राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद में प्रतिदिन सुनवाई के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अस्वाभाविक हड़बड़ी का प्रदर्शन किया है. संभव है कि कोर्ट नवंबर में भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की सेवानिवृत्ति से पहले दशकों पुराने इस मुद्दे को सुलझाने के उद्देश्य से ऐसा कर रहा हो. पर सुप्रीम कोर्ट ने मानवाधिकारों के घोर उल्लंघन के मामलों को निपटाने में नहीं के बराबर दिलचस्पी दिखाई है, कई बार तो बिल्कुल ही नहीं.
कानून की दशा बड़ी विचित्र होती है, अक्सर ये ऐसा रूप धर लेती है जो कि अनपेक्षित परिणामों के कारण ताकतवरों को रास नहीं आती. कई बार तो इन परिणामों पर नियंत्रण रख पाना, या इनका पूर्वानुमान लगा पाना सुप्रीम कोर्ट की पांच सीनियर जजों की खंडपीठ के वश में भी नहीं रह जाता.
पर सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा पांच वरिष्ठतम जज निश्चय ही ये सुनिश्चित कर सकते हैं कि भारत के सर्वाधिक विवादित मामलों में से एक के खात्मे की राह में कुछ भी बाधक नहीं बन पाए. इसी से अयोध्या-बाबरी मस्जिद मामला खत्म हो सकेगा, न कि मध्यस्थता के एक और दौर से. जजों को इस संबंध में किसी भी राजनीतिक दल के लिए राजनीति की गुंजाइश नहीं छोड़नी चाहिए. ये विवाद न सिर्फ लंबे समय से कायम है बल्कि बीते वर्षों में इसके कारण बहुत से लोगों को जान भी गंवानी पड़ी है– साथ ही इसने कइयों के राजनीतिक करिअर को बनाने-बिगाड़ने का काम भी किया है.
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मध्यस्थता के चक्कर में मत आएं
सोमवार को, अयोध्या मध्यस्थता कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि हिंदू और मुस्लिम समूह एक सौहार्दपूर्ण समाधान के लिए दोबारा बातचीत शुरू करना चाहते हैं.
पर सुप्रीम कोर्ट को पता है कि विगत में विवाद से जुड़े पक्षों के बीच मध्यस्थता के प्रयास नाकाम रहे हैं, और ऐसा कोई संकेत नहीं है कि एक बार फिर ऐसा ही नहीं होगा.
भले ही बहुत से लोग इसे 2.77 एकड़ ज़मीन के स्वामित्व का दीवानी मसला मानते हों, पर विवाद के केंद्र में धर्म है और इसमें दो या अधिक धर्मों के बीच खींचतान के सारे लक्षण देखे जा सकते हैं. और सिर्फ धर्म ही नहीं, यह विवाद राजनीति और धर्म का खतरनाक घालमेल बन गया है, जिससे जुड़ा है सैंकड़ो साल का विवादास्पद इतिहास और जनस्मृति में अंकित आक्रमणों की कहानियां.
इसीलिए सुप्रीम कोर्ट को मध्यस्थता कमेटी के ताज़ा प्रयास को विवाद के समाधान की प्रक्रिया में बाधक बनने की अनुमति नहीं देनी चाहिए.
कमेटी ने अदालत में दायर आवेदन में संकेत दिया है कि संवैधानिक खंडपीठ में मामले की सुनवाई जारी रहने के साथ-साथ मध्यस्थता के प्रयास भी चलते रह सकते हैं. पर ऐसा होने देना कोई अच्छी बात नहीं होगी. एक तो मध्यस्थों को सफलता मिलने की संभावना नहीं के बराबर है, दूसरे ऐसा करने पर लगातार अपना रुख बदलते रहने के लिए सुप्रीम कोर्ट को भी आलोचनाओं का सामना करना पड़ सकता है.
पूर्व के प्रयास
अनौपचारिक रूप से, मामले के सौहार्दपूर्ण समाधान के लिए हिंदुओं और मुसलमानों में सहमति बनाने के अनेक प्रयास हो चुके हैं. जहां तक औपचारिक मध्यस्थता की बात है तो पहली बार ऐसा 2017 में हुआ जब तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने मामले से ‘धार्मिक भावनाएं जुड़ी होने’ के कारण प्रतिद्वंद्वी पक्षों के बीच न्यायालय से बाहर सुलह के प्रयासों को अवसर देने की पेशकश की.
हालांकि संबद्ध पक्षों के इसमें दिलचस्पी नहीं लेने के कारण इस साल मार्च तक ये प्रस्ताव मात्र प्रस्ताव ही बना रहा, जब तक कि कोर्ट ने अदालती निगरानी में मध्यस्थता प्रक्रिया चलाए जाने का निर्देश नहीं दिया. कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व न्यायाधीश फकीर मोहम्मद इब्राहिम कलीफुल्ला के नेतृत्व में एक समित का गठन किया जिसमें आध्यात्मिक गुरु रविशंकर और सीनियर एडवोकेट श्रीराम पांचू को भी मध्यस्थ के रूप में शामिल किया गया. समिति को एक सौहार्दपूर्ण समाधान ढूंढ़ने के लिए 8 सप्ताह का समय दिया गया.
अगस्त महीने तक ये स्पष्ट हो चुका था कि कमेटी संबद्ध पक्षों के बीच सहमति नहीं बना पा रही है. इसके बाद मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की खंडपीठ ने मध्यस्थता के प्रयास को नाकाम मान लिए जाने का संकेत दिया.
संबद्ध पक्षों में से किसी के रुख में बदलाव आने के भी संकेत नहीं हैं कि मध्यस्थता को एक और मौका दिया जा सके.
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एक ही रास्ता शेष
तो, क्या मध्यस्थता एक ऐसे विवाद को सुलझाने में कामयाब रहेगी जहां कि बाकी सारे प्रयास नाकाम रहे हैं?
इसका दोटूक जवाब है- नहीं. इस विवाद में विभिन्न पक्षों का अपना-अपना पक्का रुख है, और घोषित रुख से पीछे हटने के लिए उनके पास कोई वजह नहीं है. यदि हिंदूवादी सुलह के लिए कुछ लेन-देन पर सहमत भी हो जाएं तो क्या भाजपा और संघ परिवार इसके लिए तैयार होंगे, जिन्होंने विगत वर्षों में राम मंदिर को एक राजनीतिक, वोट-जुटाऊ और भावनात्मक मुद्दा बना डाला है?
इसी तरह, दावों-प्रतिदावों का नया दौर शुरू हुए बिना मुसलमान भी अपने प्रतिनिधियों के रुख में किसी तरह की नरमी को शायद स्वीकार नहीं करेंगे.
उल्लेखनीय है कि पी.वी. नरसिम्हा राव (विध्वंस से पूर्व) और अटल बिहारी वाजपेयी (जनवरी 2002 में अपने कार्यालय में अयोध्या प्रकोष्ठ स्थापित किया था) जैसे राजनीतिज्ञ नेताओं ने भी सभी संबंद्ध पक्षों को साथ ला कर बातचीत के ज़रिए मतभेदों को दूर करने की कोशिश की थी. पर वे अपने प्रयास में बुरी तरह नाकाम रहे थे.
सुप्रीम कोर्ट भी मध्यस्थता के ज़रिए विवाद को सुलझाने की नाकाम कोशिश कर चुका है. अब ये कोर्ट के ऊपर है कि वह विवाद को न्यायिक प्रक्रिया के ज़रिए सुलझाए, और वो भी शीघ्रता से.
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)