अनुमान लगाइए कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह आखिरी बार कब विदेश गए थे. उनके आधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक, 2006 में. क्या इसका मतलब है कि उन्हें विदेशी जमीन या मौसम पसंद नहीं? बिल्कुल नहीं. वजह यह है कि वह 24/7 नेता हैं. वह कभी ब्रेक नहीं लेते—भारत में . यही उन्हें बनाता है एक ऐसा ताकतवर नेता जिसे उतना ही सम्मान या डर मिलता है उनके राजनीतिक दोस्तों और दुश्मनों से, जितना उनके मंत्रालयों में काम करने वाले अफसरों से.
आप सोच सकते हैं कि यह विदेश यात्राओं वाला पैमाना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में क्या कहेगा. उन्होंने 11 साल में 150 से ज्यादा विदेशी दौरे किए हैं. क्या इससे उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता कम हो जाती है? बिल्कुल नहीं. मोदी की विदेश यात्राएं भी उनके 24/7 नेता होने का हिस्सा हैं. ये यात्राएं उनके ‘विश्वगुरु’ वाली छवि बनाने का हिस्सा हैं.
तो हमें राहुल गांधी के विदेशी दौरों को कैसे देखना चाहिए? 6 सितंबर को, बिहार में कांग्रेस नेता की यात्रा खत्म होने के पांच दिन बाद, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने उन पर तंज कसा कि वह फिर से ‘गुपचुप तरीके से मलेशिया के लंगकावी में छुट्टी मनाने चले गए’.
“लगता है कि बिहार की राजनीति की गर्मी और धूल कांग्रेस युवराज के लिए बहुत ज्यादा थी, जिसे झेल न पाने पर वह ब्रेक के लिए भाग खड़े हुए… जबकि लोग असली समस्याओं से जूझ रहे हैं, राहुल गांधी गायब होने और छुट्टियां मनाने की कला को और निखारने में लगे हैं,” बीजेपी आईटी विभाग प्रमुख अमित मालवीय ने एक्स पोस्ट में लिखा.
कुछ दिन बाद, केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) ने गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को एक चिट्ठी लिखी, जिसमें लोकसभा में विपक्ष के नेता की विदेश यात्राओं के दौरान सुरक्षा प्रोटोकॉल तोड़ने पर गंभीर चिंता जताई गई. चिट्ठी में पिछले नौ महीनों में उनके छह देशों—इटली, वियतनाम, दुबई, कतर, ब्रिटेन और मलेशिया—की यात्राओं की तारीखें भी बताई गईं.
एक गैर-गंभीर नेता
यह पहली बार नहीं है जब गांधी की विदेशी यात्राएं सार्वजनिक बहस का विषय बनी हैं. बीजेपी सालों से उनकी बार-बार की यात्राओं को मुद्दा बनाती रही है. मकसद, जाहिर है, उन्हें एक अनिच्छुक या गैर-गंभीर नेता के रूप में दिखाना है जो विदेशी धरती को पसंद करता है. अगर गांधी के दोस्त और प्रशंसक इसे निंदक राजनीति कहें तो समझा जा सकता है.
आखिरकार, किसी व्यक्ति को ब्रेक लेने और कामकाज और निजी जीवन के बीच संतुलन बनाने के लिए कैसे दोषी ठहराया जा सकता है? अगर उन्हें विदेश में छुट्टियां पसंद हैं तो क्या फर्क पड़ता है? अगर कोई लेक्चरर, बैंकर, कॉर्पोरेट एग्जीक्यूटिव या पत्रकार छुट्टी ले सकता है तो गांधी ऐसा क्यों नहीं कर सकते? ये सवाल और तर्क वाजिब हैं. यह भी सच है कि गांधी लगातार विदेश जाते रहते हैं, राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की आलोचनाओं को नज़रअंदाज़ करते हुए, और इससे यह भी झलकता है कि वे खुद को 24/7 नेता के रूप में पेश करना भी नहीं चाहते.
कांग्रेस के रणनीतिकार सोच सकते हैं कि भारतीय युवा एक अलग तरह के नेता से खुद को जोड़ते हैं—एक आदर्शवादी, बाइक चलाने वाला, टी-शर्ट पहनने वाला, मोहब्बत का संदेश देने वाला, सिक्स पैक वाला नेता, जो विदेशी विश्वविद्यालयों में भाषण दे सकता है. उनकी इंस्टाग्राम, फेसबुक और अन्य प्लेटफॉर्म्स पर लोकप्रियता की भी चर्चा होती है.
