स्वतंत्र भारत में सांप्रदायिक दंगों की मीडिया कवरेज को लेकर बहुत कुछ बदल चुका है. उनके वर्णन की भाषा, पुलिस की भूमिका, अफवाहें, टेलीविज़न कैमरों की मौजूदगी और सोशल मीडिया का प्रसार. इस बदलाव को इस सप्ताह पूर्वोत्तर दिल्ली में हुए दंगों के संदर्भ में साफ देखा जा सकता था, जिसमें कि 40 से अधिक लोगों की मौत हुई है.
भाजपा नेताओं के नफ़रत वाले भाषण, मस्जिदों को जलाया जाना तथा हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के ही घरों और दुकानों में आगजनी. इन सबके कारण दिल्ली के अशोक नगर के उदाहरण से ये आकलन किया जा सकता है कि भारत में निष्पक्ष रिपोर्टिंग और जिम्मेदार पुलिस व्यवस्था का स्तर किस हद तक गिर चुका है. इस दौरान गहरे बैठे पूर्वाग्रह के साथ ही अंदर भरा भय भी उजागर हुआ है.
अधिक दिन नहीं बीते हैं जब सांप्रदायिक सौहार्द के हित में दंगों में शामिल समुदायों के नाम नहीं दिए जाते थे. इंदिरा गांधी के आपातकाल के दौरान युवा रिपोर्टर रहीं कूमी कपूर इंडियन एक्सप्रेस के संपादकों अजीत भट्टाचार्जी और अरुण शौरी के बीच की बातचीत को याद करती हैं कि सांप्रदायिक दंगों की रिपोर्टिंग में धर्म का ज़िक्र किया जाए या आगे भी बहुसंख्यक और अल्पसंख्य समुदाय ही लिखा जाए. नए ज़माने के पत्रकार शौरी का मानना था कि पाठकों को अपना अनुमान लगाने के लिए विवश नहीं करना चाहिए.
राजदीप सरदेसाई ने 1992-93 के बंबई दंगों को कवर किया था. उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों की भी व्यापक रिपोर्टिंग की थी और इस हफ्ते वे दिल्ली की तबाह गलियों में भी उतरे. उन्हें भी कूमी कपूर के समान एक वाक़या याद है -बंबई के दंगों के दौरान समुदायों के नाम छापने की दुविधा टाइम्स ऑफ इंडिया के दफ़्तर में भी थी. टीवी और सोशल मीडिया के इस दौर में जबकि कथानक के ऊपर दृश्यों और छवियों का वर्चस्व है, पहचान को छुपाना असंभव-सा हो गया है.
सरदेसाई कहते हैं, ‘मैंने आज जिस फल वाले का इंटरव्यू किया वह दाढ़ी और इस्लामी टोपी के कारण साफ मुसलमान दिख रहा था. इसी तरह दंगों में अपना रेस्तरां गंवाने वाला कमल शर्मा स्पष्टतया हिंदू दिख रहा था.’ मुंबई (तब बंबई) में पत्रकार मोहल्ला-दर-मोहल्ला जाकर रिपोर्टिंग करते थे, अधिक से अधिक संख्या में प्रभावित लोगों से बात करते थे, समझने की कोशिश करते थे कि गड़बड़ी आखिर क्या रही होगी.
दंगों के समय के बदले संदर्भ
सरदेसाई के अनुसार खबरों की कई परतें होती हैं. ‘मुझे 1992-93 में जानबूझ कर किए जाने वाले कई हमलों की जानकारियां मिली थीं, जिनके पीछे ज़मीन हड़पने का इरादा था.’ पत्रकार एमजे अकबर अपनी किताब रायट आफ्टर रायट में 1979 के जमशेदपुर दंगे से संबंधित अध्याय में लिखते हैं: ‘दंगों के इतिहास में साफ दिखता है कि मकान मालिक और व्यापारी सांप्रदायिक आग का इस्तेमाल वो सब हासिल करने में करते हैं जिन्हें की वैध रूप से हासिल नहीं किया जा सकता है. वास्तव में ये एक बड़ा कारण है कि व्यवसायी वर्ग सांप्रदायिक तत्वों का पोषण करता है.’
