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Saturday, 30 November, 2024
होममत-विमतराहुल गांधी को कदम पीछे कर लेने चाहिए, प्रियंका को कमान सौंपने के उनके पास चार बड़े कारण हैं

राहुल गांधी को कदम पीछे कर लेने चाहिए, प्रियंका को कमान सौंपने के उनके पास चार बड़े कारण हैं

महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि राहुल गांधी महत्वाकांक्षी भारत की कल्पना को नहीं जगा सकते.

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ब्रांड मोदी कमज़ोर पड़ रहा है. भारतीय जनता पार्टी ने झारखंड जैसे एकमात्र राज्य को खो दिया है, जहां उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना चेहरा बनाया था.

इससे कांग्रेस नेताओं को खुश होना चाहिए. आखिरकार, उन्होंने एक दशक से इस पल का इंतज़ार किया है, लेकिन वो खुश नहीं हैं. अब उन्हें यह बात समझ में आ रही है कि ब्रांड मोदी और ब्रांड राहुल एक दूसरे से विपरीत रूप से जुड़े हुए नहीं हैं. भले ही ब्रांड मोदी की चमक कम हो रही हो, लेकिन इससे विपक्षी नेता की ब्रांड वैल्यू नहीं बढ़ रही है. उनका बहुचर्चित ‘मुहब्बत-बनाम-नफरत’ वाला नैरेटिव अब मुसलमानों को भी बहुत ज्यादा नहीं खींच पा रहा है.

महाराष्ट्र से रिपोर्टिंग करते हुए मैंने 2024 के धुले लोकसभा चुनाव का ज़िक्र किया था, जिसे भाजपा के रणनीतिकारों ने तथाकथित ‘वोट जिहाद’ के उदाहरण के रूप में मेरे सामने रखा था. भाजपा उम्मीदवार सुभाष भामरे ने छह विधानसभा क्षेत्रों में से पांच में बढ़त हासिल की, जिससे उन्होंने अपने कांग्रेस प्रतिद्वंद्वी पर कुल 1.90 लाख वोटों की बढ़त हासिल की थी. छठे विधानसभा क्षेत्र, मुस्लिम बहुल मालेगांव सेंट्रल में भामरे अपने कांग्रेस प्रतिद्वंद्वी से 1.94 लाख वोटों से पीछे रहे और लोकसभा चुनाव में 3,800 से ज़्यादा वोटों से हार गए. ऐसे उदाहरणों ने आम धारणा और कथन को बल दिया था अल्पसंख्यक राहुल गांधी के पीछे एकजुट हो रहे हैं.

आइए अब विधानसभा चुनाव में मालेगांव सेंट्रल सीट पर विभिन्न पार्टियों के वोट शेयर पर नज़र डालें: असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM)-1,09,653; इंडियन सेक्युलर लार्जेस्ट असेंबली ऑफ महाराष्ट्र (ISLAM)-1,09,491; समाजवादी पार्टी (SP) -9,624 और कांग्रेस (INC) -7,527. कांग्रेस उस विधानसभा सीट पर चौथे स्थान पर रही, जिसने धुले में अपने लोकसभा उम्मीदवार को जीत दिलाई थी.

पहले रनर-अप शेख रशीद एक पूर्व कांग्रेसी थे, जिन्होंने मतदान से ठीक एक महीने पहले ISLAM की स्थापना की थी. ज़रा सोचिए कि कांग्रेस को मालेगांव सेंट्रल में लोकसभा चुनाव में 1.94 लाख वोट मिले और छह महीने बाद विधानसभा चुनाव में सिर्फ 7,527. असम के मुस्लिम बहुल समागुरी निर्वाचन क्षेत्र में उपचुनाव में, जिस पर कांग्रेस का 2001 से कब्ज़ा था, भाजपा ने जीत हासिल की.

उत्तर प्रदेश के मुस्लिम बहुल कुंदरकी विधानसभा क्षेत्र में इंडिया का एक घटक समाजवादी पार्टी भाजपा से उपचुनाव में हार गई. प्रभावशाली बर्क परिवार को टिकट देने से सपा द्वारा इनकार करना और कांग्रेस के नेतृत्व वाली हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा कुंदरकी की रहने वाली आईपीएस अधिकारी इल्मा अफरोज़ को लंबी छुट्टी पर भेजना, उन कारकों में से एक थे, जिनकी वजह से मुस्लिमों का कांग्रेस की सहयोगी सपा से मोहभंग हो गया.

हमेशा यह तर्क दिया जा सकता है कि ये विधानसभा चुनाव और उपचुनाव हैं, जिनमें स्थानीय कारक हावी होते हैं. जैसा कि कांग्रेस नेता गुरदीप सप्पल ने बताया, पार्टी ने नांदेड़ लोकसभा उपचुनाव जीता, लेकिन इस संसदीय क्षेत्र की सभी छह विधानसभा सीटें हार गई.