ये सारी बातें सच हो सकती हैं, लेकिन यह कांग्रेस पार्टी के वोट शेयर में तब्दील नहीं हो रही हैं, जो पिछले तीन लोकसभा चुनावों में लगभग स्थिर रहा है—2014 में 19.52 प्रतिशत, 2019 में 19.66 प्रतिशत और 2024 में 21.4 प्रतिशत. 2024 में 1.74 प्रतिशत अंकों की मामूली बढ़त (और 2019 की 52 सीटों की तुलना में 47 सीटों की बढ़त) को भी INDIA गठबंधन का हिस्सा होने के संदर्भ में ही देखना होगा. कांग्रेस का एक नेता यह तर्क दे सकता है कि पार्टी ने 93 सीटें कम लड़ीं—2019 में 421 के मुकाबले 2024 में 328—इसलिए वोट शेयर के ठहराव की बात भ्रामक है. हो सकता है, लेकिन विपक्षी एकता से कांग्रेस को फायदा मिला, इस पर विवाद नहीं हो सकता. पार्टी का प्रदर्शन इसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में भी यह नहीं दिखाता.
बहस के लिए मान भी लें कि कांग्रेस और सीटों पर लड़ती तो उसे 23 प्रतिशत वोट और मिल सकते थे. लेकिन यह भी ठहराव ही माना जाता एक ऐसी पार्टी के लिए जिसका सबसे कम वोट शेयर, आज़ादी के बाद और 2014 से पहले, 1998 के लोकसभा चुनाव में 25.82 प्रतिशत था.
स्पष्ट है, गांधी की राजनीति का तरीका और उनकी बदली हुई छवि वोटों में नहीं बदल रही है, चाहे उनके चाहने वालों की उम्मीदें और प्रचार कितना भी हो. यह भी सच है कि पीएम मोदी, अपनी लोकप्रियता के घटते ग्राफ के बावजूद, गांधी से कहीं आगे हैं जब राष्ट्रीय नेता के रूप में जनता के भरोसे की बात आती है. इंडिया टुडे के ताज़ा ‘मूड ऑफ द नेशन’ सर्वे में जब लोगों से पूछा गया कि प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त नेता कौन है, तो 52 प्रतिशत ने मोदी को चुना और 25 प्रतिशत ने गांधी को. तो, गांधी यहां क्या गलती कर रहे हैं?
नकारात्मकताओं पर ध्यान
पिछले हफ्ते एक राजनीतिक सलाहकार से बातचीत में मुझे इस बात का अहसास हुआ कि गांधी की राजनीति को क्या चला रहा हो सकता है. सलाहकार के सर्वे के अनुसार, लोगों के वोट अधिकतर नकारात्मक भावनाओं से प्रभावित होते हैं. यानी किसी नेता का आकलन उसकी अच्छाइयों या उपलब्धियों से ज्यादा उसकी गलतियों या असफलताओं से होता है. यही वजह है कि सलाहकार ने कहा, उनका ज्यादातर ध्यान किसी नेता से जुड़ी नकारात्मक बात को तुरंत संबोधित करने पर होता है. 2014 में क्या लोगों ने मनमोहन सिंह के खिलाफ ज्यादा वोट किया था या नरेंद्र मोदी के पक्ष में? दोनों भावनाएं निश्चित रूप से काम कर रही थीं, लेकिन यह कहना मुश्किल है कि कौन सी ज्यादा हावी थी. अतीत में हमारे पास आसान जवाब थे. 1977 में लोगों ने इंदिरा गांधी की सरकार को मुख्य रूप से उनके प्रति नापसंदगी के कारण गिराया था—न कि इसलिए कि वे जयप्रकाश नारायण (आखिरकार मोरारजी देसाई) को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे. 1989 में राजीव गांधी विरोधी भावनाओं ने वीपी सिंह को वोटरों के बीच लोकप्रिय बना दिया.