समुदायों की पहचान नहीं छुपाना ही दंगों की कवरेज में आया एकमात्र परिवर्तन नहीं है. शहरों की स्थानीय रिपोर्टिंग के लिए कभी अहम माने जाने वाला पुलिस-मीडिया संबंध पूरी तरह बिखर चुका है. क्राइम रिपोर्टरों और शहर के पुलिस अधिकारियों के बीच हमेशा से ही अच्छे संबंध रहे हैं और इसका अपवाद सिर्फ आपातकाल था जब सरकार की संपूर्ण मशीनरी मीडिया के खिलाफ हो गई थी.
दिल्ली में 1974 के सदर बाज़ार के दंगों को कवर करने वाले पत्रकार अजय बोस याद करते हैं कि कैसे युवा पुलिस अधिकारी निखिल कुमार ने (जो बाद में पुलिस आयुक्त बने) उन्हें हिंदू-मुस्लिम दंगे में बचाया था. बोस और कुमार के अभी भी परस्पर अच्छे संबंध हैं. लेकिन आज, पुलिस बल भी अपनी जिम्मेदारियों से पूरी तरह मुंह मोड़ लेने वाले संस्थानों में शामिल है. बोस सबसे पहले 1984 के दंगों में इस स्थिति के गवाह बने थे, जब सिखों के घरों, दुकानों और मोहल्लों पर हमले हो रहे थे और दिल्ली पुलिस मूकदर्शक बनी हुई थी.
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1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस करने वाली उन्मादी भीड़ के यौन दुर्व्यवहार को झेलने को विवश रहीं पत्रकार रुचिरा गुप्ता बताती हैं कि तब पुलिसकर्मी हमलावर भीड़ का हिस्सा नहीं थे या उनको संरक्षण नहीं दे रहे थे. उस दौर में बिज़नेस इंडिया के लिए काम करने वाली गुप्ता कहती हैं, ‘तब सिर्फ एक ही टीवी चैनल था दूरदर्शन का, जिसने हिंसा के वीभत्स दृश्यों को नहीं दिखाया था. कर्फ्यू शीघ्रता से लगा दिया गया था और सीआपीएफ एवं राज्य पुलिस को यथासंभव शीघ्रता से तैनात कर दिया गया था.’
बोस के अनुसार उनके द्वारा पहली बार कवर किए गए सदर बाज़ार के दंगों और बाद के दंगों की प्रकृति में उन्हें खास अंतर नहीं दिखा. वह कहते हैं, ‘आमतौर पर ये मुसलमानों और पुलिस की तनातनी होती थी. अक्सर मुसलमानों का एक वर्ग बुरी तरह भड़क चुका होता था और पुलिस संयम दिखाते हुए मुसलमानों का अपना गुस्सा निकालने देती थी. आमतौर पर तनाव की वजह कोई छोटी सी घटना होती थी, जिसमें इमाम के भड़काऊ भाषण का योगदान होता था. बाद में मैंने दिल्ली से दूर 1979 के जमशेदपुर और 1987 के हाशिमपुरा दंगों को कवर किया. उत्तर प्रदेश में हिंदू स्थानीय सशस्त्र पुलिस पीएसी का सहारा लेते थे जो कि पूरी तरह सांप्रदायिक रंग में रंग चुकी थी. लेकिन फिर सेना को तैनात किया जाता, सेना फ्लैग मार्च करती और स्थिति नियंत्रित हो जाती थी.’
खौफ़नाक यादों से लेकर तत्काल रिपोर्टिंग तक
हालांकि, 1984 में सबकुछ बदल गया, जो कि पत्रकार तवलीन सिंह की नज़र में महज दंगे नहीं थे. वह कहती हैं, ‘ये जनसंहार था. सिखों के कत्लेआम को सही ठहराने के बावजूद राजीव गांधी मीडिया के प्रिय बने हुए थे. हाशिमपुरा में पीएसी वालों ने 42 मुसलमानों को गोलियों से भून दिया और हम नाज़ी शैली के इस जनसंहार की नाम मात्र की ही रिपोर्टिंग कर पाए थे.’ सिंह पत्रकारों द्वारा पक्षपात का भी ज़िक्र करती हैं. उनके अनुसार 2002 की गुजरात की हिंसा को इस तरह पेश किया गया था मानो 1947 के बाद देश में पहला बड़ा सांप्रदायिक दंगा हुआ हो. जब 1989-90 में कश्मीरी पंडितों का जातीय सफाया हो रहा था उसकी रिपोर्टिंग नहीं के बराबर की जा रही थी. अभी की बात करें तो सीएए लाए जाने से पहले गृहमंत्री अमित शाह के नफरत वाले भाषणों को लगभग पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया गया था. इसी तरह स्थिति इतना बिगड़ने में 2015 के बाद भीड़ के हाथों मुसलमानों की हत्या की विभिन्न घटनाओं का योगदान है.
