scorecardresearch
Tuesday, 5 November, 2024
होममत-विमतनये साल के पहले दिन हिन्दी-जगत में रामधारी सिंह दिनकर उर्फ `मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है`...

नये साल के पहले दिन हिन्दी-जगत में रामधारी सिंह दिनकर उर्फ `मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है`…

देश का नाम भारत है तो इंडिया भी, राष्ट्रगान जन-गण-मन है तो वंदे मातरम् भी और सारे जहां से अच्छा की धुन भारतीय सेना बीटिंग रिट्रीट में बजाते आयी है, देश के झंडे में एक से ज्यादा रंग हैं और ठीक इसी तरह इस देश के कैलेंडर भी एक से ज्यादा हैं.

Text Size:

मेरा वाला, उनका वाला नया साल नहीं, भारत हमेशा एक से ज्यादा का देश है

लेख का शीर्षक देखकर चौंकना, नाक-भौं सिकोड़ना या यह ऐतराज जताना मना है कि `नये साल का पहला दिन है तो सबही के लिए पहला दिन है— नये साल के पहले दिन से भला हिन्दी का ऐसा क्या अनोखा रिश्ता हो सकता है कि उसे लेख का विषय बनाने लायक समझ लिया जाये?

दरअसल, उत्तर भारत खासकर, बिहार और यूपी के कस्बे में रहते हुए अगर आप हिन्दी के शिक्षक हैं तो नये साल का पहला दिन आपके लिए अब तक की अपनी हिन्दी साहित्य की पढ़ाई-लिखाई की परीक्षा और अपनी सारी जानकारी टटोलने का दिन साबित हो सकता है. कुछ ऐसे कि आपको अपने ही जाने-पढ़े हुए पर शक होने लगे. आपके व्हाट्सएप्प ग्रुप या फेसबुक-पेज पर हर दूसरा या तीसरा शख्स आपको हिन्दी के किसी कवि की कुछ ऐसी पंक्तियां बताता मिलेगा जिसमें कहा गया होगा कि पहली जनवरी से शुरू होने वाला साल चाहे किसी और का भले हो, भारतीयों का नहीं हो सकता.

दूसरी बात कि नये साल का पहला दिन आपके लिए भारतीय संस्कृति को नये सिरे से समझने-समझाने का आह्वान करते संदेशों से गुजरने का भी दिन हो सकता है. इन संदेशों को पढ़ते हुए आप इस सोच में पड़ सकते हैं कि एक भारतवासी के रूप में मेरी जड़ें कहां से शुरू मानी जायें और असल भारतीयता की शुरुआत मैं समय के किस बिन्दु से समझूं. और, तीसरी बात कि इन संदेशों से गुजरते हुए आप एक बहुत बड़ी सांस्कृतिक लड़ाई का हिस्सा बन जाते हैं—एक ऐसी लड़ाई जिसे आजकल आधुनिक भारत का स्वधर्म बदलने की लड़ाई कहा जा रहा है. जाहिर है, फिर आपको चुनना होता है कि इस लड़ाई में आप किस तरफ हैं.


यह भी पढ़ें: सौन्दर्य प्रतियोगिताएं क्यों….और क्यों नहीं?


नया साल और दिनकर की एक तथाकथित कविता

पिछले साल की तरह इस साल भी नये साल के पहले दिन व्हाट्सएप्प ग्रुप और फेसबुक पर शुद्ध हिन्दी में ढेरों संदेश मिले. इन संदेशों में बताया गया कि पहली जनवरी से शुरू होने वाला नया साल किस धर्म के मानने वालों का नया साल है. यह भी कि सच्चे भारतीयों का नया साल कब शुरू होता है और पहली जनवरी से शुरू होने वाला साल किस तरह अंग्रेजों, अंग्रेजी और ईसाइयत की गुलामी की मानसिकता से ग्रस्त होने का प्रतीक है.

