राम मंदिर और लंबा संघर्ष जो कि बाद में 22 जनवरी 2024 को प्राण प्रतिष्ठा में परिणत हुआ, वह बहुत से मायनों में अपने तरह का अनूठा है. अयोध्या में समारोह के बाद जो राष्ट्रीय और वैश्विक उत्साह और उल्लास था, उसकी तुलना 1947 में आजादी के तुरंत बाद के जैसे ही किसी अनुभव से की जा सकती है. जैसा कि कैबिनेट प्रस्ताव में दर्शाया गया है, देश को 1947 में राजनीतिक आजादी मिली, और शायद देश की आत्मा, चिति, जैसा कि दीनदयाल उपाध्याय ने अपने एकात्म मानववाद में समझाया था, लगभग पांच शताब्दियों के बाद राम की मूर्ति को पुनर्स्थापित करने के बाद एक कलंक से मुक्त हो गई. वह क्षण उपलब्धि और संतुष्टि की भावना से भरा था जिसे पिछले सात या इतने दशकों में शायद ही कभी अनुभव किया गया हो.
राम मंदिर केवल ईंट-गारे की संरचना नहीं है; यह हिंदू गौरव का पुनरुत्थान है जिसे सदियों पहले लुटेरों की एक भीड़ ने चोट पहुंचाई थी. लूटपाट केवल धन के लिए नहीं थी और यह खजाने की खोज नहीं थी. “जन्मस्थान मंदिर” को तोड़ने का उद्देश्य नास्तिकों, बुतपरस्तों, (मूर्ति पूजकों) की मूर्तियों को नष्ट करने के लिए दिए गए धार्मिक आदेश का हिस्सा था. बुतशिकन (मूर्ति विध्वंसक) गजनी के महमूद ने सोमनाथ मंदिर के विनाश की जिम्मेदारी लेने पर गर्व किया.
आजादी और दुखद विभाजन के तुरंत बाद जबकि हिंदू और मुसलमानों के बीच संबंध काफी तनावपूर्ण थे तब भी सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण पर किसी प्रकार के दंगे नहीं हुए या सांप्रदायिक माहौल खराब नहीं हुआ. इस बात का कोई डर नहीं था कि ‘हिन्दू बहुसंख्यकवाद’ द्वारा अल्पसंख्यकों को रौंद दिया जाएगा; किसी विदेशी पत्रिका ने रिपोर्ट करके यह नहीं कहा कि ‘मस्जिद के ऊपर मंदिर बनाया जा रहा है.’ लेकिन अयोध्या में राम मंदिर को “भारत के हिंदू राष्ट्रवादियों की जीत में मोदी द्वारा खोला गया एक विशाल मंदिर” बताया गया है. न्यूयॉर्क टाइम्स ने बेबाकी से वर्णन किया है कि “प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटन किया गया मंदिर हिंदू भीड़ के हमले में नष्ट हुई सदियों पुरानी मस्जिद के विवादित स्थल पर है, जिसने मुसलमानों के खिलाफ हिंसा के मामलों में दण्ड से मुक्ति की एक मिसाल कायम की है.” यदि अखबार के विद्वान संपादकों को अपने पेशे के प्रति सच्चा माना जाना है तो उन्हें अधिक होमवर्क करने, सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पढ़ने और भारत को बेहतर ढंग से समझने की जरूरत है. यदि वे पीत पत्रकारिता में उत्कृष्टता हासिल करना चाहते हैं, तो यह उनका विशेषाधिकार है.
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एक नया जीवन
सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण की तरह, राम मंदिर ने भी देश की राजनीति में नई जान फूंक दी है. विशेष रूप से उल्लेखनीय बात यह है कि अयोध्या मुद्दे को एक हिंदू बहुसंख्यक देश में कई वर्षों तक मुकदमा चलाकर अदालत के आदेश के माध्यम से हल किया गया था, भले ही एक असंवेदनशील यूपीए सरकार राम के अस्तित्व को ही नकारने की हद तक चली गई थी. इतिहास इस बात का गवाह है कि अयोध्या मामले में कई उतार-चढ़ाव, संघर्ष, धोखे और असफलताओं का सामना करना पड़ा, बावजूद इसके कि हिंदुओं को अपने इष्ट देवता के मंदिर की तोड़फोड़ का शिकार होना पड़ा.