टीवी के इस युग में छवियां प्रबल और हिला देने वाली स्मृतियां गढ़ती हैं. लाशों के ढेर, घरों और संपत्तियों में लगी आग, तबाह कर दिए गए धार्मिक स्थल आदि. पहले जो बातें मुख्य संवाददाताओं और वरिष्ठ संपादकों की छानबीन के बाद अगले दिन पाठकों तक पहुंचती थीं, उनका अब सजीव प्रसारण हो रहा है. 1992-93 में सामना में बाल ठाकरे के नफ़रत भरे संपादकीय आमतौर पर लोगों तक नहीं पहुंच पाते थे, पर अब 2020 में दिल्ली पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी के सामने नफ़रत उगलते भाजपा नेता कपिल मिश्रा के संदर्भ में ये बात नहीं कही जा सकती.
एक और खतरनाक बात जो उन दिनों नहीं थी, वो है खबरों का संक्षिप्त जीवन. आज नफरत फैलाने वाले एक भाषण की जगह जल्दी ही इसी तरह के किसी दूसरे भाषण या हिंसा को दे दी जाती है. रिपोर्टों में ऐतिहासिक संदर्भों का भी अभाव रहता है. उदाहरण के लिए, 1980 के दशक में अहमदाबाद का सांप्रदायिक दंगों का इतिहास रहा था. इसी तरह 1970 और 1980 के दशकों में मुंबई में कई दंगे हुए थे.
लेकिन संदर्भ और जटिलता जैसी बातें आज तात्कालिकता के कोलाहल में दब जाती हैं. इन दिनों लंदन मे कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार संजय सूरी कहते हैं कि दंगे शुरू होने पर लोग किसी भी पक्ष की बात पर सहज विश्वास नहीं कर पाते और पुलिस का तो वे बिल्कुल ही यकीन नहीं करते हैं. वे संकेतों के मायने निकालते हैं. हाशिमपुरा जनसंहार के एक दिन बाद राहुल पाठक के साथ मलियाना दंगों को कवर करने गए सूरी को पास के एक नहर को लेकर भयावह अनुभूति हुई थी: ‘सहजबोध से प्रेरित होकर हम उधर गए और मुझे एक तैरती लाश दिखी, फिर एक और लाश, फिर कई और लाशें.
उसके बाद हमें नहर के स्लुइस गेट में कई शव, मुसलमानों के शव, फंसे दिखे. एक पुलिस टीम हमारे पीछे-पीछे आ गई, और ये उन परिस्थितियों में बहुत खतरनाक बात थी. एक रिपोर्टर किसी का पक्ष लेने के लिए नहीं, बल्कि उस घटना का गवाह बनने के लिए निशाना बन सकता है जिसे कि छुपाने की कोशिश की जा रही हो. आपको देखे जाते बगैर देखने की ज़रूरत होती है.’
सूरी ने ये भी बताया कि कैसे 1984 के दंगों के दौरान उन पर ‘हत्यारों ने हमला’ किया था, ‘इसलिए नहीं कि मैं सिख जैसा दिखता था, बल्कि इसलिए कि हमलावरों ने मुझे पीड़ितों और संभावित निशाना रहे लोगों से बातचीत करते देख लिया था.’ वह कहते हैं, ‘एक बार आपने यदि कुछ देख लिया, तो आपको इसकी तथ्यात्मक रिपोर्टिंग करनी चाहिए. ऐसी रिपोर्ट बेमानी है जिसमें एक के कुछ और दूसरे के कुछ कहने का ज़िक्र हो. ये काम डेस्क पर भी हो सकता है और सरल सहज रिपोर्टिंग करना बेहतर है बजाय इसके कि अफवाहों को मौका दिया जाए.’
