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Wednesday, 20 November, 2024
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महाराष्ट्र की राजनीतिः बेगानी शादी में राज ठाकरे दीवाना

शरद पवार की कोशिश से सेकुलर गठबंधन ने राज ठाकरे को सीट भले ही न दी हो उन्हें भाषण के लिए मौका देने का फैसला किया है.

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महाराष्ट्र में चुनाव का सुहाना मौसम चल रहा है मगर इन दिनों यह गाना बहुत हिट हो रहा है- बेगानी शादी में राज ठाकरे दीवाना. वजह है कि वह चुनाव के इस मौसम में खुद को भाषण करने की आदत से रोक नहीं पा रहे. स्वाभाविक है राज ठाकरे ठहरे उद्भट वक्ता. सारा महाराष्ट्र उनके भाषण के कला की दाद देता है. यह तो गनीमत है कि वह केवल मराठी में भाषण देते हैं अगर हिन्दी में भाषण देते होते तो सारे भारत को उनके भाषण की दाद देनी पड़ती. मगर दिलजले लोग उनकी वक्तृत्व कला की तारीफ करना तो दूर उन पर व्यंग की तलवार चला रहे हैं और कह रहे हैं राज ठाकरे मान न मान मैं तेरा मेहमान बन गए हैं.

आखिरकार मुझे एक नेता से पूछना ही पड़ा कि आप लोग क्यों राज ठाकरे की खिंचाई करते हैं. क्या ठाकरे कुलदीपक का इस तरह मजाक उड़ाना शोभा देता है. नेताजी ने कहा– और क्या करें, ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ रही. लोकसभा के पिछला चुनाव हार गई, एक भी सीट नहीं मिली. विधानसभा चुनाव में यही स्कोर रहा, निगम में कुछ लोग गलती से जीत गए थे उन्हें शिवसैनिक बरगला कर ले गए. अब राज ठाकरे अपने चुनाव चिन्ह इंजन की तरह निपट अकेले हो गए हैं, जिसके पीछे कोई डिब्बा नहीं है. अब उनकी पार्टी मनसे को खड़े करने के लिए उम्मीदवार भी नहीं मिल रहे. कोई अपनी जमानत जब्त कराने के लिए थोड़े ही चुनाव लड़ता है. कितनी बार राज ठाकरे से बोला नवनिर्माण करने से पॉलिटिक्स नहीं होती, थोड़ा धन निर्माण करो. विजयलक्ष्मी उसी वीर का वरण करती है जिसके पास धनलक्ष्मी होती है.


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नेताजी कहने लगे यहां तक भी ठीक था मगर करेला और नीम चढ़ा वाली बात यह है कि चुनाव उनकी पार्टी लड़ नहीं रही मगर राज की भाषण देने की आदत जाती नहीं. कहते हैं न, बैठा बनिया क्या करे तराजू बांट तौले. चुनाव नहीं लड़ सकते तो क्या, भाषण तो दे ही सकते हैं. रोजाना भाषण देते हैं तो नींद आ जाती है. खाना भी हजम हो जाता है. मगर भाषण भी कोई मुफ्त नहीं देने देता उसकी भी कीमत चुकानी पड़ती है. राज ठाकरे को भी चुकानी पड़ी है और बहुत भारी चुकानी पड़ी है. क्या क्या नहीं बनना पड़ा इस भाषण के खातिर.

किसी जमाने में ठाकरे शिवसैनिक थे अब उन्हें शरद सैनिक बनना पड़ गया है. इसकी भी एक कहानी है. एक जमाना ऐसा था जब राज ठाकरे शिवसैनिकों के दिलों पर राज करते थे और शिवसेना पर राज करने के मुंगेरीलाल के हसीन सपने देखते थे. मगर यह सपने चकनाचूर हो गए. इस देश की राजनीति को वंशवाद के दीमक ने इस कदर खा लिया है कि शेर अपना सिंहासन राज जैसे दूसरे शेर को नहीं अपने वंश के चश्मे चिराग को ही देता है. यही राज ठाकरे की दारुण ट्रैजडी थी. जब वह शिवसेना की राजनीति में आए थे तब आम शिवसैनिक को लगता था कि भविष्य के लिए दूसरा ठाकरे मां भवानी ने भेज दिया है.

चेहरे मोहरे से राज ठाकरे 30 साल पुराने बाल ठाकरे की कार्बन कॉपी ही लगते थे. वे कुछ बाल ठाकरे जैसे थे कुछ उन्होंने बनने की कोशिश भी की. वे उनकी तरह जोशीले और व्यंगबाणों की बौछार करने वाले उद्भट वक्ता भी बने, वैसी ही धारदार राजनीति भी करने लगे. बाल ठाकरे की तरह कार्टूनिस्ट भी बन गए. मगर इस सच्चाई को भूल गए कि कभी कार्टूनिस्ट कार्टून बन जाता है. राज ने बाल ठाकरे से सब कुछ सीखा मगर राजनीति की होशियारी नहीं सीख पाए. वह सीखी बाल ठाकरे के बेटे उद्धव ने. जिस उद्धव ने मोदी और अमित शाह को भी छठी का दूध याद दिला दिया हो वह राज पर भारी पड़ गए हों तो अचरज की बात नहीं.