कांग्रेस उम्मीदवारों को छह विधानसभा क्षेत्रों में 4.27 लाख वोट मिले, लेकिन पार्टी के लोकसभा उम्मीदवार को 5.87 लाख वोट मिले. यह इस बात का एक और संकेत है कि महाराष्ट्र में लोगों ने इस विधानसभा चुनाव में महायुति को वोट दिया, लेकिन जब केंद्र में पीएम मोदी के हाथ को मजबूत करने की बात आई, तो उनमें से एक बड़ा वर्ग भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन से दूर हो गया.


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ब्रांड मोदी के पतन से कांग्रेस की नहीं होगी मदद

कांग्रेस समर्थक ब्रांड मोदी के पतन के कुछ और उदाहरण दे सकते हैं. हालांकि, पिछले एक दशक में कांग्रेस पार्टी के चुनावी प्रदर्शन से ब्रांड राहुल की दृढ़ता पर भरोसा नहीं होता. शनिवार शाम को पार्टी मुख्यालय में भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस पर कटाक्ष करते हुए उसे ‘परजीवी’ कहा जो अपने दम पर चुनाव नहीं जीत सकती. इससे कांग्रेस नेताओं के स्वाभिमान को ठेस पहुंची होगी, लेकिन तथ्यों पर गौर कीजिए.

कांग्रेस पांच राज्यों में अपने दम पर कितनी लोकसभा सीटें जीत सकती है, जिनमें सबसे ज्यादा सीटें हैं — उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार, तमिलनाडु? अगर वह अकेले चुनाव लड़े तो दहाई अंक में भी नहीं. इन राज्यों में कुल मिलाकर 249 सीटें हैं, जो लोकसभा की कुल 543 सीटों में से लगभग आधी हैं. इसमें मध्य प्रदेश, गुजरात और ओडिशा जैसे राज्य को जोड़ दें, जहां कुल 76 लोकसभा सीटें हैं और जहां कांग्रेस पिछले कई चुनावों में बमुश्किल खाता खोल पाई है. चाहे वे किसी भी पद पर रहे हों, राहुल गांधी 2007 में कांग्रेस महासचिव बनने के बाद से ही पार्टी को चला रहे हैं. उनके नेतृत्व में पार्टी का कद लगातार घट रहा है. पार्टी के भाग्य को बदलने के लिए 17 साल का समय बहुत लंबा है.

कांग्रेस के साथ जो कुछ हुआ है, उसके लिए पूरी तरह से राहुल गांधी को दोषी ठहराना अनुचित होगा. कई क्षेत्रीय क्षत्रपों ने भी अपने-अपने राज्यों में पार्टी के पतन का नेतृत्व किया है. उन्होंने अपनी पूरी क्षमता से अपने राजनीतिक विरोधियों का मुकाबला करते हुए आगे बढ़कर नेतृत्व किया है. जैसा कि कांग्रेस के भीतर उनके समर्थक कहते हैं, उनका दिल सही जगह पर है और जो भी उन्हें सही लगता है उसके लिए लड़ने की उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता. जो भी हो, हलवा खाने पर ही उसका स्वाद पता चलता है.

प्रियंका गांधी के लिए बल्लेबाजी

तो, आज राहुल गांधी के पास क्या विकल्प हैं? उन्हें कमान किसी और को सौंप देनी चाहिए. उनके पास कोई संगठनात्मक पद नहीं है और उन्हें कुछ भी छोड़ने की ज़रूरत नहीं है. उन्हें अपनी राजनीतिक या वैचारिक मान्यताओं को बदलने की ज़रूरत नहीं है. वे एक सांसद हैं और उन्हें अपनी लड़ाई लड़नी है. उनसे या सोनिया गांधी से यह उम्मीद करना कि वे पार्टी पर अपनी पकड़ ढीली करेंगे और परिवार से बाहर किसी को सत्ता सौंप देंगे, भोलापन होगा. उन्होंने ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल के उस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया था जिसमें मल्लिकार्जुन खरगे को 2024 के लोकसभा चुनाव में इंडिया ब्लॉक का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की बात कही गई थी.

इसलिए, राहुल गांधी जो कर सकते हैं, वह यह है कि वे पीछे हटें और बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को आगे बढ़ाएं. कम से कम 2029 के लोकसभा चुनाव तक उन्हें पार्टी का चेहरा बनने दें. यहां चार कारण मौजूद हैं कि उन्हें ऐसा क्यों करना चाहिए.

सबसे पहले, मोदी हों या न हों, लगातार चौथे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का चेहरा बनकर राहुल जीत की रणनीति नहीं बन सकते.

