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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतराम मंदिर कोविड वैक्सीन का इंतजार नहीं कर सकता, मोदी पहले हिन्दुत्ववादी नेता फिर भारत के प्रधानमंत्री

राम मंदिर कोविड वैक्सीन का इंतजार नहीं कर सकता, मोदी पहले हिन्दुत्ववादी नेता फिर भारत के प्रधानमंत्री

भाजपा के लिए अयोध्या मुद्दा सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है. और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 5 अगस्त को होने वाले भव्य समारोह से दूर रहने की संभावना नहीं है, भले ही कोविड हो या न हो.

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नरेंद्र मोदी पहले एक हिन्दुत्ववादी और खांटी नेता हैं, भारत के प्रधानमंत्री और राजनेता बाद में. जब एक दिन में कोरोनोवायरस संक्रमण के 50,000 मामले आ रहे हों तो कोई भी यही सोचेगा कि प्रधानमंत्री मोदी, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और सबसे बड़े कैडर वाला संगठन-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ- सभी में एक साथ मिलकर काम करने का भाव होगा. लेकिन नहीं, अयोध्या में एक राम मंदिर महामारी थमने का इंतजार नहीं कर सकता. वास्तव में इस समय तो मोदी को अपनी पसंदीदा अलंकारिक भाषा का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करने की जरूरत है–पाकिस्तान की आलोचना, अयोध्या और लुटियन दिल्ली में अपनी छाप छोड़ना आदि.

कोरोनावायरस संकट से निपटने के लिए प्रधानमंत्री और उनकी टीम भले ही जो कुछ कर रही हो, लेकिन यह सब उन्हें या उनकी पार्टी को मंदिर निर्माण के लिए भव्य आयोजन करने से नहीं रोकता. सरकार इन आलोचनाओं को दरकिनार करते हुए सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास परियोजना को भी तेजी से आगे बढ़ाने की इच्छुक है कि यह इसके लिए उपयुक्त समय नहीं हो सकता. बेशक, इस साल के अंत में बिहार विधानसभा का चुनाव प्रस्तावित है, जिसे भाजपा और उसका सहयोगी दल जनता दल (यूनाइटेड) हर हाल में कराना चाहते हैं. और फिर रविवार को अपने मासिक रेडियो शो ‘मन की बात’ में मोदी का दुष्ट और पीठ पर छुरा भोकने वाला कहकर पाकिस्तान पर तीखा हमला करना- और चीन पर नहीं, जो अभी ज्यादा बड़ा दुश्मन है.

यह सब मिलकर यही धारणा बना सकते हैं कि अब कोई महामारी नहीं रह गई है और हम वापस सामान्य स्थिति में आ गए हैं.


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पहले नेता, बाद में प्रधानमंत्री

मोदी, अपने विश्वस्त सहयोगी गृह मंत्री अमित शाह के साथ मिलकर एक ऐसा तंत्र चलाते हैं जिसमें किसी को राजनीति को सर्वोपरि रखे जाने पर कोई आपत्ति नहीं है. सत्ता ही सब कुछ है, और राजनीतिक बारीकियां इसे हासिल करने का साधन बन गई हैं. इसके आगे शासन और प्रशासनिक जिम्मेदारियों सहित बाकी सब कुछ गौण है.

यह कहना सही नहीं होगा कि मोदी सरकार महामारी को नियंत्रित करने के लिए काम नहीं कर रही. बेशक, यह भी दुनिया के हर नेता या सरकार के मुखिया की तरह काम कर रही है. पहले कुछ हफ्तों में कोरोनावायरस की स्थिति को लेकर बेहद सक्रियता थी और यह मोदी के अपने रुख में भी नजर आई–राष्ट्र के नाम उनका संबोधन, अपनी सरकार को पूरी तरह स्थिति से निपटने में जुटा दिखाना, और लोगों को लगातार अत्यधिक सतर्क रहने के लिए आगाह करना.

लेकिन जब खतरा लगातार बढ़ रहा है, ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने तय कर लिया है कि अब उसी राह पर लौटने का वक्त आ गया है जिसे वह सबसे अच्छी तरह जानते-समझते हैं—यानी राजनीति.


