भारतीय मीडिया द्वारा ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पर ध्यान देने के लिए आखिरकार सावरकर मुद्दे के सामने आने का इंतजार करना पड़ा. तर्क संगत रूप से यह उपयुक्त भी है. राहुल गांधी को एक लंबे रास्ते पर कठिनाई और तेजी के साथ चलते हुए 2 महीने से अधिक हो गए हैं. इस यात्रा का मकसद राजनीतिक मुक्ति है. धार्मिक सद्भाव और सभी के लिए समृद्धि के अपने सरल संदेश के साथ, यह महती यात्रा सामान्य मानवीय जुड़ाव और लोगों के साथ बातचीत पर केंद्रित है.
उत्साही समर्थकों द्वारा गले लगाए जाने और सेल्फी लेने की जोरदार मांगों के बीच आगे बढ़ रही यह यात्रा एक तनावग्रस्त राष्ट्र के लिए किसी सार्वजनिक उपचार से कम नहीं है. राहुल गांधी का पैदल चलना, और कुछ नहीं बल्कि महात्मा गांधी, जिन्होंने पदयात्रा को राजनीतिक विरोध का सर्वोपरि कार्य बना दिया था, का जान बूझ कर किया हुआ अनुकरण है.
भारतीय मीडिया ने अब तक इस पर बहुत कम ध्यान दिया है…
यात्रा के महाराष्ट्र में प्रवेश करने के साथ ही राहुल गांधी ने प्रेस को वीडी सावरकर द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य को दी गई दया याचिका की याद दिला दी. यह सच है कि सावरकर ने अंडमान द्वीप की भयावह सेलुलर जेल से अपनी रिहाई की मांग की थी, और उनकी याचिका राजनीतिक गुलामी के सबसे दयनीय शब्दों में लिखी गई थी. यह भारतीय मीडिया को भड़काने के लिए काफी था.
नरेंद्र मोदी ने घोषित कर दिया है कि यह यात्रा अब ‘राजनीतिक’ हो गई है. मिडिया के टिप्पणीकारों ने भी इस ओर इशारा करना शुरू कर दिया है कि राहुल गांधी द्वारा ऐसा करना वास्तव में राजनीतिक रूप से अनुपयुक्त कदम है, क्योंकि इतिहास के अभिलेखागार से निकाले गए इस स्मरण पत्र से महा विकास अघाड़ी में कांग्रेस पार्टी के सहयोगी, यानि कि शिवसेना के ठाकरे गुट जो स्वयं सावरकर से प्रेरणा लेता है, के नाराज होने का जोखिम पैदा हो जाता है.
इसकी वजह से विचारों में भिन्नता भी उभर रही है क्योंकि यह उपयुक्त और जीवंत दोनों है. यह स्वतंत्र भारत की पहचान केंद्र में रहे उस मौलिक राजनीतिक और मानसिक विभाजन का संकेत देता है, जो महात्मा गांधी और हिंदुत्व के संस्थापक वीडी सावरकर की पहचान से जुड़ा है.
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सावरकर/गांधी: एक प्राइमर
प्रबल हिंदुत्व के हमारे समय काल में, सावरकर हर जगह छाए हैं. हवाईअड्डे पर स्थित किताबों की दुकानों से लेकर राजनीतिक टिप्पणीकारों तक कभी भारतीय इतिहास में एक छाया पात्र रहा यह किरदार, जो हाल तक लोगों की सहज दृष्टि से छिपा हुआ था, अब खुले तौर पर राजनीतिक रेखाओं और भावनात्मक निष्ठाओं को फिर से रेखांकित कर रहा है.
तेज-तर्रार मराठी नेता और भारत के पहले जन राष्ट्रवादी नेता माने जाने वाले लोकमान्य तिलक के शागिर्द रहे सावरकर ने अपनी प्रारंभिक युवावस्था गुप्त क्रांतिकारी समाजों में बिताई. सावरकर ने बम बनाना, बंदूकों से गोली चलाना भी सीखा और भारत और लंदन – जहां उन्होंने छिप-छिपाकर डेरा डाला हुआ था – दोनों जगहों पर इसी तरह की गतिविधियों के लिए अन्य युवकों को प्रशिक्षित भी किया.
सावरकर ने अभिलेखागार में काफी समय बिताया और इतिहास लेखन में लग गए. 1908 में उन्होंने 1857 के भारतीय विद्रोह का एक मौलिक विवरण लिखा था. उन्होंने ही इसे ‘भारत के स्वतंत्रता का पहला युद्ध’ करार दिया था. घातक गतिविधियों, गुप्त एसोशियनों और भड़काऊ गद्य लेखन के कारण उनकी पहले गिरफ्तारी और फिर अंडमान में प्रत्यर्पण हुआ.
जब सावरकर जेल में ही थे तभी मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे और आने के साथ ही भारत की राजनीतिक शब्दावली और साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन को बदल डाला. यह मात्र किसी संयोग की बात नहीं थी. गांधी और सावरकर की पहले ही एक असफल मुलाकत हो चुकी थी जिसने लंदन में रहते हुए उनके बीच के मतभेदों को उजागर कर दिया था और यह अनुमान व्यापक रूप से लगाया जाता है कि महात्मा गांधी द्वारा लिखित हिंद स्वराज (1909) सावरकर और उनकी राजनीति को लक्ष्य करके लिखा गया था.