राहुल गांधी को यकीन है कि नकारात्मक भावनाएं लोगों के मतदान व्यवहार को तय करने में बड़ी भूमिका निभाती हैं. या कम से कम उनकी 2019 और 2024 के चुनावों की रणनीति से तो ऐसा ही लगता है. उनकी चुनावी मुहिम लगभग पूरी तरह पीएम मोदी को नकारात्मक रूप में पेश करने पर केंद्रित रही—‘चौकीदार चोर है’ के नारे से लेकर ‘56 इंच की छाती’ पर तंज और संविधान की ‘हत्या’ तक. ‘वोट चोरी’ इसका ताज़ा उदाहरण है.
चूंकि 2024 लोकसभा चुनावों में बीजेपी की सीटें घटकर 240 रह गईं, कांग्रेस रणनीतिकारों को हौसला मिला होगा. वे शायद बीजेपी के वोट शेयर पर दोबारा नज़र डालना चाहेंगे—2014 में 31.34 प्रतिशत, 2019 में 37.7 प्रतिशत और 2024 में 36.9 प्रतिशत. केंद्र में बीजेपी के 10 साल के शासन के बाद, सत्ताधारी पार्टी का वोट शेयर 1 प्रतिशत से भी कम यानी 0.8 प्रतिशत गिरा. और कांग्रेस का वोट शेयर 1.74 प्रतिशत बढ़ा. दोनों पार्टियों के वोट शेयर में अंतर अभी भी 15.5 प्रतिशत का है—जो बहुत बड़ा फासला है.
राजनीतिक सलाहकार यह कहना चाह रहे थे कि किसी भी नेता से जुड़े नकारात्मक भावों को संबोधित करना जरूरी है. यह हर नेता पर लागू होता है, चाहे वे सत्ता पक्ष में हों या विपक्ष में. तो अब आप समझ सकते हैं कि यह सलाहकार राहुल गांधी के लिए काम नहीं करते. जबकि कांग्रेस नेता का सारा ध्यान पीएम मोदी और उनकी पार्टी के खिलाफ नकारात्मकता पैदा करने पर है, वे यह नहीं समझते कि उन्हें अपने बारे में विपक्षियों द्वारा पिछले दो दशकों में पैदा की गई नकारात्मक छवि का भी मुकाबला करना होगा.
उदाहरण के लिए, उन्हें गैर-गंभीर नेता के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. उनकी विदेश यात्राओं को मुद्दा बनाना भले ही निंदक राजनीति हो, लेकिन आखिरकार यह राजनीति ही है. शहरी, मध्यवर्गीय, उदारवादी और महत्वाकांक्षी लोगों का एक वर्ग इसे बिल्कुल सही मान सकता है. लेकिन गरीब और वंचित वर्ग को यह संदेश शायद न मिले. वे भी महत्वाकांक्षी हो सकते हैं, लेकिन शायद इतना नहीं कि वे खुद को एक ऊंची उड़ान भरने वाले ग्लोबट्रॉटर से जोड़ पाएं. यह किसी का भी कहना नहीं है कि कोई नेता विदेश यात्रा न करे, लेकिन उसे अपने विरोधियों के इस प्रयास का जवाब ज़रूर ढूंढना होगा, जिसमें उसे गैर-गंभीर नेता दिखाने की कोशिश की जाती है.
यह तो सिर्फ एक उदाहरण है. पीएम मोदी के प्रमुख चुनौतीकर्ता को यह जानना चाहिए कि उनके बारे में कौन सी बातें हैं जो वोटरों को उनसे और उनकी पार्टी से दूर करती हैं. उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि इन नकारात्मक बातों को कैसे संबोधित किया जाए. राहुल गांधी यह तभी कर पाएंगे जब वे खुद से स्वीकार करेंगे कि 2024 लोकसभा चुनाव पीएम मोदी के लिए भले ही एक झटका रहे हों, लेकिन यह कांग्रेस की जीत नहीं थी.
हमने ऊपर आंकड़ों की चर्चा की है. अब अगला कदम गांधी के लिए यह होना चाहिए कि वे खुद से पूछें: ‘मेरी राजनीति में क्या ग़लत है?’ वे यह सवाल अपने आसपास के लोगों से नहीं पूछ सकते. वे सब हां में हां मिलाने वाले लोग हैं. वही लोग हैं जो उन्हें एक काल्पनिक दुनिया में रखते हैं. अगर राहुल गांधी ईमानदार जवाब चाहते हैं, तो उन्हें सबसे पहले इन लोगों को हटाना होगा.
डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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