ऐसा एक संदेश वीडियो की शक्ल में था. वीडियो में रामधारी सिंह दिनकर की तस्वीर लगी थी और एक महिला की आवाज में कविता की पंक्तियां सुनायी गई थीं किः

ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं- है अपना यह त्यौहार नहीं.

है अपनी यह तो रीत नहीं- है अपना यह व्यवहार नहीं.

कुल 37 पंक्तियों और 218 शब्दों से बनी इस कविता में आगे बताया गया है कि पहली जनवरी को तो हर साल जाड़े का दिन होता है, प्रकृति का आंगन सूना होता है, कोहरा घना होता है और सभी ठंड से ठिठुर रहे होते हैं. सो, कुछ दिन इंतजार करना बनता है. चैत्र माह की शुरुआत होगी तो भारतीयों के लिए नववर्ष मनाना ठीक रहेगा क्योंकि तब धरती शस्य-श्यामला होगी और घर-घर खुशहाली आयेगी. लेकिन कविता में बात सिर्फ यही नहीं कि ठिठुरती ठंड में नववर्ष क्यों मनाना जब प्रकृति में चारो तरफ धुंध और कोहरे की छाया तले सूनेपन का साम्राज्य फैला है. आगे कविता अपनी राजनीति का ऐलान करती है. पहली जनवरी को नववर्ष की शुरुआत मानने से इनकार करती कविता का रचयिता रामधारी सिंह दिनकर को बताता वीडियो इन पंक्तियों पर समाप्त होता हैः

तब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि-नव वर्ष मनाया जायेगा.

आर्यावर्त की पुण्य भूमि पर-जय गान सुनाया जायेगा.

युक्ति–प्रमाण से स्वयंसिद्ध–नव वर्ष हमारा हो प्रसिद्ध.

आर्यों की कीर्ति सदा-सदा- नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा.

वीडियो में इस कविता को सुनने के बाद आप सोच में पड़ते हैं कि आखिर राष्ट्रकवि कहलाने वाले रामधारी सिंह दिनकर ने ऐसी कविता कब लिखी. आप अपने शिक्षकों को और हिन्दी साहित्य का इतिहास बताने वाली पुस्तकों को कोसने लगते हैं कि कालेज की दिनों में किसी ने इशारे में भी नहीं बताया कि रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी किसी कविता में पहली जनवरी को नववर्ष मनाने से मना किया है. लेकिन जरा ठहरें, अपने शिक्षकों और पुस्तकों को कोसने से पहले गूगल के महासागर के गोते लगाकर इस कविता से जुड़े तथ्यों के मूंगे-मोती चुन लेने का एक काम बनता है.

कविता का शुरुआती वाक्य लिखकर खटका मारते ही गूगल आपको 3,66000 रिजल्टस् दिखाता है. थोड़ी सिर-खपाई के बाद आपको नजर आता है किः यह कविता इंटरनेट पर सबसे पहले एक ब्लॉग पर 2017 के दिसंबर के आखिरी हफ्ते में नजर आयी. साल 2018 में इंटरनेटी दुनिया में इस कविता का पहला वीडियो दाखिल हुआ और 2018 में ही इस कविता की पंक्तियों को सबसे पहले नववर्ष मनाने के नाम पर सांप्रदायिकता फैलाने के कृत्य करती एक रैली के बारे में लिखे लेख में उद्धृत किया गया. साल 2018 के 18 मार्च को बिहार के भागलपुर में निकली रैली का नेतृत्व तत्कालीन केंद्रीय राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे के बेटे अरिजीत शाश्वत कर रहे थे. लेख के अनुसार इस रैली में शामिल लोग कथित तौर पर उकसाने वाले नारे लगा रहे थे. इस रैली का आयोजन हिंदू नववर्ष के उपलक्ष्य में नववर्ष जागरण समिति द्वारा किया गया था. यह लेख के ब्लॉग-पोस्ट के रूप में हिन्दी का सबसे ज्यादा बिकने वाला अखबार (जागरण) के इंटरनेटी संस्करण में छपा.