कांग्रेस सरकार, जब सत्ता में थी, सुप्रीम कोर्ट को यह बताने की हद तक चली गई कि राम का कभी अस्तित्व ही नहीं था और महर्षि वाल्मिकी की रामायण में वैज्ञानिक और ऐतिहासिक सत्य का अभाव है. और अब वही पार्टी दो विकल्पों के बीच फंसी हुई है – आयोजन का बहिष्कार करना व राम मंदिर के विरोधियों को उचित संदेश भेजना और बहुमत के उचित पक्ष में होने का पहला प्रस्तावक होने के लाभ का दावा करना. यह दो नाव पर पैर रखने जैसा है. अन्य दो महत्वपूर्ण पूजा स्थलों काशी और मथुरा पर इसका रुख देखना दिलचस्प होगा.
मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मस्थान मंदिर और वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर से सटे अवैध मस्जिदों से संबंधित मामलों की सुनवाई अदालतों में चल रही है. पूजा और श्रद्धा दोनों स्थानों पर उपलब्ध ऐतिहासिक और पुरातात्विक साक्ष्यों की मात्रा को ध्यान में रखते हुए, यह आश्चर्य की बात नहीं होगी यदि अदालतें हिंदुओं के दावों के पक्ष में फैसला करती हैं. हालांकि, उम्मीद की जा रही है कि अयोध्या के मामले के विपरीत, यहां अदालत के फैसले को स्वीकार करने की “उदारता” के लिए प्रतिस्पर्धी पक्षों को मस्जिद बनाने के लिए एक और जगह की पेशकश करने की ज़रूरत नहीं है.
वर्तमान इस्लामी संरचनाएं न तो कानूनी हैं और न ही वास्तुशिल्प चमत्कार हैं कि उन्हें संरक्षित करने और किसी दूसरे स्थान पर स्थानांतरित करने की आवश्यकता है. वे हिंदू मंदिरों के ऊपर जल्दबाजी में खड़ी की गई विचित्र संरचनाओं के रूप में दिखाई देते हैं, जो कि राजनीतिक या अन्यथा ताकत की कमी वाले बुरी तरह से असंगठित हिंदुओं के चेहरे पर एक तमाचा है. यदि हिंदुओं को ‘अयोध्या जैसा समाधान’ स्वीकार करना पड़ा तो यह न्याय का मखौल होगा.
अभी भी इनकार की मुद्रा में जी रहे राजनीतिक वर्ग और बुद्धिजीवियों को राम मंदिर की वास्तविकता से तालमेल बिठाने में कुछ समय लगेगा. मथुरा और काशी उनकी निराशा और गलत धारणा को और बढ़ा देंगे क्योंकि वे षड्यंत्र के सिद्धांतों को हवा देना और बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक खेल को जारी रखेंगे. कुछ एक को छोड़कर जो कि आर्थिक कारणों से राजनीतिक धनकुबेरों के हाथों कठपुतली बनना पसंद करते हैं, मुस्लिम समाज भी कायापलट के दौर से गुजर रहा है.
जहां तक सरकार का सवाल है, अब समय आ गया है कि वह अपना ध्यान घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र के अन्य जरूरी मामलों की ओर लगाए. मध्य पूर्व में हिंसा घरों तक पहुंचन सकती है और पश्चिमी क्षेत्र में हमारे दरवाजे पर दस्तक देने की धमकी दे रहे हैं. हमें तत्काल अपने पड़ोसियों तक पहुंचने, विश्वास-निर्माण उपायों को मजबूत करने और व्यापार और अन्य संबंधों में सुधार करने की आवश्यकता है. घरेलू स्तर पर, सद्भाव और संयम बनाए रखने की आवश्यकता है. यह संदेश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत दोनों द्वारा 22 जनवरी को अयोध्या में अपने भाषणों में दिया गया था.
(शेषाद्री चारी ‘ऑर्गनाइज़र’ के पूर्व संपादक हैं. उनका एक्स हैंडल @seshadrihari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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