अफवाहों का नया रूप
अफवाह कानून व्यवस्था के सबसे बुरे दुश्मन होते हैं और देश के बंटवारे के समय से ही रहे भी हैं जब पानी में ज़हर घोले जाने और पंजाब से लाशें आने की बातें की जाती थीं. व्हाट्सएप जैसे मेसेजिंग प्लेटफॉर्म झूठ के सहारे फलते-फूलते हैं और नफ़रत एवं संदेह पैदा करने में इनकी बड़ी भूमिका होती है. इसका एक उदाहरण है उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर जिले में 2013 में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच टकराव, जिसका कारण था यौन दुर्व्यवहार का एक संदिग्ध मामला.
समाजविज्ञानी सुरिन्दर एस. जोधका के अनुसार पहले जिसे अफवाह कहा जाता था वही 21वीं सदी में आज ‘फ़ेक न्यूज़’ है. उनके अनुसार, ‘फ़ेक न्यूज़ आज इतना आम हो चुका है कि किसी बात पर यकीन करना आसान नहीं रह गया है. मुझे लगता है मीडिया की रिपोर्टें आज कहीं अधिक ध्रुवीकृत हैं. प्राइवेट न्यूज़ चैनलों की भरमार के कारण रिपोर्टें आज ‘तथ्यों’ को पेश करने से अधिक दर्शकों के वैचारिक पूर्वाग्रह को पोषित करने का काम कर रही हैं. हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हमारे पास खबरों के कुछेक अत्यंत विश्वसनीय और पेशेवर संस्थान भी मौजूद हैं और उनका विस्तार भी हो रहा है.’
स्मार्टफोन जहां नफ़रत को बिजली की गति से फैलाने का साधन है. वहीं यह रिपोर्टर को घटनास्थल के करीब लाने का काम भी करता है. यह उनके लिए और आम नागरिकों के लिए भी, नफरत भरे भाषणों को रिकॉर्ड करना संभव करता है, हालांकि, पेशेवर रिपोर्टर पहले भी ऐसा किया करते थे. राजदीप सरदेसाई ने बताया कि कैसे उन्होंने शिवसेना के प्रमोद नवलकर को ये कहते हुए रिकॉर्ड किया था, ‘हां, हिंदुओं की रक्षा करने के लिए हमारे सैनिक मुंबई की हिंसा में शामिल थे.’ लेकिन उनके अनुसार तब तक लाइव टीवी का दौर नहीं आया था जिसने कि आगे चलकर गुजरात दंगे को एक रियलिटी टीवी शो का रूप दे दिया.
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सोशल मीडिया भी रिपोर्टरों को पक्ष लेने पर विवश करता है, भले ही ये तथ्यों पर आधारित हो या नहीं. सरदेसाई के अनुसार सोशल मीडिया पर सक्रिय लोग पत्रकारों पर अपना पक्ष जाहिर करने का भारी दबाव डालते हैं. इस बारे में रुचिरा गुप्ता कहती हैं, ‘हमारे पास आज जैसी तकनीकें नहीं थीं, पर हम हमेशा घटनास्थल पर जाते थे तथा प्रभावित समुदाय के लोगों, संबंधित अधिकारियों और वहां पर मौजूद आम लोगों से बात करते थे. हम बयान देने वालों पर निर्भर नहीं करते थे, न ही सिर्फ बहसें कराने का काम करते थे.’
दंगों की बनावट बदल चुकी है. जोधका के अनुसार, दंगों की बारंबारता भी बहुत कम हो गई है. लेकिन अब जब भी दंगे होते हैं तो वे कहीं अधिक नज़र आते हैं. हिंदू दक्षिणपंथियों के उभार के बावजूद सांप्रदायिक हिंसा की वैधता कम हुई है. इसकी एक वजह ये हो सकती है कि बंटवारे के दौरान वाली पीढ़ी अब हमारे बीच नहीं है. भारतीय मुसलमान अब खुद को भारतीय के अलावा और किसी रूप में नहीं देखते हैं. और उन्हें अपने ही देश में स्वघोषित राष्ट्रवादियों के समक्ष बारंबार इस बात का सबूत देना पसंद नहीं है.
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(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह उनके निजी विचार है)
Danga t logo me hi karaya apni trp ke liy shame on u…