एक कर्मकांडी हिंदू तथा उच्च कोटि के ब्राह्मण का बाना धारण करके राहुल गांधी ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को तो हैरान कर दिया है मगर अपने संभावित समर्थकों को नाराज भी कर दिया है. उन्हें दोनों समूहों से झिड़की ही मिल रही है. यहां हमारा मत यह है कि राहुल ने इस मोड़ पर एक भारी दुस्साहसिक और स्मार्ट कदम उठाया है.
भाजपा इससे इतनी परेशान हो गई कि पहले तो उसने जनेऊधारी ब्राह्मण होने के उनके दावे के प्रमाण के तौर पर उन्हें अपना गोत्र बताने को कह डाला. और जब गोत्र बता दिया गया तो वह और भी परेशान हो गई. अब उसने अपने विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री को उन ‘तकनीकी’ बारीकियों का खुलासा करने के लिए आगे कर दिया कि ब्राह्मणों में गोत्र किस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता है.
अब जरा देखिए कि भारत में धर्मनिरपेक्षता की राजनीति की अलमबरदार होने का दावा करने वाली कांग्रेस पार्टी के आला नेता ने कैसी धृष्टता कर दी है. अभी कुछ दिन पहले तक बहस यह चल रही थी की राहुल हिंदू हैं भी या नहीं, या कि कहीं वे एक छुपे हुए ईसाई तो नहीं हैं. उसके बाद यह पूछा जाने लगा कि वे ब्राह्मण हैं या नहीं?
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अब सवाल यह उठ रहा है कि क्या वे दत्तात्रेय गोत्र के कश्मीरी कौल ब्राह्मण होने का दावा कर सकते हैं? अब चूंकि धर्म, जाति और गोत्र को ही राष्ट्रीय राजनीति का केंद्रीय मुद्दा बना दिया गया है, तो हमने यहां तक प्रगति कर ली है. मूल्यों की इतनी सीढ़ियां हम चढ़ चुके हैं. और यह निश्चित ही राहुल और उनकी पार्टी की उपलब्धि है.
हमें अभी यह मालूम नहीं है कि राहुल ने यह सब किसी योजना के तहत किया, या गुजरात के चुनाव के दौरान वे यूं ही कुछ मंदिरों में चले गए थे, और फिर इसके जो अप्रत्याशित परिणाम निकलने थे वे निकले. अगर आप राहुल/कांग्रेस समर्थक हैं तो आप उनके इस कदम के लिए मोदी-शाह समर्थकों का कॉपीराइट माने गए जुमले ‘राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक’ का प्रयोग कर सकते हैं. अगर आप भाजपा के हैं, तो आप यह कह सकते हैं कि राहुल ने लापरवाही से एक खतरनाक क्षेत्र में कदम रख दिया है. उन्हें हिंदू वोट तो नहीं ही मिलेंगे, वे सेकुलर और खासकर मुस्लिम वोट भी गंवा देंगे. यानी दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम.
मैं इसे दूसरी तरह प्रस्तुत करना चाहूंगा. मगर यह बाद में!
राहुल ने वाम-सेकुलर-उदारवादी विमर्श से अचानक किनारा कर लिया है. वह खेमा मानता है कि यह उन सब बातों को धोखा देना है जिसके लिए कांग्रेस लड़ती रही है. यह उसकी विचारधारा को बुनियादी तौर पर बदलना और भारत की समन्वयवादी परंपरा को हमेशा के लिए अलविदा कहना है. ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में एक ताजा, सुचितिंत लेख में सुहास पलसीकर ने सवाल उठाया है कि अगर राहुल सचमुच यह जताना चाहते हैं कि वे एक आस्थावादी हैं, तो क्या उन्हें सभी धर्मों के पूजास्थलों में नहीं जाना चाहिए था, जैसा कि उनकी दादी इंदिरा गांधी ने किया होता?
महात्मा गांधी और नेहरू के जीवनीकार रामचंद्र गुहा ने इस मत का समर्थन करते हुए लिखा- ‘राहुल गांधी का नैतिकता-निरपेक्ष मंदिर-भ्रमण उस पार्टी की सर्वश्रेष्ठ परंपराओं के साथ धोखा है जिस पार्टी के प्रतिनिधित्व का वे दावा करते हैं. गांधी और नेहरू, दोनों ही बहुसंख्यकवाद के प्रति इस बेशर्म लल्लो-चप्पो पर स्तंभित हो गए होते.’ प्रगतिशील पत्रकार दिलीप मण्डल ने ‘दिप्रिंट’ में लिखा है कि ब्राह्मणों को अपनी जाति की वजह से 30 तरह के विशेषाधिकार हासिल हैं, जिन्होंने राहुल को आकर्षित किया. जब आप वाम विचारकों की ओर बढ़ते हैं तो आलोचना और तीखी होती दिखती है. मैं इन सबसे थोड़ी बहस करना चाहता हूं.
राहुल पर मुख्य आरोप यह है कि वे पाखंड कर रहे हैं. तो पूछा जा सकता है कि पाखंड को राजनीति में बुरा या बोझ कब माना गया? बल्कि इसे तो उसका जरूरी औज़ार माना गया. एक भी ऐसा राजनीतिक नेता दिखा दीजिए जो पाखंडी न हो, तब मैं आपको दिखा दूंगा कि विफल नेता कौन रहा. भारतीय राजनीति को समझने की अपनी कोशिशों के शुरुआती दिनों में मैंने एक बार हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे ओमप्रकाश चौटाला से पूछा था कि उनकी और उनके परिवार की जो जीवनशैली है उसे देखते हुए गरीब किसानों के लिए उनकी चिंताएं क्या पाखंड नहीं है? उनका जवाब था, ‘भाई साहब, हम राजनीति करने आए हैं या तीर्थयात्रा पे?’