मजेदार बात है कि इस कविता को पोस्ट करने वाली विभिन्न साइट्स पर जो कमेंट्स आये हैं, उनमे एक जगह आपको इस कविता के रचनाकार के नाम की जगह ‘अज्ञात` लिखा हुआ मिलेगा तो एक जगह यह भी किः `प्रस्तुत कविता रामधारी सिंह दिनकर जी की नहीं है. ये अंकुर ‘आनंद’ , १५९१/२१ , आदर्श नगर, रोहतक (हरियाणा ) की मौलिक रचना है. ये रचना दिनकर जी की किसी पुस्तक में नहीं मिलेगी (ये कमेंट खुद अंकुर आनंद ने लिखा है). साल 2021 के जनवरी माह में जब यह कविता वायरल हुई तो लखनऊ से प्रकाशित अखबार स्वतंत्र प्रभात ने अपनी वेबसाइट पर अंकुर आनंद की इसी टिप्पणी को उद्धृत करते हुए समाचार छापा कि `ये नववर्ष हमें स्वीकार नहीं`कविता दिनकर की नहीं है. नई दुनिया नाम के अखबार ने भी 2021 की जनवरी के पहले हफ्ते में इस कविता के वायरल होने की खबर छापते हुए इसके दिनकर रचित होने को लेकर शक जताया था.`

दिनकर और हिन्दू-संस्कृति की शुरुआत का सवाल

ये नववर्ष हमें स्वीकार नहीं`कविता रामधारी सिंह दिनकर ने लिखी है या रोहतक निवासी अंकुर आनंद ने– इस व्यर्थ की खोज-बीन में उलझने से बेहतर है ये सोचना कि क्या यह कविता दिनकर के भावबोध या उनके संस्कृति-चिन्तन से मेल खाती है. दरअसल पिछले दो सालों से पहली जनवरी पर सोशल मीडिया पर हिन्दी-जगत के चहुंओर पैर पसारने वाली यह कविता दिनकर के संस्कृति-चिन्तन के एकदम उलट बात कहती है.

दिनकर को `संस्कृति के चार अध्याय` नाम की पुस्तक पर 1959 में साहित्य अकादमी अवार्ड मिला. इस किताब का पहला संस्करण 1955 में छपा था यानी देश की आजादी के महज सात साल बाद. किताब के छपने पर हिन्दी-जगत में क्या प्रतिक्रिया रही इसका पता देते हुए तीसरे संस्करण की भूमिका में दिनकर लिखते हैः `इस ग्रंथ से प्रेरित पुस्तकों, प्रचार-पुस्तिकाओं, एवं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित निबंधों में जो कुछ लिखा गया अथवा मंचों से इस ग्रंथ के बारे में जो भाषण दिए, उनसे यह पता चला कि मेरी स्थापनाओं से सनातनी भी दुखी हैं और आर्यसमाजी तथा ब्रह्मसमाजी भी. उग्र हिन्दुत्व के समर्थक तो इस ग्रंथ से काफी नाराज हैं. नाराजगी का एक पत्र मुझे हाल में एक मुस्लिम विद्वान ने भी लिखा है. ये सब अप्रिय बातें हैं. नाराज मैं किसी को भी नहीं करना चाहता. मेरा यह विश्वास है कि यद्यपि मेरी कुछ मान्यताएं गलत साबित हो सकती हैं लेकिन इस ग्रंथ को उपयोगी मानने वाले लोग दिनोदिन अधिक होते जायेंगे. यह ग्रंथ भारतीय एकता का सैनिक है. सारे विरोधों के बीच यह अपना काम करता जायेगा.`

सनातनियों, उग्र हिन्दुत्व के समर्थकों और किसिम-किसिम के जमातियों और समाजियों का `संस्कृति के चार अध्याय` नाम की किताब की स्थापनाओं से नाराज होना ठीक ही था क्योंकि दिनकर की यह किताब भारत देश को किसी एक समुदाय का नहीं बल्कि सर्व-समुदाय का देश मानती है. किताब डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के कर-कमलों में कवीन्द्र टैगोर की इन पंक्तियों को दर्ज करते हुए समर्पित की गई हैः हेथाय आर्य, हेथा अनार्य, हेथाय द्राविड़-चीन– शक-हूण-दल, पठान-मोगल एके देहे होलो लीन.