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मुख्य मुद्दे, सुरक्षित आधार

राम जन्मभूमि आंदोलन भाजपा की राजनीति और राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी के उत्थान का आधार रहा है. इसलिए, राम मंदिर निर्माण शुरू होना मोदी या उनकी जगह पर होने वाले किसी भी भाजपा नेता के लिए इस मायने में अवसर की तरह नहीं है, बल्कि इससे आगे कुछ किए बिना अधिकतम राजनीतिक लाभांश मिलने की राह खुलेगी. मोदी, वास्तव में खुद को ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश करना चाहते हैं जो भारत की सभी ऐतिहासिक ‘गलतियों’ को ‘सुधार’ रहा है और लंबे समय से लंबित मुद्दों को निपटा रहा है.

भाजपा के लिए अयोध्या बाकी सभी मुद्दों में सबसे ज्यादा अहम है और नरेंद्र मोदी–56 इंच के सीने वाले ‘सशक्त’ हिदुत्ववादी नेता–5 अगस्त को होने वाले भव्य समारोह से दूर रहने वाले नहीं हैं, भले ही कोविड हो या न हो.

इसके बाद बारी आती है लुटियन दिल्ली के खिलाफ व्यापक स्तर पर रहने वाली नाराजगी की, और सत्ता में होने के नाते, मोदी यह सुनिश्चित करेंगे कि वह राजधानी पर अपनी खुद की छाप छोड़ें. इसीलिए सेंट्रल विस्टा मेकओवर प्रोजेक्ट उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता है.

राम मंदिर और दिल्ली में 20,000 करोड़ रुपये के पुनर्विकास की योजना दोनों ही धमाकेदार और भव्य आयोजन है जो मोदी के बेहद पसंदीदा हैं.

चुनाव उनके लिए जोश भर देने वाला एक और कार्यक्रम है, और यही वजह है कि विपक्ष के मुखर विरोध के बावजूद बिहार में विधानसभा चुनाव समय पर कराने पर जोर दिया गया. नरेंद्र मोदी प्रचार कर सकते हैं, उन्हें सुना जा सकता है और मजबूत पकड़ बनाने की उनकी क्षमता का उपयोग किया जा सकता है. साथ ही यह राज्य में इस समय विपक्ष के बिखराव को देखते हुए एकतरफा नजर आ रहे चुनाव में बिना किसी देरी भाजपा की सत्ता में वापसी भी सुनिश्चित करेगा.

वहीं, पाकिस्तान को कोसना भी भाजपा का एक पसंदीदा शगल है और मोदी को इससे ज्यादा सहज कुछ नहीं लगता. ऐसे में जब चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएएसी) पर घेरेबंदी कर कर रहा है, तब भी पाकिस्तान को सबसे बड़ा दुश्मन बनाते का यही आशय समझ आता है क्योंकि यह मोदी के बहुसंख्यक और अति-राष्ट्रवादी मतदाताओं को प्रभावित करता है.


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बमुश्किल पहली बार

हालांकि, कोविड संकट ऐसा पहला मौका नहीं है जब मोदी का खांटी, चुनाव जीतने वाला नेता होना बाकी सब बातों पर हावी हो गया. देश के प्रधानमंत्री से निश्चित तौर पर कुछ शिष्टाचार निभाने की अपेक्षा की जाती है. लेकिन यदि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म छोड़ दें—जो 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद से एक तरह से अपेक्षाकृत संतुलित रहे हैं—तो अन्य सभी मंच पर किसी न किसी कारण से मोदी द्वारा संभाले जा रहे सम्मानित पद ने हर बार अपनी गरिमा खोई है.

अन्यथा कोई भी प्रधानमंत्री किसी कटु चुनाव अभियान के दौरान एकदम तथ्यहीन दावों को लेकर अपने पूर्ववर्ती का नाम घसीटने की हद तक क्यों जाएगा? 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान मोदी ने पाकिस्तानी अधिकारियों, मनमोहन सिंह और कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर के बीच एक ‘गुप्त बैठक’ होने का शिगूफा छोड़ा था.

2017 में उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान मोदी की श्मशान-कब्रिस्तान वाली टिप्पणी या एनआरसी-सीएए-एनपीआर पर उनके सामान्य तौर पर दिए गए बयान कुछ यही संदेश देते हैं—वह कुछ और होने से पहले एक अवसरवादी राजनेता हैं.

तो, मोदी को महान और चुनावी राजनीति वाले नेता बनने से रोकने में इस छोटे से वायरस की क्या बिसात है? इस समय कोरोनावायरस सबसे बड़ा खतरा हो सकता है लेकिन यह मोदी की सबसे शक्तिशाली राजनेता बनने की इच्छा से बड़ा नहीं हो सकता.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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