जो राज कभी शिवसैनिकों के हीरो थे वे आज जीरो हैं. कुछ लोग कहते हैं कि राज पर यह गाना लागू होता है कि हीरो से जोकर बन जाना पड़ता है. आज वह उसी दौर से गुजर रहे हैं. शिवसैनिक और राजनीतिक पर्यवेक्षक यही मानते रहे कि बाल ठाकरे के बाद आखिरकार बाजी राज के हाथ रहेगी. मगर राज को शिवसेना छोड़नी पड़ी और उन्होंने मनसे बनाई. शिवसेना का भगवा छोड़कर उन्होंने चितकबरा झंडा अपनाया. हिन्दुत्व छोड़कर सेकुलरिज्म अपनाया. 40 साल पुरानी शिवसेना की तर्ज पर चलते हुए केवल मराठी माणूस की अस्मिता का मुद्दा उग्रता से उठाया. बिहारियों और उत्तर भारतीयों के खिलाफ जबर्दस्त अभियान छेड़ा मगर मराठी माणूस को यह हिन्दुत्व रहित शिवसेना रास नहीं आई.


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जब चुनावी राजनीति में राज कोई कमाल न दिखा सके तो इस लोकसभा चुनाव में राज की हालत बहुत दयनीय हो गई. उद्धव की शिवसेना रहते केसरिया गछबंधन का राज के साथ गठबंधन करने का सवाल ही नहीं उठता था. दूसरी तरफ बिहारी और उत्तर भारतीय वोटरों के छिटकने के डर से कांग्रेस राज से गठबंधन को तैयार नहीं थी. एकमात्र दीनबंधु शरद पवार ही थे जिन्होंने राज ठाकरे का साथ दिया वे राज ठाकरे की पार्टी के साथ गठबंधन को तैयार थे, मगर सेकुलर गठबंधन में कांग्रेस तैयार नहीं थी. इससे राज ठाकरे की हालत न घर की, न घाट का वाली हो गई. मगर सेकुलर गठबंधन उदार लोगों का गठबंधन है उन्होंने राज ठाकरे को सीट भले ही न दी हो उनकी इच्छा को पूरा करते हुए उन्हें भाषण का अवसर देने का फैसला किया.

आखिर राज ठाकरे उद्भट वक्ता हैं, जिनकी सभाओं में भारी भीड़ जुटती है, खूब तालियां बजती हैं. उनको भाषण देने का मौका तो मिलना ही चाहिए. सेकुलर गठबंधन ने यह मौका दिया. इससे शरद पवार के प्रति कृतज्ञ होकर राज ठाकरे शरद सैनिक बन गए.

आप के मन में सवाल उठ सकता है कि राज चुनाव के इस मौके पर भाषण क्यों देना चाहते हैं. इस बारे में उनका कहना यह है कि वे मोदी मुक्त भारत का निर्माण करना चाहते हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने मोदीयुक्त भारत के लिए काम किया था. मगर वे कहते हैं कि मोदी ने बाल से ही उनका गला काट दिया. इसलिए इस लोकसभा चुनाव में वे मोदीमुक्त भारत के लिए काम कर रहे हैं. वे न खुद चुनाव लड़ सकते हैं न उम्मीदवारों को लड़ा सकते हैं मगर भाषण तो दे सकते हैं. मोदी मुक्त भारत वे इसलिए करना चाहते हैं, क्योंकि मोदी समर्थकों और मतदाताओं ने पहले ही राज ठाकरे मुक्त महाराष्ट्र का निर्माण कर दिया. आज न लोकसभा में राज का कोई सांसद है और न विधानसभा में विधायक. नगर निगम में कुछ पार्षद थे जो शिवसेना के हाथों बिक गए. राज इसका बदला लेना चाहते हैं.

राज ठाकरे मोदी मुक्त भारत के महान लक्ष्य के लिए भाषण दे रहे हैं, यह भी कुछ लोगों को रास नहीं आ रहा. सेकुलर गठबंधन के एक नेता ने कहा – उनके भाषणों का हम क्या करें. इनसे हमारा ही नुकसान होगा. यह सही है कि वह बहुत जबर्दस्त वक्ता हैं उनके व्यंग बहुत धारदार होते हैं. मगर अब तक क्या हुआ उनके भाषण के लिए भारी भीड़ जुटती थी, खूब तालिया बजाती थी, मगर वोट दूसरी पार्टी को देकर आती थी. इसलिए राज के पास अपने चुनाव चिन्ह की तरह केवल इंजन बचा है, जिसका कोई डिब्बा नहीं हैं. ऐसे मनहूस नेता का भाषण हम क्यों कराएं. कुछ लोग उन्हें पॉलिटिकल इंटरटेनर कहने लगे. कोई स्टैंड अप कॉमेडियन.


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चुनाव के इस मौसम में चुनाव आयोग अलग विघ्न संतोषी की भूमिका निभा रहा है. उसने सवाल उठा दिया है कि राज ठाकरे की सभाओं का खर्च किसके खाते में डालें. इतनी सारी ताकतें राज ठाकरे के पीछे हाथ धोकर पड़ी हैं. मगर राज ठाकरे हैं कि हिम्मत नहीं हारते वे सिर्फ गली ब्वॉय फिल्म के हीरो की तरह इंतजार कर रहे हैं– अपना टाइम आएगा. अपना टाइम आएगा.

(लेखक दैनिक जनसत्ता मुंबई में समाचार संपादक और दिल्ली जनसत्ता में डिप्टी ब्यूरो चीफ रह चुके हैं। पुस्तक आईएसआईएस और इस्लाम में सिविल वॉर के लेखक भी हैं )

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