सर्व-समुदाय के एक देह में लीन होने की प्रक्रिया को समझाने के क्रम में लिखी इस पूरी किताब में एक जगह आता हैः `विद्वानों ने हिन्दू-संस्कृति का अब तक जो अध्ययन किया है, उनमें उनका तरीका यह रहा है कि वे हिन्दू-धर्म के किसी एक रूप को लेकर पीछे की ओर चलने लगते हैं और जाते-जाते वेदों में उसका मूल खोजते हैं. किन्तु वेदों में हमारी संस्कृति के कई रूपों के केवल बीज मिलते हैं. इन बीजों का विकास कैसे हुआ, यह कथा अधूरी रह जाय, अगर हम यह विश्वास करके नहीं चले कि आर्य-संस्कृति के बहुत से बीचे बीजों का विकास द्राविड़ संस्कृति के संपर्क से हुआ.`

जातियों (कौम) और धर्मों की कैसी भी शुद्धता के विचार से इनकार करने वाली यह किताब न तो भारतीय संस्कृति को हिन्दू-संस्कृति का पर्यायवाची मानती है और न ही भारतीय संस्कृति के उद्गम का स्रोत किसी एक देव, व्यक्ति, पंथ, ग्रंथ या काल-खंड में खोजती है. बहुलतावाद का आख्यान रचने वाली इस किताब में हिन्दू-धर्म और हिन्दू-संस्कृति के बारे में लिखा मिलता हैः `हिन्दू-धर्म और संस्कृति का आज जो रूप है, उसके भीतर प्रधानता उन बातों की नहीं जो ऋग्वेद में लिखी मिलती हैं, बल्कि हमारे समाज की बहुत सी रीतियां और हमारे धर्म के बहुत से अनुष्ठान ऐसे हैं जिनका उल्लेख वेदों में नहीं मिलता. और, जिन बातों का उल्लेख वेदों में नहीं मिलता उनके बारे में विद्वानों का मत है कि या तो वे आर्येत्तर सभ्यता की देन हैं अथवा उनका विकास आर्यों के आने के बाद आर्य़ और आर्येत्तर दोनों संस्कृतियों के मेल से हुआ है. सुनीति कुमार चटर्जी का तो यहां तक कहना है कि हिन्दू संस्कृति के आधे से अधिक उपादान आर्येत्तर संस्कृतियों से आये हैं.’

मिलवां संस्कृति को हिन्दू-संस्कृति मानने और जानने वाले दिनकर `ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं` जैसी कविता नहीं लिख सकते क्योंकि उनकी नजर में भारत हमेशा से एक बनता हुआ राष्ट्र है और इस बनते हुए राष्ट्र में काल-गणना का कोई ऐसा बिन्दु निर्धारित ही नहीं किया जा सकता जो आर्य या आर्येत्तर किसी भी जाति के भारत-भूमि में जन्मने, पनपने या फिर फैलने से जुड़ा हो. चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से भारतीय नववर्ष की शुरुआत मानने और मनवाने पर तुले भारतीय संस्कृति के स्वघोषित रक्षक अपनी बात दिनकर की कलम से कहलवाने के शगल में शायद यह बात याद नहीं करना चाहें कि इस देश में नववर्ष की शुरुआत के सवाल पर एक समिति बनी थी और इस समिति की सिफारिशों से तय हुआ कि नववर्ष के लिए पहली जनवरी उतनी ही ठीक है जितनी कि चैत्रशुक्ल की प्रतिपदा.


