजीमेंटों को भी अखिल भारतीय वर्गीकरण के मुताबिक बदलने की बहुत जरूरत है, हालांकि लद्दाख, सिक्किम, और अरुणाचल प्रदेश स्काउट्स जैसी यूनिटों के रूप में कुछ अपवाद छोड़े जा सकते हैं. इससे रोजगार में अवसर की समानता का संवैधानिक अधिकार मजबूत होगा, जिसे आज सेना में महिलाओं को भर्ती करने से संबंधित कानूनी विवाद के बरअक्स देखा जा रहा है सुधार और परिवर्तन कुछ समय के अंदर लोगों को अखिल भारतीय वर्गीकरण के तहत शामिल करके किया जा सकता है. परिवर्तन की योजना केंद्रीय स्तर पर सावधानी से बनाई और लागू की जा सकती है. विभिन्न वर्गों के लिए प्रोमोशन में आरक्षण जैसे संवेदनशील प्रशासनिक मसले पर समुचित ध्यान देना होगा ताकि केरियर आगे बढ़ाने के लिए केवल पेशेवर योग्यता ही एकमात्र कसौटी बने.
सिद्धांततः, सेना में नियुक्ति की नीति में योग्यता को ही मुख्य कसौटी बनाया जाना चाहिए. फिलहाल, यह ‘रिक्रूटेबल मेल पोपुलेशन (आरएमपी) इंडेक्स सिस्टम’पर आधारित है, जिसमें योग्यता से ज्यादा भौगोलिक प्रतिनिधित्व को तरजीह दी जाती है. बड़ी आबादी वाले राज्यों को ज्यादा वैकेंसी दी जाती है. मौजूदा आरएमपी सिस्टम में भौगोलिक दृष्टि से असमान आबादी वृद्धि का ख्याल नहीं रखा गया है, जो कि फिलहाल 2011 की जनगणना पर आधारित है. यह स्थिति वैसी ही है जैसी 2026 में तब होगी जब संवैधानिक व्यवस्था की मांग पर राज्यों का परिसीमन किया जाएगा और तब वे घाटे की स्थिति में होंगे. दक्षिण के राज्यों में परिवार नियोजन की तुलनात्मक सफलता के कारण लोकसभा और राज्यसभा में उनका प्रतिनिधित्व घटेगा जबकि उत्तर के राज्यों का बढ़ेगा. नौसेना और वायुसेना ने आरएमपी सिस्टम को पाले ही खारिज कर दिया है.
सौभाग्य से, अभी ऐसा कोई विधायी प्रावधान नहीं है जो सरकार को सेना में आरक्षण को लागू करने को विवश करे. भर्ती नेशनल सिस्टम पर आधारित हो सकती है जो कि एक समान है और चयन मुख्यतः योग्यता के आधार पर होता है. इसमें शारीरिक और मानसिक क्षमताओं का आकलन शामिल है. जाहिर है, क्षेत्रीय और जातीय कारणों से शारीरक तथा शैक्षिक योग्यताओं में स्वाभाविक असमानताओं का हिसाब भी शामिल होगा. यह मान कर चला जाएगा कि सभी राज्यों ने ने शिक्षा के मामले में प्रगति का एक न्यूनतम स्तर हासिल कर लिया है. इस दृष्टि से भौगोलिक प्रतिनिधित्व पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ेगा.
भेदभाव की विरासत को खत्म करें
अहीर समुदाय की मांग उस मौजूदा व्यवस्था को उजागर करती है जिसमें अंग्रेजों द्वारा लागू किए गए कुछ भेदभाव अभी भी कायम हैं. अंग्रेजों ने युद्धकला में निपुण कुछ समुदायों की पहचान करके वर्गीय संरचना के आधार पर अपना सैन्य बल तैयार किया था. हालांकि सैन्य कमान ने अखिल भारतीय वर्गीकरण को सिद्धांततः स्वीकार कर लिया है लेकिन परंपरावादी तत्व परिवर्तन में बाधा डाल रहे हैं और भावना ने तार्किकता को गौण बना दिया है. इसके साथ आबादी में अलग-अलग वृद्धि को जोड़कर देखें तो भर्ती की मौजूदा नीति को तकनीकी रूप से गैर-भेदभावपूर्ण माना जा सकता है लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से यह चयन की कसौटी को ढीला करती है.
भर्ती राष्ट्रीय एकता का एक बुनियादी तत्व है. लेकिन इसके अलावा दूसरे तत्व भी हैं मसलन नेतृत्व, प्रशिक्षण, प्रेरणा, व्यापक नजरिया बनाना, और एकता की भावना जगाना, आदि. इनसे सैन्य प्रभाव विकसित होता है. लंबे समय से नौसेना, वायुसेना, और थलसेना के सभी पदों और अधिकारियों के पदों पर अखिल भारतीय योग्यता की व्यवस्था के आधार पर भर्ती होती रही है. अखिल भारतीय वर्गीकरण के आधार पर गठित इन्फैन्ट्री और दूसरी युद्धक यूनिटों का प्रदर्शन इस तर्क को बेमानी साबित करता है कि सांस्कृतिक, सामाजिक, और भाषायी एकरूपता सैन्य कार्रवाई के हित में जरूरी है.
योग्यता पर आधारित अखिल भारतीय वर्गीकरण के तहत चयन प्रक्रिया में सुधार राजनीतिक हस्तक्षेप से ही किया जा सकता है. इसके साथ सेवा शर्तों के संशोधित मॉडलों की भी खोज की जाए जिससे पेंशन पर बढ़ते खर्च पर लगाम लग सके, सेना युवा बनी रहे और ऑपरेशनों में कुशलता को बढ़ावा मिले.
लेखक एक कॉलम्निस्ट और एक स्वतंत्र पत्रकार हैं जो फिलहाल स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज (SOAS) से चीन पर ध्यान केंद्रित करते हुए इंटरनेशनल पॉलिटिक्स में एमएससी कर रहे हैं. विचार निजी हैं.
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