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यह गहरी धार्मिक आस्थाओं वाला देश है. ‘पिउ’ और ‘गैलप’ समेत सभी बड़े सर्वेक्षणों में 99 प्रतिशत भारतीय यही दर्ज़ कराते हैं कि वे आस्तिक हैं. यानी नास्तिकों कि संख्या ‘नोटा’ वाले वोटरों की संख्या का भी एक छोटा अंश ही है. यहां ईश्वर के खिलाफ कोई वोट नहीं देता. नेहरू अपना नास्तिकवाद इसलिए चला ले गए क्योंकि तब आज़ादी के आंदोलन का असर बाकी था और नेहरू तो आखिर नेहरू ही थे. उनकी बेटी ने इस गलती को सुधारने में कोई देरी नहीं की. उन्होंने मंदिरों, साधुओं, पूजा, और अपनी रुद्राक्ष माला से कभी परहेज नहीं जताया.
अगर राहुल जनेऊ के धागे को वहां से पकड़ना चाहते हैं जहां उनकी दादी ने उसे छोड़ा था, खासकर तब जब उनकी पार्टी को 2014 में 44 सीटों पर समेट देने वाली भाजपा हिंदुत्व पर अपना एकाधिकार जता रही है, तो इसे ‘स्मार्ट पॉलिटिक्स’ कहा जा सकता है. अपने देवताओं पर विरोधियों को क्यों कब्जा जमाने दिया जाए? आप इसे नैतिकता-निरपेक्ष कह सकते हैं, तो आप कृपा करके मर्यादा पुरुषोत्तम राजनेता खोज लाइए. मुझे तो अभी तक ऐसा कोई नहीं मिला.
समझौते होंगे. राहुल की कांग्रेस तीन तलाक पर सहमी हुई है, राम मंदिर पर शून्य में ताकती नज़र आ रही है, सबरीमला पर आरएसएस के साथ खड़ी दिख रही है. जरा मध्य प्रदेश चुनाव के लिए गाय तथा गोमूत्र से सुशोभित उसके घोषणापत्र को पलट लीजिए. उदारवादी खेमा अगर राहुल से निराश है तो इसे समझना मुश्किल नहीं है. लेकिन वे नेहरूवादी पक्की धर्मनिरपेक्षता के साथ इस राजनीति में नहीं टिक सकते. यह उन्हें कहीं भी चुनाव नहीं जितवा सकती, जेएनयू में भी नहीं. तब उनका नाम आधुनिक भारतीय इतिहास में सबसे नामवर असफल नेता के तौर पर दर्ज़ हो जाएगा. लेकिन, अगर उन्होंने अपनी दादी की राह अपना ली तो वे भाजपा को आस्था तथा राष्ट्रवाद, दोनों पर एकाधिकार जमाने से रोक सकेंगे.
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आज हम जिस भारत में रह रहे हैं वह उस भारत से बहुत अलग है, जिसे नेहरू छोड़ गए थे. कानूनविद फली नरीमन ने इस सप्ताह संविधान दिवस पर दिए अपने व्याख्यान में इस मुद्दे को बहुत उम्दा तरीके से रखा. प्रख्यात विद्वान ग्रानविल ऑस्टिन को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा, ‘ऑस्टिन ने हमारे संविधान में तीन धाराओं की पहचान की- राष्ट्रीय एकता और अखंडता की सुरक्षा तथा मजबूती; लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थापना; सामाजिक सुधारों को प्रोत्साहन. इन तीनों को मिलाने पर एक मजबूत तानाबाना बनता है. लेकिन इसके थोड़ी ही दूरी पर चौथी सर्वव्यापी धारा झलकती दिखती है, जो कि संस्कृति की धारा है.’
उस संस्कृति के, जिसमें धर्म तथा परम्पराएं समाहित हैं, संदर्भ में ही सोनिया गांधी तथा उनके ‘एनएसी’ के अधिकतर वामपंथी साथियों के नेतृत्व में कांग्रेस और यूपीए रास्ता भटक गए. वे किसी और ग्रह के नज़र आने लगे. भारत उस स्तर की लगभग नास्तिकतावादी धर्मनिरपेक्षता को स्वीकार करने को तैयार नहीं था. उस दौर में मनमोहन सिंह ने जो यह बयान दिया था कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है, वह बयान आज भी कांग्रेस को प्रताड़ित करता आ रहा है.
यूपीए ने हिंदू-राष्ट्रवादी भावनाओं का मैदान मोदी की भाजपा के लिए खुला छोड़ दिया. राहुल ने जो दिशा परिवर्तन किया है वह दर्शन या विचारधारा के लिहाज से बिलकुल मुकम्मल भले न हो, मगर यह एक दिलचस्प राजनीति है, जो जोखिम मोल लेने की अपरिचित क्षमता को उजागर करती है. उन्होंने जानबूझकर एक अपरिचित पिच पर कदम रखा है. भाजपा/आरएसएस में कई ऐसे लोग हैं जो यह मान रहे हैं कि उन्होंने राहुल को खींच कर वहां ला दिया है जहां वे उन्हें लाना चाहते थे.
हम पहले कह चुके हैं कि राहुल के इस कदम को हम अलग तरह से देखना चाहेंगे. हमारा मानना है कि यह राजनीतिक चक्रव्यूह में घुसने जैसा है. अब या तो वे जीतेंगे या खत्म हो जाएंगे. कदम पीछे खींचने की गुंजाइश नहीं है. और अगर वे ‘थोड़ा यह भी और थोड़ा वह भी’ वाला खेल खेलेंगे तो उन्हें पता है कि इस खेल ने उनके पिता को 1989 तक कहां लाकर फटका था.
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