यह भी पढ़ें: भले ही 2021 एक बुरा साल था लेकिन खराब वक्त में भी उसने खुश होने के कई मौके दिए


भारत का नववर्ष कब हो- एक समिति की सिफारिश

संस्कृति के चार अध्याय के छपने से तीन साल पहले काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रिल रिसर्च के मंच तले भारत सरकार ने कैलेंडर रिफॉर्म समिति बनायी थी. इस समिति के अध्यक्ष थे प्रसिद्ध वैज्ञानिक मेघनाद साहा. सदस्यों में अमिय चरण बनर्जी सरीखे गणितज्ञ और एन.सी लाहिरी जैसे प्रसिद्ध ज्योतिर्विद्याविद् शामिल थे. समिति का काम था वैज्ञानिक गणना के आधार पर एक ऐसा कलैंडर तैयार करना जिसे पूरे देश में लागू किया जा सके. तब देश के अलग-अलग हिस्सों में 30 से ज्यादा कैलेंडर प्रचलित थे और इन कलैंडरों के साथ स्थानीय समुदाय की धर्म-भावनाएं भी जुड़ी थीं. समिति की रिपोर्ट की प्रस्तावना में प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने लिखा:`ये (विभिन्न कैलेंडरों) बीते वक्त के सियासी बंटवारों के संकेतक हैं..अब जबकि हमने आजादी हासिल कर ली है तो यह वांछित ही है कि हमारे शासकीय, सामाजिक तथा अन्य उद्देश्यों के लिए कैलेंडर में निश्चित एकरूपता हो और ऐसा समस्या के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हुए किया जाये.`

कैलेंडर रिफॉर्म समिति की महत्वपूर्ण सिफारिशों में एक था कि शक संवत को अखिल भारतीय कैलेंडर के रूप उपयोग में लाया जाये और साल की शुरुआत वंसतकालीन उस वक्त के बाद से दिन से मानी जाये जब सूर्य भू-मध्यरेखा (इक्वेटर) के ऐन ऊपर (21/22 मार्च) होता है. समिति की सिफारिशों में यह भी था कि चैत्र से लेकर भाद्र तक 31 दिन के महीने माने जायें और बाकी माह 30 दिन के. कलैंडर रिफॉर्म समिति की इन्हीं सिफारिशों के आधार पर 22 मार्च 1957 से ग्रेगॉरियन कैलेंडर (पहली जनवरी से शुरू होने वाला साल) और शक संवत आधारित कैलेंडर (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से शुरू होने वाला साल) को भारत सरकार के गजट, सरकारी कैलेंडर, आकाशवाणी तथा अन्य सरकारी उद्घोषणाओं के लिए अपनाया गया.

नववर्ष पर राष्ट्रकवि दिनकर के मुंह से अपने मन की बात बुलवाने को आतुर, सिर्फ विक्रमी संवत आधारित कैलेंडर को पूरे देश का कैलेंडर बताने पर तुले हिन्दुत्व के पैरोकार यह बात आम नागरिक के मन से हमेशा के लिए मिटा देना चाहते हैं कि इस देश के सारे प्रतीक एक से ज्यादा हैं: देश का नाम भारत है तो इंडिया भी, राष्ट्रगान जन-गण-मन है तो वंदे मातरम् भी और सारे जहां से अच्छा की धुन भारतीय सेना बीटिंग रिट्रीट में बजाते आयी है, देश के झंडे में एक से ज्यादा रंग हैं और ठीक इसी तरह इस देश के कैलेंडर भी एक से ज्यादा हैं. भारत हमेशा एक से ज्यादा का देश है!

(लेखक बिहार के जेपी यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)


यह भी पढ़ें: अर्थव्यवस्था की खातिर मोदी और RBI के लिए 2022 का मंत्र- शांति से सुधार जारी रखें


 

share & View comments