यह सुनिश्चित है कि 1908 में लंदन में हुई उनकी शुरुआती असफल मुलाक़ात से लेकर साल 1948 में दिल्ली में सावरकर के एक अनुचर द्वारा गांधी की हत्या तक, इन दोनों शख्सों ने दो विरोधी विचारधाराओं और राजनीतिक दृष्टि एवं प्रयोजन के दो अलग-अलग तौर-तरीकों का निर्माण किया.
गांधी की राजनीति साफ़ दिखाई देने वाली, गोपनीयता विरोधी थी और किसी की हत्या करने की जगह स्वयं मरना पसंद करने वाली थी. इन सबसे ऊपर, भगवान, और विशेष रूप से हिंदू धर्म के प्रति एक उत्सुक आस्थावान शख्श के तौर पर गांधी ने बराबरी के एक नए भाईचारे की चेतना जगाने के लिए धर्म की राह को अपनाया. सिर्फ सत्य ही हिंसा का मुकाबला कर सकता है; इसलिए उनका अभिनव शब्द सत्याग्रह एक राजनीतिक विचार और शक्तिशाली कार्यप्रणाली दोनों ही था. गांधी के अनुसार धर्म के मुद्दे पर किसी भी तरह की प्रतियोगिता केवल उनमें आस्था रखने वाले शख्श की कमजोरी को दर्शाती थी और इसलिए वह धर्मांतरण और पुन: धर्मांतरण (या शुद्धि) दोनों के विरोधी थे.
इतिहास से उत्साह के स्रोत के रूप में सावरकर की गहरी रुचि हमेशा हिंसा और युद्ध में ही रही. एक जाने-माने नास्तिक के रूप में उन्होंने ‘हिंदुत्व’ शब्द और पंथ को गढ़ा. हिंदुत्व को हिंसा के सिद्धांत के रूप में समझाया गया था. राजनीतिक हिंदूपन को नकारते हुए, सावरकर इस बात को लेकर साफ थे कि एक धर्म के रूप में, स्वयं हिंदू धर्म ही ‘हिंदुत्व’ की विचारधार को साकार करने में एक महत्वपूर्ण बाधा उत्पन्न करता है.
शत्रुता और हिंसा द्वारा इसके ऊपर विजय के विचार पर नजरें गड़ाए हुए सावरकर ने बौद्ध धर्म और इस्लाम दोनों की भारतीय यात्राओं को प्रमुख राजनीतिक विरोधियों के रूप में चुना. क्रांतिकारी पंथ के रूप में गोपनीयता उनके लेखन में ही समाहित थी. उनके घोषणापत्र ‘हिंदुत्व’ के प्रकाशन के 2 साल बाद और साल 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना उनके आदर्शों को साकार करने के लिए ही की गई थी.
और बाकी, जैसा सब कहते हैं, इतिहास ही है.
इतिहास पर छिड़ी जंग
हाल के दिनों में भारतीय राजनीतिक कथानक बड़ी तेजी के साथ अतीत में लौट गया है. आंशिक रूप से, यह हमारे समय के लिए उपयुक्त एक नई राजनीतिक भाषा गढ़ने के लिए किया गया है. भारत के इतिहास पर छिड़ा युद्ध करीब एक दशक या उससे अधिक समय पहले तब शुरू हुआ था, जब यूपीए-युग की राजनीतिक भाषा और इसके उदारवादी कल्याण कार्यक्रम असफल हो गया थे, और ऐसा बढ़ते हुए लोकलुभावनवाद और नरेंद्र मोदी के तहत हिंदुत्व के एक नए ब्रांड के उदय की वजह से हुआ था.
इससे भी अधिक अहम तौर से, एक नया सांस्कृतिक युद्ध भी शुरू हो गया था जिसने जोर देकर कहा कि ‘भारत के एक से अधिक विचार’ हो सकते हैं. राजनीतिक जीत के करीब पहुंचने और इसे हासिल करने के क्रम में मोदी और उनके नए सांस्कृतिक योद्धाओं ने आक्रामक रूप से हमें याद दिलाया कि जिन विचारों और इतिहासों को कभी गुमनामी में धकेल दिया गया था या जानबूझकर उपेक्षित कर दिया गया था, वे अब शक्तिशाली हो चुके हैं. संक्षेप में, पिछले एक दशक ने भारत के इतिहास में पहली बार सावरकर और हिंदुत्व को प्रमुख और नजर आने वाले पंथ के रूप में स्थापित किया है.
सावरकर का नाम लेते हुए राहुल गांधी केवल महात्मा गांधी के साथ अपनी पहचान जोड़ रहे हैं. निश्चित रूप से, इतिहास के युद्ध सिर्फ अतीत के बारे में नहीं हैं. उनका आज के भारत की पहचान और कल के इसके भविष्य के साथ बहुत कुछ लेना-देना है. सावरकर का नाम लेकर और विश्लेषकों के खिलाफ जाकर, राहुल गांधी ने राजनीतिक व्यावहारिकता दिखाई है और एक ऐसे समय में जब भारत अपने सबसे अहम आम चुनाव के लंबे सत्र के लिए तैयार हो रहा है, स्पष्ट रेखाएं खींचने के मामले में बढ़त ली है.
अनुवाद: रामलाल खन्ना
संपादन: इन्द्रजीत
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