दूसरा, प्रियंका ने चुनावी राजनीति में ऐसे समय प्रवेश किया है जब महिला मतदाता नतीजों को आकार दे रही हैं. शौचालय, एलपीजी सिलेंडर, घर, मुफ्त सामान, आदि ने उन्हें मोदी की राजनीतिक ताकत के स्तंभों में बदल दिया. देखिए कि उन्होंने महाराष्ट्र और झारखंड के हालिया चुनावों में कैसे नतीजों को पलट दिया और फिर भी, जब ब्रांड मोदी चरम से उतराव पर है, तो भाजपा में महिला मतदाताओं को आकर्षित करने वाली महिला नेता कम ही हैं.

भाजपा को यहां बड़ा नुकसान है. 30-सदस्यीय मोदी मंत्रिमंडल को देखिए. इसमें केवल दो महिलाएं हैं — वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और महिला एवं बाल विकास मंत्री अन्नपूर्णा देवी. भाजपा के 27 मुख्यमंत्रियों और उपमुख्यमंत्रियों में से केवल दो महिलाएं हैं — राजस्थान की उपमुख्यमंत्री दीया कुमारी, जिन्होंने वसुंधरा राजे के साथ अपने सार्वजनिक झगड़ों के कारण भाजपा आलाकमान का ध्यान आकर्षित किया और उनकी ओडिशा समकक्ष प्रवती परिदा.

11-सदस्यीय भाजपा संसदीय बोर्ड में एक महिला सुधा यादव हैं. सभी सात राष्ट्रीय महासचिव पुरुष हैं. सुषमा स्वराज की मृत्यु के बाद भाजपा के पास कोई भी महिला नेता नहीं है, जिसकी अखिल भारतीय अपील हो. यहां तक कि उमा भारती और वसुंधरा राजे जैसे जाने-माने चेहरे भी किनारे कर दिए गए हैं. इसी तरह कई अन्य लोगों को भी किनारे कर दिया गया है, जिनमें सिद्ध योग्यताएं और क्षमताएं हैं, जैसे स्मृति ईरानी और पूनम महाजन. यह कांग्रेस के लिए एक बड़ा अवसर है.

कांग्रेस पार्टी के चेहरे के रूप में प्रियंका गांधी वाड्रा मोदी के बाद के दौर में भाजपा की इस बड़ी कमज़ोरी का फायदा उठा सकती हैं. ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी भी इसके प्रति सचेत हैं. वे शायद ही कभी प्रियंका पर हमला करते हैं. न ही भाजपा के अन्य नेता ऐसा करते हैं. निजी बातचीत में वे इसे स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि राहुल गांधी को अपनी आलोचना और उपहास के केंद्र में रखना उनके लिए बेहतर राजनीतिक लाभ देता है.

दरअसल, यह राहुल के लिए प्रियंका को सामने लाने का तीसरा कारण होना चाहिए. भाजपा प्रियंका पर हमला करने और उनका उपहास करने से बचती है, जैसा कि वह राहुल पर करती है. कभी-कभी कोई नेता उनके पति रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों को उछाल देता है. हालांकि, इसका उतना अब असर नहीं होता क्योंकि हरियाणा में 2014 से भाजपा के सत्ता में होने के बावजूद उन मामलों में कुछ नहीं हुआ है. प्रियंका जब भी संसद के अंदर और बाहर बोलने के लिए उठेंगी, तो लोगों की निगाहें उन पर टिकी रहेंगी.

कांग्रेस द्वारा प्रियंका को आगे बढ़ाने का चौथा कारण यह है कि महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि राहुल आकांक्षी भारत की कल्पना को प्रज्वलित नहीं कर सकते. उनके लिए अपनी राजनीति को फिर से कल्पित करने के लिए अब देर हो चुकी है. प्रियंका को वह सब कुछ छोड़ने की ज़रूरत नहीं है जिसके लिए वह खड़े हैं, लेकिन वह संभावित रूप से इस पुरानी पार्टी को फिर से खड़ा कर सकती हैं.

यहां पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि राहुल गांधी प्रियंका के लिए रास्ता क्यों छोड़ेंगे और, अगर वे ऐसा करना भी चाहें, तो कैसे? आखिरकार, उन्हें देने के लिए कोई औपचारिक पद नहीं है. दूसरे सवाल का जवाब पहले, वे कदम पीछे कर सकते हैं. उन्हें पार्टी के अभियानों का नेतृत्व करने दें, इसकी आवाज़ बनने दें और इसका चेहरा बनकर उभरने दें. वे बस चुपचाप रह सकते हैं और लोगों को दिखा सकते हैं कि औपचारिक या अनौपचारिक रूप से अब उनका कोई नियंत्रण नहीं है, जहां तक पहले सवाल की बात है, उनके पास खोने के लिए बहुत कुछ नहीं है. हो सकता है कि ज्योतिषी उन्हें 2029 तक उनके बारे में लोगों की धारणा में चमत्कारिक बदलाव के बारे में बता रहे हैं. अगर सितारे इस बदलाव के लिए फिर से संरेखित हो रहे हैं, तो मतदाताओं को पता नहीं लगा है. अभी तक तो नहीं.

(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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